मुक्ति
मुक्ति
"पागल हो गया है? हे भगवान ये कलयुगी बेटे मेरे ही घर में जन्म लेने थे? बाप की आत्मा को कौन से बेटे भटकने के लिए छोड़ देते हैं? पितृ ऋण इसे चुकाए बिना खुद तुम्हारा भी उद्धार नहीं होगा। अभी मैं जीवित हूं तो ये हाल मैं मरूंगी तो तुमलोग मुझे ऐसे ही कहीं फेंक आओगे।" कहकर वे सिर पिटने लगीं
"मां, स्थिति को समझने की कोशिश करो। ऐसे आरोप मत लगाओ न ही प्रलाप करो। हमें पिताजी प्यारे थे और हमेशा वे हमारे दिल में जीवित रहेंगे। हम खर्च से नहीं भाग रहे। अभी लॉकडाउन है। महामारी सर पर मंडरा रही है। उसे दूर भगाना हमारा कर्तव्य है। ऐसे में भोज का आयोजन नहीं किया जा सकता है। इसलिए हम दोनों भाइयों ने एक ही पंडित जी को बुलाकर पूजन संपन्न कराने का निर्णय लिया है। ग्यारह ब्राहमणों को हम भोज के लिए डिजिटल पेमेंट कर ही रहे हैं न। हमारे आग्रह पर वे सभी उस दिन घर में पकावान बनाकर पिताजी के नाम पर खाने को तैयार भी हैं। मां लोगों को बुलाना ठीक नहीं है। बीमारी फैलने का डर होगा, पुलिस पीटेगी सो अगल।" बड़े बेटे ने समझाने की कोशिश की।
"मृतक भोज के लिए दुनिया की कोई पुलिस नहीं पीटती। रात को तो खिलाना है, कौन सी पुलिस बैठकर देखती रहेगी। हमारा स्कूल बंद ही है, वहीं आराम से भोज करा ले किसी को पता नहीं चलेगा। मेरे गहने ले जाकर गिरवी रख पैसे मिल जाएंगे। मेरे जीते जी उनकी आत्मा नहीं भटकेगी।" वे किसी तरह मानने को तैयार नहीं दिख रही थीं।
"पैसों की बात कहां से ले आ रही हो मां।" बड़े बेटे ने इतना ही कहा।
छोटे बेटे को अचानक कुछ सूझा, उसने कहा, "मां याद है, तुमने बताया था एक बार एक अनजान व्यक्त पिताजी से बेटे की बीमारी में मदद मांगने आया था। पास में दो सौ रूपए थे पिताजी सब दे दिए। उसके बाद महीने के बचे पंद्रह दिन तुमदोनों ने बिना सब्जी के चावल- दाल खाकर गुजारे थे।"
"हां, दूसरों का दुख वे कभी नहीं देख सकते थे और आज बेटे उनकी ही आत्मा को मुक्ति नहीं दे रहे, कितने दुखी होंगे वे।"
"मां जो इंसान भूखा रहकर दूसरों की मदद करता हो, क्या बीमारी, परेशानी बांटकर, कानून तोड़कर वह कभी सुखी या मुक्त हो सकेगा। तुमने भोज किया तो पिताजी से ज्यादा और कोई दुखी नहीं होगा। हम कह रहे हैं, अगले साल बरसी पर भोज कर देंगे।"
"हां, बेटा। ठीक कह रहा है तू। मेरे ही समझने में भूल हो रही थी। बिना श्राद्ध के ही उन्हें असली मुक्ति मिलेगी।" उनकी आंखें बरसने लगी।