Devendra Tripathi

Abstract Inspirational

4.5  

Devendra Tripathi

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मेरा देश

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आज के २३ साल पहले जब सिपाही सुनील कुमार कारगिल में अपने जान की बाजी लगाकर दुश्मनों के छक्के छुड़ा रहें थे, तो उन्हें क्या पता था, कि यह उनके जीवन की आखिरी जंग होगी...और वह यहाँ से वापस अपने घर नहीं जा पाएंगे।

अभी तीन महीने पहले, जंग पर आने से पहले अपनी पत्नी सुनीता से नन्हे मेहमान के आने का समाचार सुनकर आये थे...तभी से ये सोच रखा था, कि सुनीता को जल्द ही अपने पास ले आएंगे, यहाँ उसकी देखभाल और एक दूजे का साथ भी मिल जायेगा...अभी दो ही साल हुए थे, सुनील को फ़ौज की नौकरी ज्वाइन किए हुए, जब उन्हें जंग में भारत माता की रक्षा के लिए सेवा का मौका मिला था....

बचपन से ही फ़ौज में जाने की ख्वाहिश थी सुनील की, जो बीस साल की उम्र में ही पूरी हो गयी... इक्कीस के होते ही शादी सुनीता से हो गयी। घर में माँ पिता जी के अलावा एक छोटा भाई था, जो अभी छठी कक्षा में पढ़ता था....ले देकर सुनील पर ही पूरा परिवार आश्रित था।

माँ के पेट में नन्ही जान यही कोई छः महीने की थी, जब सुनील के वीरगति को प्राप्त होने की सूचना घर में पहुंची थी... जब सुनील का पार्थिव शरीर तिरंगे में लिपटकर गाँव आया था, तो पूरा गाँव नहीं पूरा शहर रोया था, तमाम बड़े बड़े लोगों का ताता लगा हुआ था... कुछ भी तो नहीं याद है सुनीता को.. उसे दो महीने तक होश ही कहाँ था, किसी चीज का.....

जब होश में आयी, तो एक बड़ी जिंदगी और पेट में पल रहें नन्ही जान सामने थी, जो उसे उसके साथ अकेले ही बितानी थी...२० साल की सुनीता, जिसे कुछ दुनियादारी नहीं पता थी, कैसे इतना बड़ा जीवन अकेले बिताएगी... सुनील के माँ पिता जी इसी बात से हमेशा परेशान रहते थे.... फिर वह पल आया, जो सुनील के बचपन को वापस लेकर घर में आ गया...

नन्हें बच्चे का नाम नवीन रखा गया क्योंकि घर में एक नयी रोशनी और नया सवेरा लेकर आया था। सुमन के साथ साथ सुनील के माँ पिता जी का भी वक़्त के साथ घाव भरता गया।

नवीन कभी अपने दादा दादी से, तो कभी माँ से, अपने पापा की बहादुरी की कहानियां सुनते सुनते बड़ा हुआ। नवीन को हर जगह अपने पापा के देश के लिए किये गए बलिदान के कारण बहुत सम्मान मिलता था। गाँव में पापा की लगी मूर्ति देख देश भक्ति का जज्बा उसके अंदर भी भरने लगा था।

माँ ने आठ साल के नवीन को एक रात बताया कि उसके पापा अपने बच्चे को फ़ौज का बड़ा अफसर बनाना चाहते थे.. बस क्या था? नवीन के सपनो को मानो पँख मिल गए थे, वह अपने पापा का सपना पूरा करने के लिए दिन रात मेहनत करने लगा।

हर बार पापा की पुण्यतिथि पर यही कामना करता कि उसे उसके उद्देश्य में सफलता मिले.... पढ़ने लिखने में औसत नवीन का उद्देश्य बहुत साफ था। लगन और कड़ी मेहनत उसके हाथ में थी, सो उसमे कभी भी शिथिलता नहीं बरती।

विज्ञान वर्ग से हाई स्कूल, इंटरमीडिएट और ग्रेजुएशन की परीक्षा उत्तीर्ण कर डिफेन्स की परीक्षा पास कर ली।

आज नवीन लेफ्टिनेंट के पद पर नौकरी ज्वाइन करने जा रहा है, आज पिता का सपना, माँ का त्याग और दादा, दादी का आशीर्वाद नवीन पूरा करने जा रहा है।

आज सुनीता को अपने त्याग और बलिदान की कीमत अदा होती हुई दिख रही है, उसकी आँखों में एक चमक है। बड़े विश्वास से सुनील के फोटो को देखती हुई, बहुत कुछ कहना चाह रही है। ये सफर सुनीता का इतना आसान नहीं था, बहुत कठिनाईयां थी, हर कदम पर रास्तो में कंकड थे, बहुत अरमानो का त्याग था, बड़ी बड़ी तन्हाइयों से भरी राते थी, समाज का धिक्कार था और अपनों के ताने भी थे... लेकिन आज बेटे की सफलता ने सबकुछ धुलकर उसे पवित्र बना दिया है। सभी लोग सुनीता का गुणगान कर रहें है, एक माँ क्या कर सकती है, उसका आदर्श हो गयी है सुनीता......

आज २३वी पुण्यतिथि पर सुनीता अपने बेटे नवीन को लेफ्टिनेंट की कैप पहनाते हुए, गर्व से सल्यूट कर रही है, और नवीन अपनी माँ का आशीर्वाद लेकर भारत माँ की सेवा के लिए घर से निकल गया है।


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