आशीष पाण्डेय

Horror

4.2  

आशीष पाण्डेय

Horror

लीलावती (एक महा विरांगना)

लीलावती (एक महा विरांगना)

15 mins
406


प्राण वापस आते ही राजा के नेत्र की ज्योति उसी प्रकार रानी के मुख मण्डल का चुम्बन कर ली जैसे अभ्र में समाये हुए जलधर के बीच से सौदामिनी की रश्मि धरणी के कपोल का चुम्बन कर लेती है। रानी के कपोल से अश्रु मोति उसी प्रकार नीचे गिर रहे थे जैसे बरसात के समय वोरावन से जलधारा गिरती है अश्रु के गिरने और निकलने के मध्य काल में रानी राजा के मुख मण्डल को देख पाती थी रानी के मुखावयव पर कोई श्रृंगारिक शोभा नहीं थी फिर भी रानी का चन्द्रमुख - चन्द्रशोभा को मलीन कर रहा था राजा उसी प्रकार रानी के मुख रश्मि में लीन हो रहा था जैसे सुधाकर गगनसर में न खोकर नीर में

बिखरने वाली रश्मि में खो जाता है रानी के अश्रुयुत नयन उसी प्रकार देदीप्यमान हो रहे थे जैसे झुरमुटों के मध्य मणि देदिप्यमान होती है रानी के अधर पर स्मृत्यल्प उसी प्रकार मनमोहक लग रही थी जैसे झिने- झिने बादलों के बीच चन्द्रमा मनमोहक लगता है रानी के केश नवीनाभ्र सदृश कण्ठपृष्ट पर छाये हुए थे राजा दूर होकर भी रानी के इतने समीप था मानो आकाश - धराकाश में परिवर्तित हो गया है राजा - रानी से और रानी- राजा से उसी प्रकार कुछ कह नहीं पा रहे थे जैसे धरती - आकाश से,सूर्य दिन से, चन्द्रमा रात्रि से, पारावार - नदी से, वृक्ष- लता से, पुष्प - भ्रमर से, शोभा- रुप से, दामिनी- बादल से, प्रकृति- पुरुष से कुछ नहीं कह पाती है। दोनों की नयन किरणें उसी तरह एक दूसरे को चूमती हुई आ - जा रही थीं जैसे प्रातः काल सूर्य की किरणें धरती को और धरती से उठी सूर्य की किरणें सूर्य को चूमती हुई आती - जाती हैं अधिक समय तक एक दूसरे का मुख मण्डल निहारने के पश्चात राजा उसी प्रकार उठ खड़ा हुआ जैसे समुद्र की लहरें समतल होकर अचानक उठ जाती हैं राजा को खड़ा हुआ देख रानी शीश झुकाये खड़ी हो गयी अश्रु उसी तरह वसुधा पर टपक रहे थे जैसे आम्र के बौर से रस टपकता है राजा कुछ बोला नहीं वह तत्क्षण राज्य सभा की ओर प्रस्थान किया। राज्य सभा के मुख्यद्वार पर पहुंचने ही वाले थे कि। द्वारपाल-- बोल पड़ा।सावधान- शत्रु विनाशक, महापराक्रमी, सूर्य के तेज से युत, आजानबाहु, विश्वविजेता,महाज्ञानी,प्रजाहितकारी , प्रजाजयी महाराज पधार रहें हैं।

राज्य सभा कक्ष में उसी प्रकार प्रवेश करने लगा जैसे- विद्युत धरणी में प्रवेश कर जाती है राज्यसभा कक्ष में प्रवेश करते ही सभी मंत्री उसका स्वागत और वन्दन करने लगे। राजा युद्ध की बात विस्मृत हो चुका था वह यही सोंच रहा था कि कोई शत्रु हमारे राज्य पर आक्रमण करने वाला है इस विचार से वह सिंहासन पर बैठते ही महामंत्री शत्रुहन्ता से बोला।

राजा- महामंत्री हमारे राज्य पर जो शत्रु आक्रमणेच्छुक होकर बढ़ रहा है वह कहां तक पहुंचा है। राजा की बात सुनकर सब आश्चर्य में पड़ गए और अपलक सब राजा को देखने लगे उसी प्रकार जैसे अचानक प्रेमिका के सामने प्रेमी के आ जाने पर प्रेमिका आश्चर्य से देखने लगती है महामंत्री को रानी की बातों का स्मरण हुआ और वह विचार करके बोला।

महामंत्री------ महाराज जो शत्रु हमारे राज्य पर आक्रमणेच्छुक था वह हमारे राज्य की कुशल सैन्य शक्ति को देखकर पीछे हट गया है और शायद अब वह कभी हमारे राज्य की ओर नहीं देखेगा। महामंत्री की बात सुनकर मुस्कुराते हुए बोला।

राजा-----अच्छा! बहुत अच्छा! मैं तुमसे अति प्रसन्न हूं महामंत्री! शत्रु का संकट टल गया है तो मुझे मेरी प्रजा के बारे में बताओ उसे कोई कष्ट तो नहीं है उसे किसी प्रकार की समस्या तो नहीं।

महामंत्री बोला---- महाराज कोई समस्या नहीं है समस्त प्रजा सुख से है आप जैसे धर्मात्मा, प्रजाहितकारी के होते हुए प्रजा को कष्ट कैसे हो सकता है। हे नरोत्तम! समस्त प्रजा उसी प्रकार सुख से रह रही है जैसे समुद्र में लहरें रहती हैं महामंत्री की बात सुनकर राजा मुस्कुराते हुए बोला।

महामंत्री---- ठीक है मेरी प्रजा सुख से रहेगी तो मैं भी सुख से रहूंगा क्योंकि प्रजा का कष्ट राजा पर ही बीतने वाला कष्ट है इसलिए प्रजा सुखी तो मैं सुखी।

महामंत्री बोला--- आप धन्य हैं महाराज!

राजा बोला----- महामंत्री धन्य उस परमात्मा को कहो जो मेरी प्रजा को इस प्रकार सुख दे रहा है। क्योंकि उसकी सहायता के बिना मैं अपनी प्रजा को क्या अपने आप को सुखी नहीं कर सकता हूं।

महामंत्री----- हाथ जोड़कर शीश झुका लेता है। तब

राजा----- कहता है। महामंत्री आज मैं प्रजा से मिलना चाहता हूं इसलिए प्रजा में सूचना दे दी जाए।

महामंत्री---- बोला जैसी आपकी आज्ञा।इतना कहकर वह प्रजा में सूचना भेजवा देता है।

सूचना वाहक----- मृदंग बजाते हुए कहता है। सुनो- सुनो आज महाराज आप सब से मिलने के इच्छुक हैं इसलिए आप सब चलकर महाराज से अपने सुख दुख का वर्णन करें।

प्रजा----- यह बात सुनकर और अपने राजा को स्वस्थ सुनकर अश्रुयुत हो प्रसन्न हो गयी। प्रजा उसी प्रकार प्रसन्नता में ढल रही थी जैसे प्रथम मेघ को देखकर स्वाती के बूंद की लालसा में चातक प्रसन्नता में ढलने लगता है।। 

प्रजा ----- राजमहल में आकर यथा स्थान पर बैठ गयी।कि इतने में स्वर सुनाई दिया।

 परमपराक्रमी, प्रजाहितैषी, दुखनाशक महाराज पधार रहें हैं स्वर सुनते ही सारी प्रजा खड़ी हो गई उसी प्रकार जैसे समुद्र में अचानक मत्स्य उछलती है प्रजा के अश्रु राजा का अभिन्दन कर रहे थे।प्रजा उसी प्रकार राजा को निहार रही थी जैसे ब्रह्म मुहूर्त आने पर सूर्य की प्रतिक्षा में कमल आकाश को निहारता है राजा अपने सिंहासन पर बैठकर बोला।

शक्ति स्वरुप प्रजाजनों - अपने इस राजा का प्रणाम स्वीकर करें।क्योंकि आप हमारी शक्ति हैं और आप के बिना हमारा कोई अस्तित्व नहीं। इसलिए आप शक्ति स्वरुपा को मैं प्रणाम कर रहा हूं। जिस तरह राजा के बिना प्रजा अधूरी है उसी प्रकार प्रजा के बिना राजा भी अधूरा है। जिस तरह प्रजा चाहती है कि मेरे राजा पर कोई विपदा न आए और आने वाली विपदा को स्वयं सहने के लिए प्रयत्न करती है उसी प्रकार राजा को भी अपनी प्रजा पर आने वाले हर संकट को दूर करना चाहिए। इस राज्य के कर्मचारियों से यदि कोई भी पीड़ित हो, या कोई कर्मचारी उसके दुखों के निवारण के लिए प्रयत्नशील न हो,या किसी भी प्रकार की अन्य कोई समस्या हो तो आप सब बिना डरे कहिए। मैं उसका निवारण करुंगा। क्योंकि प्रजा की प्रसन्नता राजा परमधन है और प्रजा को प्रसन्न रखना राजा का धर्म है। इसलिए प्रजा के सुख के लिए प्रेम,,सुख,और समृद्धि का भी त्याग कर सकता हूं इससे मुझे कष्ट नहीं होगा।जिस प्रकार सुगन्धित पुष्प शीश के अधिकारी हैं चरण से कुचले जाने के नहीं, उसी प्रकार प्रजा भी सुख भोगने की अधिकारी है दुख भोगने की नहीं।और जिस कर्मचारी को कोई कष्ट हो वह मुझसे नि: संकोच कह सकता है। राजा की बात सुनकर सारी प्रजा मुस्कुराती हुई अश्रु पोंछते हुए बोली।

प्रजा कहती है-----महाराज हम सब को कोई कष्ट नहीं है आप जैसे कष्टनाशक के रहते हुए हमें क्या कष्ट हो सकता है। हम सब सुखी हैं आपकी जय हो आपकी जय हो प्रजा तीव्र ध्वनि में जयघोष करने लगी।।

उसके पश्चात वह स्थान उसी प्रकार सूना -सूना सा दिखने लगा जैसे शान्त झील सूनी दिखाई देती है जैसे मेघ के गरजने के पश्चात आकाश सुन्दर और सूना दिखाई देता है।।

सब अपने अपने कार्य में संलग्न हो गये।

सूर्यास्त हुआ राजा अपने शयन कक्ष में जाकर विश्राम करने लगा। उसकी रानी अपने शयन कक्ष में राजा की प्रतिक्षा कर रही थी क्योंकि वर्षों बीत गये थे राजा के साथ निशावसान किये।वह षोडश श्रृंगार किए बैठी थी।वह उसी प्रकार सुन्दरता को धारण की थी जैसे---- शरदर्तु में तालाब का जल, वर्षर्तु में नभ और नदियां,वर्षाकाल में मेघ,नवीन मेघ में ह्लादिनी,वसंतर्तु में वसंतकोकिला, वृक्ष और वसुंधरा,प्रेमी के प्रथम चुम्बन से प्रेमिका, प्रथम गर्भ से गर्भिणी, सूर्य की किरणों से कमल शोभा धारण करता है। खिले हुए नवीन श्वेतकमल के तुल्य गौर वर्ण,कोमल,चिकनी, जल के हिडोल के सदृश सुन्दर शरीर से सुसज्जित थी। रानी का घूंघटार्ध पष्पोद्यान में नृत्य करते हुए मयूर के सदृश इधर उधर हिल रहा था आकटि गूंथें हुए घने रेशम की तरह पतले बालों और उभरे हुए सुन्दर कपोलों तथा दांतरुपी अंकुर और भोले भाले,मुख को धारण करने वाली वह परम सुन्दरी चांदनी के सदृक्ष वह सहवासेच्छुकी अपनी दासियों के मन में भी कामेच्छा का अंकुरोत्पन्न कर रही थी। अर्ध रात्रि बीत गयी रानी प्रतिक्षा में ही बैठी रही,कि अचानक काम का प्रहार राजा की निद्रा को उसी प्रकार पीड़ित कर हर लिया जैसे कालपुरुष जीव को पीड़ित करके प्राण हर लेता है। राजा अपने शयन कक्ष से उठकर रानी के शयन कक्ष की ओर जाने लगा तो उसके पादचाप से रानी को उसके आने का आभास हो गया। राजा रानी के शयन कक्ष के द्वारपर आकर द्वारपालिका से बोला।

राजा --- कहता है। जाकर महारानी को मेरे आने का सन्देश दो।

द्वारपालिका--- महारानी की जय हो! महाराज द्वार पर खड़े हैं आने की अनुमति चाहतें हैं। 

रानी---- उन्हें आने के लिए कौन रोका है बिना संकोच के आ सकते हैं।

द्वारपालिका---- महाराज महारानी आपकी प्रतिक्षा कर रही हैं।

राजा---- कक्ष में प्रवेश कर जाता है। तब 

दूसरी--- द्वारपालिका जो नूतनावस्था में थी अल्पज्ञ थी उसने श्रेष्ठा से पूंछा महाराज को महारानी के कक्ष में जाने के भी अनुमति लेनी पड़ती है।

 श्रेष्ठा ----हंसती हुई बोली अरे! पगली अनुमति नहीं विद्वानों का धर्म है शास्त्र कहता है।

श्लोक----- 

श्रेष्ठा--- की बात सुनकर लघिमा कहती है अच्छा यह तो मुझे ज्ञात ही नहीं था इतना कहकर दोनों चुप हो गयीं।

राजा---- कक्ष में जाते ही रानी को सजा हुआ देख उसके सौन्दर्य पर मुग्ध होकर उसकी भूरी भूरी प्रशंसा करते हुए कहता है यदि आज तुम्हारे इस स्वरूप को जगत को पीड़ित करने वाले कामदेव भी देखते तो विवश हो जाते अपनी पत्नी का आलिंगन करने के लिए।

हे भद्रे---- अब मेरा कल्याण करो मुझसे और पीड़ा सहन नहीं होती है इसलिए मेरे ऊपर उपकार करने वाली कामदेव की दी हुई पीड़ा से भयभीत और पसीने की बूंदों से युक्त, चन्द्रमा की किरणों के स्पर्श से पिघलने वाले,चन्द्रकान्त मणि के हार के तुल्य विलास वाली और मानो मुझे जीवन प्रदान करने वाली अपनी बाहों को मेरे गले में डाल दो। यह सुख है या दुख,मूर्छा है या सुभग चेतना, विष का सार है या अमृत,यह मैं नहीं बता सकता हूं क्योंकि तुम्हारा प्रत्येक स्पर्श इन्द्रियसमूह को निश्चेष्ट कर देता है मैं बस यही जानता हूं कि तुम्हारा स्पर्श आनन्द की अनुभूति कराता है।हे नयनाम्बुजे! तुम्हारे मधुर वचन मुरझाए हुए जीवन रुपी पुष्प को विकसित करने वाले, समस्त इन्द्रियों के मोहक, कानों के लिए अमृतस्वरुप और मन के लिए रसायन के समान हैं।।विवाह से लेकर आज तक यह बांह अन्य स्त्री के लिए अनुपयुक्त होकर तुम्हारे लिए सुख का साधन है क्योंकि तुम मेरे लिए घर की लक्ष्म के समान, नेत्रों के लिए अमृत की शलाका के समान, तुम्हारा स्पर्श शरीर पर घने चन्दन रस के समान,तुम्हारी बांह गले में शीतल और सुन्दर मोती के हार के समान है तुम्हारी कौन सी वस्तु प्रियतर नहीं है। इसलिए अब तुम्हारा विरह यदि और हुआ तो अत्यन्त असह्य है।। जो दाम्पत्य भाव सुख और दुख में एक रूप रहता है जो जीवन की सभी अवस्थाओं में व्याप्त रहता है जिसमें हृदय को विश्राम मिलता है जिसके रस को वृद्धावस्था भी नहीं हर सकती है, जो समयानुसार विवाह से आमृत्यु परिपक्व प्रेम के सारभाग में स्थित है,उस दाम्पत्य का वह अनिर्वचनीय और विलक्षण आनन्द सर्वथा अभीष्ट है। राजा की बात सुनकर रानी को कुछ हास परिहास करने का मन किया किन्तु फिर मन में विचार करने लगी।।

रानी------विचार करती है। विश्वास से मेरे सोए हुए वक्षस्थल को जगाने वाले , मेरे अधररस को बिखेरने वाले, मेरे केशों को उलझाने वाले, कटि प्रदेश पर चुटकी करने वाले, कपोलों की लाली छुड़ाने वाले,वक्षस्थल को लाल रंग देने वाले, इन प्रेमपुरुष का आलिंगन यदि नहीं किया तो मेरा यह श्रृंगार व्यर्थ है। किन्तु मन में विचार करती रही कुछ उत्तर नहीं दी। तब राजा ने कहा।

राजा---- हे देवि! काम से पीड़ित मेरे इस हृदय की औषधि नहीं बनना चाहती हो तो मत बनो किन्तु उत्तर दे दो तुम क्या चाहती हो।

रानी------ रानी मुख से कुछ न बोलकर केशों में सजे हुए एक पुष्प को निकालकर राजा को समर्पण भाव से दोनों हाथों की हथेली के मध्य रखकर संकेत कर देती है।।

राजा------ यह उत्तर पाकर आनन्दित हो जाता है और उसके निकट उसी प्रकार जाता है जैसे----- पुष्प के समीप मधुकर, चातकी के समीप चातक, हंसनी के समीप हंस, मृगी के समीप मृग जाता है। जिस तरह एक सुन्दरी अपने हाथों में मेहंदी सजाती है उसी तरह राजा ने उसके कंधों को अपने कर कमल से सजाया।। घूंघट को कपोल से उसी प्रकार हटा दिया जैसे बादलों के बीच घिरे चन्द्रमा को चूमने के लिए बादलों को हवा हटा देती है कपोलों को भ्रमर के समान अधर से स्पर्श करके जगा दिया और केशों को उसी बिखेर दिया जैसे बादलों को समीर बिखेर देता है। सहवास की क्रीड़ा से निवृत्त होकर राजा शयन करने लगा और रानी अंगलाई तोड़ती हुई केशों को घूमाती हुई बाहर निकली रानी के उरुवस्त्र को भीगा देखकर कौमार्या लघिमा - श्रेष्ठा से पूछती है।

लघिमा----- क्या चन्दन घोलते समय उस रस रानी के वक्षस्थल पट पर गिर गया था। अथवा चन्द्रमा ने अपनी किरणों को निचोड़कर रस से सेंचन किया है। या इसे ठण्डक देने के लिए कोई शीतल औषधि लगाई गयी है। अथवा जीवन शक्ति प्रदान करने वाला और मन को सन्तुष्ट करने वाला, तुरंत आनन्द प्रदान करने वाला वह असह्य स्पर्श है जिसके न सह पाने से स्वेद बह गया है उसकी बात सुनकर।

श्रेष्ठा------ हंसती हुई। जब विवाह होगा तब समझ जाओगी।

लघिमा----- हृदय पर हाथ रखकर कहती है हाय राम! इनकी ये दशा देखकर मेरा हृदय अकार्य को सोचकर ही कम्पन कर रहा है।

श्रेष्ठा------ हंसती हुई बोली ऐसा ही होता है तुम बच नहीं सकती क्योंकि ये प्रकृति का विधान है। दोनों चुप हो गयी।।

ब्रह्म मुहूर्त का समय हुआ राजा की नींद नहीं टूट रही थी तब रानी ने उन्हें जगाने का प्रयत्न किया और पांव पकड़कर बोली हे भद्र! ब्रह्म काल प्रारम्भ हो गया है आप निद्रा का त्याग कर नित्यकर्म की ओर ध्यान केन्द्रित करें। और ईश्वर की आराधना करें।

रानी की बात सुनकर राजा उठकर बैठ गया। और आंखों को स्वच्छ करता हुआ बाहर निकलकर नित्यक्रिया सम्पन किया। लगभग एक मास तक इसी तरह सामान्य जीवन व्यतीत हो गया और एक दिन राजा नित्यक्रिया सम्पन्न करके राजमहल की ओर आने लगा कि उसी समय एक करुणा भरी ध्वनि सुनाई दी। 

ठहरिए राजन! ठहरिए! राजा इधर उधर देखने लगा। कि वामभाग की ओर से एक वृद्ध आता हुआ दिखाई दिया।। राजा देखकर आश्चर्य में पड़ गया और पूंछा हे देव!आप कौन हैं? क्या समस्या है?वह वृद्ध बोला! मुझे एक प्रश्न का उत्तर चाहिए किन्तु राजन! यह प्रश्न ऐसा है जिससे पूंछा जाए यदि वह सत्य नहीं बताता है तो उस असुर कन्या का बंदी हो जाता है।

और यदि न बताना चाहे तो वह प्रश्न दूसरे से पूंछ कर अपने प्राण बचा सकता है राजन! आप उत्तर दीजिए या किसी और से पूंछ सकते हैं तब आपका प्राण बच जाएगा।

राजा----- शान्त भाव से बोला राजा ही प्रजा का पिता होता है। यदि पिता ही अपने पुत्र को संकट में डालेगा तो पिता कैसा? इसलिए मुझे चाहे जो हो जाए किन्तु मैं किसी और को इस बिपत्ति में नहीं फंसने दूंगा। पूंछो क्या प्रश्न है?।

वृद्ध--------राजन! मेरा पहला प्रश्न। एक ऐसी नदी है जो तीव्र गति से दोनों तरफ़ बहती है और आश्चर्य यह है कि वह नदी तट हीन है उसमें कोई किनारा नहीं है उसमें एक स्त्री और एक पुरुष निरंतर बहते जा रहे हैं और सहायता के लिए पुकार कर रहे हैं किन्तु प्रवाह तेज होने के कारण न तो उन्हें कोई देख पाता है और न ही उनकी ध्वनि को सुन पाता है हे राजन! उन्हें बचाने के लिए एक पुरुष उस नदी के ऊपर उड़ता हुआ हाथ पड़ने के लिए फैलाया है किन्तु प्रवाह तेज होने की वजह से वे हाथ पकड़ नहीं पाते हैं और यदि पकड़ने के लिए उछलते हैं तो और डूबने लगते हैं। राजन! उस नदी का नाम क्या है?और वो दोनों डूबने वाले कौन हैं?और नदी के ऊपर उड़ने वाला कौन है?ऐसी अवस्था में वो कैसे बचेंगे?

राजा------सारी बात सुनकर आश्चर्य में पड़ जाता है। और विचार करने करने लगता है कुछ देर सोचने के पश्चात राजा ने कहा हे महात्मन्! आपका प्रश्न तो सचमुच बड़ा कठिन है किन्तु सुनिए। दोनों तरफ बहने वाली नदी है वह माया रुपी नदी है और डूबने वाले जो स्त्री और पुरुष हैं वे आत्मा और बुद्धि हैं और उन्हें बचाने वाला वो परमात्मा है और उसका हाथ वे तभी पकड़ पायेंगे जब डूबने का भय छोड़कर वैराग्य रुपी उछाल मारेंगे।

राजा का उत्तर सुनकर वृद्ध खुश होकर बोला हे राजन! ढाई पल प्रतिक्षा करिए यदि आप बंदी नहीं हुए तो उत्तर सही है।। प्रतिक्षा में ढाई पल बीता ।राजा बंदी नहीं हुआ उत्तर सही था 

वृद्ध----- बोला राजन! उत्तर सही है अब दूसरा प्रश्न सुनिए।।

राजन! किसी देश में केवल एक पुरुष रहता है और कोई नहीं बहुत दिन बीत गया जब वह अकेलापन महसूस करने लगा तो अनजाने देश से आए हुए व्यक्तियों को अपने देश में शरण दे दिया बहुत दिन बीत गये वो लोग पाप का धर्म अपना लिए और उन्मत्त होकर एक ऐसी बिल में जाने लगे जहां से कोई लौटकर नहीं आता। बची तो दो स्त्रियां एक कुलटा थी दूसरी पतिव्रता वो पुरुष अपने आप को अधूरा सा महसूस करने पर उस पतिव्रता स्त्री से विवाह कर लिया और स्वच्छंद विचरण करने लगा एक ऐसे घर में जिसमें पचीस स्तम्भ लगे हुए थे। वह स्त्री उस कुलटा स्त्री के छलावे में फंसकर वह भी कुलटा हो गयी। दोनों का कार्य वही हो गया। इस अवस्था में उसने एक को स्वीकार किया और एक का परित्याग। वो किसको स्वीकार किया और किसको अस्वीकार किया? वो पुरुष कौन है? वह देश कौन सा है?वह बिल कौन सी है? और वो दोनों स्त्रियां कौन है? वो घर कौन सा है? और वे स्तम्भ क्या हैं? उत्तर दीजिए

राजा सारी बात सुनकर सोचने लगा और कुछ समय बाद बोला।

राजा---- हे देव! आप महान हैं। सुनिए! जो देश है वह देश कोई और नहीं यह ब्रह्माण्ड है जिसमें केवल परमात्मा रुपी एक पुरुष रहता है।वह बिल कोई और नहीं पाताल रुप बिल है जहां से कोई आता नहीं। वे दो स्त्रियां माया और बुद्धि हैं वो पुरुष उस बुद्धि रुपी स्त्री का वरण किया है क्योंकि उसकी प्रकृति कुलटा नहीं है वह सुधर सकती है इसलिए उसको स्वीकार किया। वो घर अपना शरीर है और वो स्तम्भ पचीस तत्व हैं।

राजा की बात सुनकर वृद्ध------- बोला राजन! ढाई पल प्रतिक्षा करें यदि आप बंदी न बने तो उत्तर सही है समय बीत गया और राजा बंदी नहीं हुए उत्तर सही था।

वृद्ध----बोला वाह! राजन! आप तो सचमुच बुद्धिमान हैं।धन्य हैं आप।।

मेरा तीसरा प्रश्न राजन! किसी नगर में एक हंस रहता था जिसकी कहानी बड़ी विचित्र है न कुछ खाता है न कुछ पीता है न उसके पैर हैं और न मुख है न पंख है और न चक्षु फिर भी सब कर लेता है उस नगर में एक बढयी रहता है जिसने छूरी और वज्र से एक ऐसा चक्र बनाया है जो स्वयं घूमता रहता है और बिना दिखाई दिए घाव करता है उसमें एक पुत्र है जो अपने वर्तमान के पिता का परित्याग करके पीछे के पिता को स्वीकार करता है।

राजा ---- आश्चर्य से देखता हुआ उत्तर देता है हंस कोई और नहीं अपना शास्त्र है जो बिना कुछ किए सब कुछ करता है। इसलिए उसकी कहानी विचित्र है।बढयी कोई और नहीं परमात्मा है जो दिन और रात रुपी छूरी और वज्र से काल रुपी चक्र बनाया है जो स्वयं घूमता है और बिना दिखाई दिए के घाव करता है जीव रुपी पुत्र अपने शास्त्र रुपी पिता का त्याग कर जन्म देने वाले पिता को स्वीकार करता है। इतना कहते ही वह वृद्ध प्रसन्न होकर नाचने लगता है किन्तु बाद में रोने भी लगता है। 

वृद्ध------कहता है राजन! अब मुझे विश्वास हो गया कि आप मेरे परिवार को बुद्धि चातुर्य से सुरक्षित ले आयेंगे। राजा आश्चर्यचकित हो गया है और बोला।

राजा------हे देव! आप जो प्रश्न किए थे वो किसका था।

वृद्ध----- बोला मेरा । मैं आपकी चातुर्यता देखना चाहता था और सफल होने पर ही अपने रहस्य बताऊंगा यह निश्चय कर आया था इसलिए मैंने आपसे इस तरह के प्रश्न किए थे। आप ही मेरे कष्टों का निवारण कर सकतें हैं।।


Rate this content
Log in

Similar hindi story from Horror