वापसी
वापसी
‘श्रृति ये क्या तरीका हुआ कि तुम पूरा दरवाज़ा भी नहीं खोल रही हो। बीस साल बाद आया हूं घर तुम्हारे तो कम से कम अंदर तो बुलाओ, चाय नाश्ता कराओ, फिर बातें करो। ये क्या बेरूखी कि जाली वाले दरवाजे के बाहर ही छोड़ी हो मुझे,’ दस मिनट बाहर ही से ही बात करने के बाद अधीर होकर सुयश ने कहा।
‘अंदर बुलाऊँ तुम्हें वो भी अपने घर में, कौन हो तुम सुयश, क्यों किसी गैर को अंदर बुला लूं। इतनी गैर जिम्मेदार नहीं हूं।’ श्रृति ने रूखेपन से कहा।
‘कैसी बातें कर रही हो श्रृति। पति हूं मैं तुम्हारा। बीस साल पहले तुम्हें छोड़ कर चला गया था तो क्या हुआ। तलाक नहीं हुआ है हमारा। अब भी उतना ही हक है मेरा। सुबह का भूला अगर शाम को घर आ जाए तो उसे भूला नहीं कहते हैं।’ सुयश ने जैसे मिन्नत की।
‘सुबह का भूला? तुम भूल से सुधा के पास नहीं गए थे। स
ोच समझ कर प्लान करके गए थे। तब तुम्हें मेरी या अपने दोनों बच्चों का भी ख्याल नहीं आया था। एक गृहणी ने चालीस की उम्र में बिजनेस शुरू करके कैसे अपने बच्चों को पाला होगा, इसके बारे में तुम क्या समझोगे। और अब ये जो तुम सुबह का भूला, बुढ़ापे में एक दूसरे का सहारा आदि अलाप रहे हो न वो कोई तुम्हारा पश्चाताप नहीं है। अब तुम रिटायर हो गए हो, पहले जैसी सैलरी नहीं रही और न ही पहले जैसा शरीर ही रहा। सुधा तो तुमसे पंद्रह साल छोटी है। बना लिया होगा उसने कोई और ठिकाना। इसलिए आज मेरा दरवाज़ा खटखटा रहे हो। कहानी तुम्हारी जो भी हो मेरे घर में तुम्हारी वापसी नहीं होगी। जब मैंने और मेरे बच्चों ने तुम्हारे कारण मुफलिसि के दिन काट लिए तो अब ये सुख दिन भी ऐसे ही काटेंगे जाओ कोई और दरवाज़ा खटखटाओ।’ कहकर सुधा ने लकड़ी का दरवाज़ा भी बंद कर लिया।