स्वतंत्रता समये संस्कृत भाषा
स्वतंत्रता समये संस्कृत भाषा
स्वतंत्रता आन्दोलन के समय संस्कृत अपनी प्रतिष्ठा संतों महात्माओं के द्वारा बनाए हुई थी। इसी कारण स्वामी भगवदाचार्य जी ने अपनी भारतपारिजातम्, पारिजातापहारम्, पारिजात सौरभम् तीन रचनाएं संस्कृत में किए। इतना ही नहीं अनेक नाथपंथी, संत महात्माओं के साथ शंकराचार्य स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती जी भी संस्कृत का ही प्रचार प्रसार कर रहे थे। कवियित्री क्षमाराव ने 1932 ई में अपनी संस्कृत की कृति सत्याग्रहगीता पेरिस में प्रकाशित करा कर संस्कृत का वर्चस्व बढ़ा रही थी इस ग्रन्थ में विधुशेखर,गोपाल शास्त्री, महादेव शास्त्री नारायण शास्त्री राव भट्टाचार्य और भगवदाचार्य जैसे तेरह विद्वान शामिल थे इसकी भूमिका डॉ राधाकृष्णन सर्वपल्ली ने लिखा। पंडितों के द्वारा अंग्रेजी शासन का विरोध छोड़ दिया जाए इस कारण जार्ज चरितम् और राजभक्ति प्रकाश जैसे ग्रन्थ अंग्रेजों ने लिखवाया। विद्रोह की शान्ति के लिए पंडितों को महामहोपाध्याय की पदवी प्रदान की जाती थी प्रथम विश्व युद्ध में पंडितों ने विजय के लिए मंदिरों में यज्ञ के किए।संस्कृत के महिमा से ओतप्रोत होकर बंकिमचंद्र चटर्जी ने अपने आनन्दमठ में बांग्ला भाषा में लिखे गीत को संस्कृत की प्रथम पंक्ति "वन्दे मातरम्"से सुशोभित किया। विनायक दामोदर सावरकर ने भी अपने गीत की प्रथम पंक्ति संस्कृत में ही लिखे जो इस प्रकार है।
" सन्ति स्वतंत्रते भगवति! त्वामहं यशोयुतां वन्दे।
जयोऽस्तु ते श्रीमहन्मंगले शिवास्पदे शुभदे।।
स्वतंत्रता आन्दोलन के अवसर पर संस्कृत भाषा शत्रु षड्यंत्र मध्य मूषकन्याय के अनुसार अपना वर्चस्व स्थापित कर रही थी। जिस समय संस्कृत के साथ खिलवाड़ करते हुए अंग्रेजी, ऊर्दू आदि भाषाओं को वृद्धि प्रदान की जा रही थी उस समय प्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष रुप से संस्कृत अपना विकास कर रही थी या हिन्दी पुत्री को जन्म देकर वह भारतेन्दु आदि के द्वारा अपने स्वरुप का बोध करा रही थी। जिस प्रकार जंगल में लगी आग से बचने के लिए अन्य छोटे छोटे जीव मूषक के निवास को सहायक बनाकर अपना बचाव करके पुनः अपना साम्राज्य स्थापित करते हैं उसी प्रकार संस्कृत भाषा अपनी छोटी छोटी कहानियों को हिन्दी भाषा को प्रदान करके अपना साम्राज्य स्थापित की। लोग इसे नष्ट करने का अथक प्रयास किये किन्तु सागर के समान इसकी गहराई और ओर छोर का पता भी नहीं लगा सके और लौट कर अपने आप को नष्ट होते देखा है। संस्कृत के न जाने कितने रत्नों को चुरा लिया गया किन्तु संस्कृत में अल्पता नहीं आई क्योंकि वह अनन्त भाषा भण्डार की जननी है। संस्कृत साहित्य की न जाने कितनी पुस्तकों को ईर्ष्या द्वेष के कारण नष्ट कर दिया गया किन्तु संस्कृत शुक्राचार्य की संजीवनी है वह पुनः विद्वान रुपी संकल्प जल के द्वारा अपना विस्तार कर ली ।और पुनः सब को वहीं ले जाकर खड़ा कर दी जहां से उसे हटाने का प्रयास किया गया था। जब तक संस्कृत भाषा शयनावस्था में अपने आप को दिखा थी लोग ये समझ रहे थे कि संस्कृत भाषा अस्तित्व हीन हो जायेगी किन्तु जब यह सिंहनी की तरह दहाड़ना प्रराम्भ की तो सब गीदड़ की संज्ञा स्वीकार करने लगे। ये संस्कृत भाषा में ही सामर्थ्य है वह किसी भी अवस्था हो किन्तु उसे कोई बल बल हीन और पराजित नहीं कर सकता है। जब संस्कृत भाषा की कोई चर्चा भी नहीं करना चाहता था तब चन्द्रशेखर आजाद जैसे महापुरुषों को संस्कृत रुपी सिंहनी का दूध पिलाकर धर्म पूर्ण रीति,नीति, कर्तव्य और स्वाधीनता ज्ञान बल प्रदान करके दिव्यसिंह बनाया गया था जिसके गर्जन से सारी व्रिटिश सेना भयक्रान्त होकर पसीने छोड़ दी थी और हार का अंकुर अपने हृदय में समाहित कर ली थी यह गर्जन केवल संस्कृत में थी, है और रहेगी।।
काचिन्न संस्कृत सदृश व्याघ्री, काचिन्न संस्कृत सदृश ध्वनि।।
काचिन्न संस्कृत सदृश भाषा, काचिन्न संस्कृत सदृश गुणी।।