किसने बनाया…
किसने बनाया…


आरती की आंख जरा देर से खुली। मार्च का महीना उसे सूट नहीं करता। दोरस के इस मौसम में हर साल उसे थकान आ घेरती है। मार्च से अप्रैल तक का समय उसे बोझ लगता। कुछ करो न करो एक थकान और दर्द पूरे शरीर में तारी रहती है। कभी- कभी सर्दी तो कभी हल्का बुखार भी उपस्थिति दर्ज कराते रहते हैं। कल बुखार ने दस्तक दी थी। कोरोना के चक्कर में पति देव और बच्चे घर में ही रह रहे थे। अब घर में खाली बैठकर कुछ न कुछ खाने की इच्छा तो हर किसी की होती है। आरती बुखार के बाद भी पूरे दिन लगी रही। रात को सोई तो अब जाकर नींद खुली है पौने नौ बजे। घड़ी पर नजर पड़ते ही वह अचकचा गई। हे भगवान। अब तक न मां को नाश्ता मिला होगा न बाबूजी को चाया। बच्चे भी भूख से परेशान होंगे। उसने चप्पल पैर में डाली, बालों में क्लचर लगाया और सीधे किचन में गई। फ्रेश तो बाद में भी हो लेगी, पहले कम से कम चाय।
ये क्या। ये किचन में खूशबू है। स्लैब तक गई तो देखा, चायपत्ती समेत सॉसपैन रखा था। चाय किसने बनाई- शायद मां ने। बेचारी गठिए के दर्द में भी किचन तक आई होंगी। ये कैशरोल यहां किसने रखा सोचते उसे उसका ढक्कन हटाया तो पराठे दिखे। उसने जल्दी से डोंगे से ढक्कन हटाया- आलू गोभी की सब्जी।
मां तो कभी खाना बनाती नहीं, उनसे अब होता नहीं यह सब। तो आखिर किसने बनाए…। आरती की समझ में कुछ नहीं आया। उसने सिंक की ओर देखा, नाश्ते के बर्तन पड़े थे। क्या कामवाली से बनवा लिए? वह किचन से बाहर आई तो बिट्टु नाश्ता कर रहा था। मम्मा सब्जी बड़ी टेस्टी है, उसे देखते ही बिट्टू बोला।
किसने बनाए बेटा?
मैं तो नहीं बताउंगा, वह हंसा।
मां, आपने बनाया नाश्ता?
नहीं बेटा, तुने काम करने की आदती ही खत्म कर दी है।
महेश, नाश्ता किसने बनाया
क्यों मेरी खुशबू नहीं पहचानती? वे मुस्कुराएं
आरती ने भवें ऊपर की। कॉलेज के समय हमसब तो खुद ही बनाते खाते थे। तुम सो रही थी और छुट्टी थी ही तो सोचा तुम्हें थोड़ा आराम दे दूं। हाथ मुंह धो लो तो चाय पिलाऊं। वे फिर मुस्कुराए।