गुरूजी के वो लात-घूंसे
गुरूजी के वो लात-घूंसे
बात साल 2002 के उन दिनों की है, जब इंंटर कालेज में नौवीं कक्षा में एडमिशन लिए मुझे
एक-दो ही महीने हुए थे। आठवीं पास कर जब मैंने नौंवी कक्षा में प्रवेश लिया तो उच्च गणित और विज्ञान विषय का चयन किया। उन दिनों उच्च और निम्न दो प्रकार की गणित हुआ करती थी। उच्च गणित विज्ञान ( साइंस ) वर्ग के विद्यार्थी ही लेते थे और निम्न गणित कला वर्ग के।
उन दिनों विज्ञान वर्ग के विद्यार्थियों का एक अलग ही रूतबा हुआ करता था। अगर किसी छात्र से पूछा जाता कि आप किस वर्ग के विद्यार्थी हो, अगर वह साइंस वर्ग का होता तो गर्व से सीना चौड़ा कर जवाब देता- "साइंस।" यदि वह कला वर्ग का होता तो बुझे मन से जवाब देता-"आर्ट।" उन दिनों साइंस वर्ग के विद्यार्थी पढ़ाकू माने जाते थे, जबकि कला वर्ग के विद्यार्थी शरारती और उद्दंड माने जाते थे। कुछ हद तक बात सही भी थी, क्योंकि साइंस उन्हीं को दी जाती थी, जो पढ़ाई में अच्छे होते थे। इसी कारण से शिक्षक भी साइंस वर्ग के विद्यार्थियों को ही प्राथमिकता देते थे।
साइंस के इसी रूतबे को देखते हुए मैंने भी नौंवी कक्षा में उच्च गणित ले ली और बन बैठा विज्ञान वर्ग का छात्र। शुरुआत में मैं कक्षा में पीछे बैठा करता था। और वैसे भी मुझ जैसे गाँव के बुद्धू विद्यार्थी के लिए आगे जगह कहाँ थी ! आगे तो शिक्षकों के लड़के और भाई-भतीजे बैठा करते थे। पीछे बैठने का सीधा मतलब था कि कक्षा का सबसे बुद्धू और दुष्ट विद्यार्थी।
उस दिन भी मैं हमेशा की तरह पीछे बैठा हुआ था। इंटरवल बंद हो चुका था। पांचवाँ वादन कृषि विषय का था। लंबी-चौड़ी कद काठी, छोटी-छोटी मूंछें और पैरों में चमड़े के जूते ! सेम-टू-सेम अमिताभ बच्चन जैसे शरीर वाले गुरूजी ने कक्षा में प्रवेश किया। नाम था उनका श्री पूरन सिंह मेहता।
गुरूजी ने आगे के कुछ लड़कों को उठाकर प्रश्न पूछे। उसके पश्चात उनका ध्यान मे
री ओर गया- "ऐ बालक ! खड़े हो जा। क्या नाम है तेरा ?"
"जी पवनेश !" मैंने जवाब दिया।
"अच्छा। पिताजी का नाम क्या है ?"
"महेंद्र सिंह।"
मेरा इतना कहना था कि वो बिजली जैसी फुर्ती से मेरे पर झपट पड़े-"साले ! तेरे गोठ का बैल है महेंद्र सिंह। हैं !" बूटों से दनादन दो लात मेरे कूल्हे पर जमा दिये। साथ ही दो मुक्के मेरी पीठ पर भी पड़े।
"साले पिताजी के नाम के आगे श्री लगाते हैं, इतना पता नहीं है तुझे। आ गया कृषि पढ़ने। मार-मार के तेरा भुरकस निकाल दूंगा।" मार पड़ने के बाद मैं चुपचाप बैठ गया। मैंने मन में सोचा यह उतनी बड़ी गलती भी नहीं थी, जितनी मार मुझे पड़ी थी।
इस घटना के कारण कक्षा में मेरी छवि और भी बदतर हो गई थी। इसी बीच हमारी अर्द्धवार्षिक परीक्षाएँ हुईं। परीक्षा का रिजल्ट देखकर कक्षा के सभी विद्यार्थी चौंक पड़े, क्योंकि मैंने कक्षा में प्रथम स्थान प्राप्त किया था। शिक्षकों के लड़कों और भाई-भतीजों के भी उतने नंबर नहीं थे, जितने मेरे थे।इसीलिए सभी का चौंकना स्वाभाविक था। परिणाम के दूसरे दिन जब पूरन सिंह मासाब कक्षा में आये तो उन्होंने मेरी तारीफ की और कहा-"पवनेश तूने अच्छा काम किया था। तू अब से पीछे नहीं बल्कि आगे बैठेगा।" मुझे उठाकर आगे बिठा दिया गया।
समय का चक्र घूमता गया। वार्षिक परीक्षा में भी मैं कक्षा में प्रथम आया। और अगले वर्ष दसवीं की बोर्ड परीक्षा में भी मैं पूरी कक्षा में प्रथम श्रेणी से पास होने वाला एकमात्र विद्यार्थी था। दसवीं के बाद पिताजी के अन्यत्र चले जाने के कारण मुझे भी उनके साथ जाना पड़ा।
आज मैं अब पूरे तीस साल का हो गया हूँ। मेरी स्मृति में रह-रहकर पूरन सिंह मासाब आते रहते हैं। जब भी कोई व्यक्ति मुझसे किसी भी व्यक्ति का नाम पूछता है, तो मैं उसके नाम के आगे श्री लगाना नहीं भूलता। कभी-कभी थोड़ी सी भी चूक होने पर गुरूजी के वो लात-घूंसे तब जिंदा हो उठते हैं। जिंदा हो उठती है उनकी वह सीख..।