आशीष पाण्डेय

Classics

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आशीष पाण्डेय

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नारी को आजादी दो

नारी को आजादी दो

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नारी सदैव बंधन में बंधी ही पाई जाती है उसे स्वच्छंद विचरण करने का अवसर नहीं मिलता है सदैव मर्यादा की बेड़ियों से उसके पैर बांध दिए जाते हैं वह स्वेच्छा से न तो भ्रमण कर पाई है और न ही स्वैच्छा से जीवन यापन कर पाई है जिसके लिए मध्यकाल से ही नारी अनवरत आज़ाद होने के लिए नारे लगाती आई है रण ठानती रहती है अपने आप को पुरुष की तुलना में अधिक या समान दिखाने के लिए सदैव अपने आप को संकट की गोद में डाल रही है नारी को स्वतंत्रता देने के लिए, पुरुष के समान या पुरुष से अधिक होने के लिए संकट की गोद में बैठने की क्या जरूरत है? नारी तो सदैव पुरुष से महान थी और सदैव पुरुष से महान है और रहेगी। गोस्वामी तुलसीदास जी ने या अन्य शास्त्र ने नारियों के केवल आठ अवगुण बताएं हैं किन्तु पुरुष के अनन्त अवगुणों का वर्णन किएं हैं इसलिए नारी सदैव पुरुष से महान थी महान है और महान रहेगी। अब बात करतें हैं नारियों के बंधन की तो नारियों के लिए बंधन क्या है? उन्हें घर से बाहर नहीं जाने दिया जाता है, उन्हें पर्दे के लिए मजबूर किया जाता है, उन्हें उनकी दृष्टि में सेविका के रुप में देखा जाता है, उन्हें उनकी इच्छानुसार मनपसंद स्थानों पर जाने नहीं दिया जाता है, उन्हें उनकी इच्छानुसार कुछ पहनने,खाने,देखने,घूमने नहीं दिया जाता है नारियों की दृष्टि में नारियों पर पुरुष शासन करता है जबकि नारियों को पुरुष पर शासन करना चाहिए।जिससे घर का संचालन ठीक तरह से हो सके।

पर उन्हें ऐसा अवसर ही नहीं मिलता है कि वो सुन्दर घर को और सुन्दर बना सकें। नारी सशक्तिकरण की योजना में भी नारी को बंधन उनकी दृष्टि में बंधन में बांधकर ही रखा गया है। नारी भी पुरुषों के समान वस्त्र में घूमना चाहती है नारी भी पुरुषों के समान वाहन का संचालन करना चाहती है। नारी भी पुरुषों की तरह भ्रमण करते हुए अनेक प्रकार से रसस्वादन करना चाहती है पृथक-पृथक विषयाधीश में उसका ज्ञान करती हुई रमण करना चाहती है। नारी जीवन के हर एक युद्ध को पुरुषों से आगे होकर लड़ना चाहती है वो चाहती है मैं पुरुषों को कष्ट क्यों दूं जो चीज करने में मैं स्वयं सक्षम हूं।किन्तु आश्चर्य कि बात यह कि उसकी हर सोच अधितकर सोच तक ही सीमित रह जाती है। नारियों को वैदिक काल की तरह स्वच्छंद कर दिया जाए। जैसे उन्हें स्वयंवरा कहा जाता है वैसे ही उन्हें स्वयंवरा आज भी कर दिया जाए। नारियां चाहे तो अमाजू रहें या पतिवरा रहें उन्हें उनकी इच्छानुसार करने की स्वतंत्रता दे दी जाए। युवती विधवाओं को 

भी उनकी इच्छानुसार उनका विवाह कर दिया जाए और यह विवाह नारी के ससुराल वाले ही अपनी बेटी की तरह करें। क्योंकि विवाह के बाद नारी उनकी गोत्रा हो जाती है जिसकी वजह से मायके वाले उसका दान नहीं कर सकते हैं क्योंकि वह नारी उसके गोत्र की नहीं होती है और यदि नारी अपनी इच्छानुसार पति की याद में वही ससुराल में विधवा बनकर ही रहना चाहती है तो ससुराल वालों को यह अपना सौभाग्य मानकर उसे अपनी बेटी की तरह वहीं रहने दिया जाए। नारी कोई खिलौना नहीं है जहां इच्छानुसार पुरुष उस पर बंधन लगाये उसे भी स्वैच्छा से जीवन यापन करने दिया जाए। जो नारी अपनी सतीत्व को संवारती हुई जीवन यापन कर रही है उसके लिए बंधन न रखें क्योंकि ये उचित नहीं स्वतंत्र जीने का अधिकार सब को है किन्तु जो सतीत्व को धूमिल कर रही है उसे बंधन में न रखकर हमेशा के लिए अपने विवाह रुपी धागे से मुक्त करके उसने जहां अपना सतीत्व स्वैच्छा से रखा है वहां जाने के लिए मुक्त कर दें। बंधन में रखकर प्रेम नही पाया जाता है प्रेम की आड़ में विष पिया जाता है।हर पति को यह चाहिए कि वो अपनी पत्नी से उसकी इच्छाएं जाने और सामर्थ्यानुसार उसकी पूर्ति करे यही पत्नी के लिए पति का समर्पण और प्यार है स्त्री की इच्छानुसार पुरुष सब कुछ तो नही दे सकता किन्तु जितना हो सके विना कृपणता दिखाए प्रेम पूर्वक उसे प्रदान करें। इससे धन यश कम नहीं अपितु और बढ़ जायेगा। नारी को जहां बंधन लगे उससे प्रेम पूर्वक पूंछकर उसे मुक्त कर दें किन्तु यदि वह स्वेच्छा से स्वीकार कर रही है तो मुक्त होने के लिए प्रताड़ित भी न करें नारी को जिसमें सुख मिले जैसे सुख मिले जहां सुख मिले उसे जाने ,करने दिया जाए।

प्रकृति ने ही जब समानता नहीं रखी तो हम समान रखने वाले कौन हैं? किन्तु जहां तक हो सके नारी को अपने अंग की तरह महत्व दें और सदैव देवी की नज़र से सुशोभित करें। नारी जब सब कुछ पुरुष को समर्पित कर देती है तो इच्छानुसार विचरण करने जैसा छोटा सा दान पुरुष नहीं दे सकता है उसे बंधन की क्या जरूरत है? नारी को तुम आजाद करो वो तुम्हारे प्रेम के धागे में बंधकर वो सब कुछ प्रेम से मुस्कुराती हुई करेगी जो तुम उससे बंधन में रखकर प्रताड़ित करके करवाओगे। नारी को आजादी दो उस हर चीज से जिससे वो अपने आप को बंधन में महसूस करती है। ये सृष्टि चक्र है आज आजादी के लिए रण कर रही है कल बंधन के लिए रण करेगी हमें प्रकृति से लड़ना नहीं अपितु प्रकृति के अनुसार ढलना चाहिए ये काल चक्र है एक दिन घूमते घूमते उसी छोर पर आयेगा जहां से सुन्दर सृष्टि का निर्माण होता है। नारी तो पुरुष का पौरुष है नारी के विना पुरुष शक्ति हीन है अपनी ही शक्ति से लड़ने वाले पुरुष का निश्चित विनाश होता है इसलिए स्त्री को बांधकर नहीं उससे उसकी स्वच्छंदता पूंछकर उसके साथ जीवन यापन करना चाहिए यही मानव धर्म है किसी को बांधकर रखना शास्त्र सम्मत नहीं है इसे शास्त्र भी निंदित मानते हुए इसकी अवहेलना करता है।

भगवान राम ने गर्भवती माता सीता को उनकी इच्छा पूंछकर ही वन भेजा था यदि उनकी सहमति न होती तो कभी उन्हें भगवान वन न भेजते इसलिए हर पुरुष का ये धर्म और सबसे बडा कर्तव्य है कि वो अपनी पत्नी, बहन ,बेटी से उसकी इच्छा पूंछकर उसके लिए कार्य करे किन्तु स्त्री को भी ऐसी इच्छा व्यक्त नहीं करनी चाहिए जो कुल धर्म के विरुद्ध हो इसलिए मैं पुरुषों से यह आग्रह नहीं करूंगा कि वे कुल के यश को धूमिल करने वाली इच्छा की पूर्ति करें किन्तु यदि बेटी, बहन या स्त्री इसके विपरीत आचरण कर रही है तो उसे दण्डित नहीं अपितु उसे सदैव के लिए अपने कुल, धर्म और घर से आजाद कर देना चाहिए और यह कह देना चाहिए कि अब इस घर से तुम्हारी अन्तिम विदाई है। नारी जो करना चाहती है उसे करने दिया जाए उसे किसी भी चीज के लिए बंधन में रखा न जाए वो चाहे मर्यादित हो या अमर्यादित। मर्यादित हो तो जीवन भर उसका सत्कार करें और अमर्यादित हो तो विष समझ कर हमेशा के लिए त्याग करें। किन्तु उसे बंधन में न रखें उसे आज़ाद होने दीजिए। नारी को पुरुष न बांधे नारी को एक दिन सृष्टि बांधेगी जिससे उसके अन्दर के बंधन की भावना समाप्त हो जायेगी और वो स्वयं प्रसन्नता पूर्वक उसी धर्म को अपनायेगी जो हमारे ऋषियों ने प्रदान किया है। हमें किसी को बांधने का अधिकार नहीं दिया है सब को स्वतंत्र रहने का अधिकार है इसलिए नारी जिसमें बंधन समझे उससे उसको सम्मान पूर्वक मुक्त कर दिया जाए यही मानव का वास्तविक धर्म और कर्तव्य है।।


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