Shelley Khatri

Tragedy

3.4  

Shelley Khatri

Tragedy

मायका

मायका

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बेटियां आंगन की रौनक होती हैं, घर की खुशियां। पिता के आंगन में ठुमक- ठुमक कर चलती बिटिया चुपके से बड़ी हो जाती है तब पिता उसे धूम- धाम से बिदा करके अपना आंगन सूना कर लेता है। वह जाकर पिया का आंगन सवारती है। ऐसे ही एक दिन की बात बताती हूं- आभी की बेटी की शादी थी। तमाम मांओं की तरह उसे अपना सपना पूरा होता दिख रहा था, बेटी को अच्छे घर में ब्याह कर विदा करने का सपना। शादी के दिन पूरे घर में बधाइयां बज रही थी; पर आभी के मन में जाने कहां से आकर बादल बरसने लगे। घर में खुशियां थीं और उसके मन में अंधकार भर गया। आंगन में विवाह वेदी पर गुड़िया और राहुल बैठे थे। औरतों का हुजुम ढोलकी की थाप पर गा रहा था-

"वनवा में रोवल हरी- हरी दूबिया, जलवा में रोवल चिलहवा मछलिया। बेटी ले ले रोवल पापा रामदीन पापा कइसे में करब धीयवा के दनवा।"

माहौल गमगीन होने लगा। गाने की टोन ही ऐसी थी की महिलाएं तो क्या पुरूषों की आंखें भी भर गईं। पंडित जी कन्यादान की तैयारी कर रहे थे। मण्डप में बैठी गुड़िया भी सिसकने लगी थी। लेकिन इन सबसे अलग आभी आंगन के पूरब में बने पूजा घर में अकेली बैठी रो रही थी। शादी का घर होने के कारण पूरा घर चार दिन पहले से ही मेहमानों से भरना शुरू हो गया था। जो भी आता चौक ;विवाह के लिए पारंपरिक गिफ्ट लेकर ही आता। आभी सबको देखकर पूजा रूम में ही रखती जा रही थी। आने - जाने वालो लोगों को विदाई के समय बैना के साथ देने के लिए लाये कपड़े भी वहीं रखे थे। कमरे में पूजा का सामान, पीतल के बर्तन, कपड़े चारो तरफ कुछ न कुछ भरा था। आभी के सामने पड़ा था एक इंच लंबाई की कंघी, डेढ इंच गोलाई वाला आइना, चूड़ियां और एक भूरी पीली और स्लेटी रंग की मटमैली जमीन वाली साड़ी। आभी ने एक बार फिर साड़ी को मुट्ठी में भरा और फूट- फूट कर रोने लगी।

 तभी सोनम आयी। उसे रोता देख भर्राए गले से कहा, "भाभी रो क्यों रही हो- सभी बेटियों को एक दिन जाना ही पड़ता है। देखो न मैं भी इसी घर से विदा हुई। गुड़िया भी अपने घर जा रही है। चलो अब जल्दी से बाहर आओ, कन्यादान का समय हो गया है", उसने आभी का कंधा थपथपाते हुए कहा।

 "हां, बस आ ही रही हूं, जरा सहेज लूं", आभी ने संभल कर कहा। सोनम के जाते ही वह फिर रोने लगी। जाने क्यों उसे लगा था, गुड़िया की शादी में सब कुछ ठीक हो जायेगा। विदाई के समय ही सही गुड़िया को लगेगा, नानी का घर भी उसका अपना था। कुछ था उस घर में तभी तो वह मां के साथ वहां झिड़की खाने, डांट सुनने और अपमानित होने बार- बार जाती थी।

लेकिन नहीं, आज पूरे रिश्तेदारों के सामने उसका पानी उतर गया। कितना छुपा कर रखा था उसने सबकुछ। आज लोग उसके बारे में जाने क्या - क्या कह रहे होगें!

तभी निम्मी आ गई- मम्मी चलो न। कन्यादान के लिए पंडित जी बुला रहे हैं।

ठीक है, जा बोल दे, आ रही हूं। उसने साड़ी को एक पॉलिथीन में गांठ लगाया और उठने से पहले घुटनों पर हाथ रखकर देखने लगी- सब कुछ ठीक रखा है न! जो नहीं जानते हैं, उन्हें तो कुछ समझ में नहीं आना चाहिए, फिर बाहर आ गई। उसे लगा सभी औरतें उसे देख रही है। इतनी देर में तो बात फैल गई होगी। सब औरतें उसके मायके और उसके बारे में ही बात कर रही है। उसने जिधर देखा औरतों का झुण्ड उसकी ओर नजर उठाए था। आभी को लगा बीच बाजार में उसकी चोरी पकड़ी गई है। सिर नीचे करके वह आई और बैठ गई। कहां रह गई थीं भाभी। दामाद को अभी से मंडप में बैठाकर सजा दे रही है- ननदोई ने चुटकी ली।

 उसने उधर देखा, पर कहा कुछ नहीं और चुपचाप पति के पास बैठ गई। 

कैसी है यह रीत विवाह की, जो बेटियों को दूसरे घर भेज देती है।

राम जाने कौन सा घर बेटियों का दूसरा घर होता है और कौन सा अपना। जहां पलती बढती हैं वह अपना होता है या जहां विदा होकर पहुंचती, उसे अपना कहा जाए। कन्यादान की जगह आभी का दिमाग इन्ही विचारों में उलझा था। सामने की सारी चीजें गौण थीं। कभी- कभी तो नया घर सचमुच अपना घर निकलता है, जैसे मेरा निकला, और पहले का अपना पराया हो जाता है।

लेकिन मेरी गुड़िया के साथ ऐसा नहीं होगा, उसका मन प्रतिकार कर उठा- नहीं- नहीं । गुड़िया के तो दोनों घर अपने ही होंगे। जब तक मैं जीवित रहूंगी, उसे परायेपन का एहसास नहीं होने दूंगी। गुड़िया और निम्मी को पूरा सम्मान मिलेगा, अपने दोनों घरों में। मैं क्या कभी गुड़िया को किसी चीज के लिए मना कर पाऊगीं, उसने अपना मन टटोला। और लाख मना करने के बाद भी उसका ध्यान वर्तमान और विचारों से अलग हट कर पुरानी यादों में खो ही गया। कब उसने फ्रांक पहना था, याद नहीं। जब से होश संभाला सलवार कुर्तें में ही ढकी रही। कितना मचलती थी वो कभी फ्रांक या नये जमाने वाला जम्फर पहनने को। बाबू जी और भइया से कुछ कहने की न हिम्मत थी और न ही इजाजत। मां से कहो, तो तमाम झिड़कियां मिलती - अभागी अभी से नाक कटवाने की तैयारी में है। काहे पहिनना है चुस्त जम्फर। कहां नाचेगी जाके? कभी स्कूल जाने की रट लगाएगी, कभी नचनिया बनने को तैयार हो जायेगी। ऐसी ही लड़कियां रंडी बनती हैं एक दिन। मां की बातें उसके करेजे में उतर जातीं। पर न स्कूल जाने की इच्छा खत्म होती न मुहल्ले की दूसरी लड़कियों की तरह अच्छे कपड़े पहनने और साफ से रहने की। आभी को याद आया मां ने शायद ही कभी उसे आभी पुकारा हो- जब पुकारती अभागी ही कहती। जब- तब मुहल्ले में भी अभागी पुकारने वाला मिल ही जाता। गली के बच्चों से जब उसका झगड़ा होता तो वे आभी- अभागी की रट लगाकर उसे चिढाते।

 धीरे- धीरे यह रहस्य उसपर प्रकट हो गया, मां ने उसका कोई नाम नहीं रखा है। घर में किसी को बेटी की चाह नहीं थी और आभी का जन्म हो गया तो उसे अभागी पुकारा जाने लगा। यही बाद में बिगड़कर आभी हो गया। कितना बुरा लगा उसे ,जब उसके सुसराल आने पर सोनम ने कहा था, भाभी ये कैसा नाम है आपका ? लगता है आभी न होकर अभागी है। क्यों न हम बदल दें। पर सास ने टोक दिया- नाम जन्म और संस्कार की तरह होते हैं, उसे बदला नहीं जा सकता। ठीक ही हुआ- जो नाम नहीं बदला गया। वर्ना घर वालों का अभिशाप नये नाम के साथ और बढ जाता ।

छोटी थी तो क्या हुआ, आभी को अभी भी याद है उसके जन्म के साढे तीन वर्ष बाद सरयू का जन्म हुआ। पहली बार उसे प्यार किया गया। किसना चाची, कामिनी फुआ सबने कहा- आभी भाई लाई है। इसकी पीठ पूजनी ही होगी। आंगन में बैठाकर उसकी पीठ पर जब कुछ गीला सा लगाया जाने लगा तो उसने पूछा था- छिह , मेरी पीठ में आपलोग क्या लगा रही है?

 हट् पगली टोकते नहीं है, कामिनी फुआ ने झिड़की दी। तेरे पीठ पर भाई हुआ है न इसलिए पीठ पूजी जा रही है। और भाई लाना। फिर उसकी पीठ पूजकर दो लड्डू और एक बरफी दिया गया था।

दो साल बाद जब सरिता का जन्म हुआ तो उसे खूब डांट पड़ी थी। पूरे दिन खाना भी नहीं मिला था, अभागी अपनी जात बढा रही है, बार- बार यही सुनने को मिला। उसने तो न भाई को बुलाया था, न बहन को, पर एक बार मिठाई मिली और दूसरी बार पिटाई। उस दिन की भूख और सबके ताने याद आते ही रूलाई आ गई। पर ठीक से रो भी नहीं पाई, सोनम आ गई और हाथ पकड़ कर उठाते हुए बोली - चलो भाभी, पानी पी लो। इतना मत रोओ। देखो! तुम्हें रोती देख गुड़िया भी रोने लगी।

उसने आस- पास देखा- कन्यादान समाप्त हो चुका था। अपनी गुड़िया राहुल को दान कर दिया और पता भी नहीं चला। लेकिन मन अभी गुड़िया की ओर से पूरी तरह हटा था। बार- बार अपना मायका यादों के रूप में दस्तक दे रहा था। 

जाने कौन सा जुल्म किया था उसने और सरिता ने जो कभी घर में किसी ने प्यार से बात नहीं की। कितनी बार कहा, मां सरकारी स्कूल में पैसे नहीं लगते हैं, पर मां की घुड़की - लगातार जारी रहती- कौन कहता कि पैसे नहीं लगते हैं। कौन बिगाड़ रहा है तुम लोगों को। जरा उनका नाम बताना। स्कूल में गईं है तुम्हें भड़काने वाली। किताब कॉपी क्या मुफ्त में आते हैं। भला हो पंडित जी का। उनके पूजा कराने के बाद ही सरयू का जन्म हुआ था। काशी से जब लौटे तो मां को कह दिया- इन दोनों को भी एक- दो क्लास पढा दो। मां ने पहले तो विरोध किया- पंडित जी आप भी कैसी बात करते हैं। पहले इनके पढाई में पैसे लगाए, खिलाएं- पिलाएं और मुटिया कर ये दूसरे के घर जाकर रहेगी। उड़ने वाली मैना के साथ ज्यादा लगाव- दुलार नहीं रखना चाहिए, कब उड़ जाएं ? शादी में खर्चा लगेगा सो अलग।

हां, जजमान उड़ तो जायेगी। लेकिन दो तीन साल पढ लेगी तो लड़के वालों को कह सकते हैं, पढी लिखी लड़की है। शादी में कम परेशानी होगी, और लड़की थोड़ा जोड़ घटाव सीख जायेगी, चार अक्षर पढ- लिख लेगी तो ससुराल से चिट्ठी तो लिखेगी।

चिट्ठी पत्री से क्या होगा पंड़ित जी। आप कह रहे तो हम नाम लिखवा देगें। लेकिन याद रखिएगा, शादी में कम खर्च कराइयेगा और लड़के वालों को कह देगें मैट्रीक तक पढी है लड़की। परीक्षा के समय तबियत खराब थी तो परीक्षा छूट गई।

और तब जाकर स्कूल का मुंह देखना नसीब हुआ, दस साल की उम्र में। 6वीं में थी तभी शादी हो गई।

देखो आज का दिन मेरी बेटी की भी शादी हो रही हैं। आभी ने देखा गुड़िया फेरे के लिए खड़ी है। घुंघट के कारण चेहरे का बहुत थोड़ा सा भाग दिख रहा था। कितनी प्यारी दिख रही है मेरी बेटी, दइया कहीं नजर न लग जाये। उसने दीर्घ निश्वास छोड़ा और पूजा रूम में आ कर बैठ गई, पहले की तरह ही चिंतामग्न, उदास और भग्नहृदय से अपने मायके और पुराने जीवन को याद करती हुई।

मां- बाप ने जिंदगी में अभिशाप डालने की पूरी कोशिश की थी लेकिन किस्मत उस पर मेहरबान थी। भले ही इस्लामपुर जैसे देहात में शादी हुई। शायद मां- बाप ने साधनहीन, देहात में जहां बिजली, पानी, सड़क, बाजार जैसी मूलभूत सुविधा का नाम तक नहीं था, शादी कर दी। पर किस्मत ही थी कि खेती में जरा भी मन न लगने के कारण ससुर ने अपने इकलौते बेटे से अपने मन का काम करने की छूट दे दी। बस दोनों पति - पत्नी आ गये पटना में। छोटा सा जेनरल स्टोर खोला और आज बीस साल में मल्टीपरपस स्टोर्स में बदल गया है। सबके राम होते ही हैं। सचमुच सबके दिन फिरते हैं। ससुराल मायके की तुलना में कितना अच्छा था। यहां खाने पहनने की मनाही भी नहीं थी। गांव में रहती थी तब भी सास - ननद से सम्मान ही मिला था। गांव था तो क्या हुआ, क्रीम पाउडर लगाने का सुख, चूड़ियां, बिंदी प्रयोग का मौका और अपनी मनपसंद कपड़े पहनने की छूट का आनंद उसने वहीं तो जाना था। भरपेट मिठाइयां खाई थी। कभी अपने मन से कोई चीज रसोई में बनायी तो सबने मजे से तारीफ करके खाई। कितना सुकून मिला था उसे यहां आकर।

बेचारी सरिता ने भी कम बुरे दिन नहीं देखे हैं। उसके ससुराल आने के बाद घर के सारे काम अकेले उसके जिम्मे ही आ गए । जब बड़े भइया की नौकरी लगी तो साथ में उसे भी टाटा जाना पड़ा था। आभी को लगा था सरिता के दिन बदल जायेगें। भइया के साथ शहर में रहेगी तो दुनिया देखेगी- सुनेगी। मन का खा पहन सकेगी, पर हुआ उल्टा। पढाई छूटी सो छूटी। गांव में जो थोड़ी आजादी मिली थी उस पर भी ताला जड़ गया। भइया रोज बाहर से ताला बंद करके आफिस चले जाते। सरिता घर के अंदर बंद काम- काज करती रहती। घर में बालकनी थी मगर उसे उधर जाने की मनाही थी। भइया वहां भी ताला बंद करके जाते थे और छत पर जाने का तो सवाल ही नहीं उठता था।

दो साल रही सरिता वहां। पर अगर मुहल्ले में भी छोड़ दें तो अपने घर नहीं जा सकती थी। सरिता के लिए भी बाबू जी ने कुरथा जैसा देहात ही चुना था, पर दसवीं पास दामाद की नौकरी गैंगमैन में शादी के छह महीने बाद ही लग गई। पोस्टींग भी बॉम्बे में मिली। उसने अपना समय पढाई में लगाया और बाद में बाबू हो गया। सरिता भी आ गई मुम्बई में।

आज तक जब भी मायके गई है कभी समझ ही नहीं पाई मां उनके आने से खुश होती है या दुखी। टोले मुहल्ले के सामने मां कहती हमने इतना खर्चा- बरचा करके दोनों बेटियों को अच्छे घर में ब्याहा, लेकिन यही दिक्कत है ब्याह में ज्यादा देके हम फंस गए। हर बार देना-लेना पड़ता है।

आभी सुनती और टूक - टूक होते अपने ह्रदय को संभालती- घर में देने-लेने का आलम यह था कि जब तक वे घर में रहतीं घर में सब्जी- रोटी या सूखे दाल - चावल के अलावा कुछ बनता ही नहीं। गुड़िया के पापा भी जाते तो मां बिना घी वाली सूखी - मोटी रोटी ही परोसती थी। गांव- घर में दामाद को कितना मान देते हैं, और गुड़िया के पापा या उसकी सास क्या सोचेगी, सोच- सोच कर उसका दिल बैठ जाता। पर गुड़िया के पापा ने हमेशा उसकी इज्जत रखी। कभी किसी से कुछ नहीं कहा, एक शब्द नहीं।

 शुरू - शुरू में आभी ने देखा जब वो घर आती- बाथरूम में साबुन सर्फ कुछ नहीं रहता। वो मंगवाती। धीरे- धीरे उसने जान लिया यह सब खास तौर से उसके आने पर ही हटा दी जाती हैं। वह ससुराल से चार- पांच साबुन की बाटी और दो तीन पैकेट सर्फ लाने लगी। जाते समय सब वहीं छोड़ जाती। उसके आने के बाद सब्जियां भी उबली बनने लगी तो वह डेढ- दो किलो तेल, अचार, पापड़ लेकर आने लगी। जब आती मां- बाबू जी के लिए कपड़े भी लाती। मां सारा सामान देखती पर कुछ कहती नहीं। यह भी नहीं कि लाकर तुमने अच्छा किया और यह भी नहीं क्यों लाती हो, इसकी आवश्यकता नहीं है। बाबू जी तो नौकरी करते ही हैं, कौन सा खाने -पीने की कमी है। 

न कोई उसे लाने जाता न पहुंचाने। पहले वह गुड़िया के पापा के साथ आती थी। फिर धीरे- धीरे बच्चों के साथ आने लगी। कभी डेढ साल में आती तो कभी दो साल में। कभी दो दिन रहती तो कभी चार दिन। इससे ज्यादा कभी नहीं, पर रहती हमेशा अवांछित की तरह ही। सारे दिन मां खाने को नहीं पूछती। कभी खाने को कहती भी तो तीन चार बजे- तु भी खाले आभी। जैसे कह रही हो अब छाती पर बैठी है तो खा ही ले। आभी समझ नहीं पायी ऐसा क्यों? ऐसी क्या खराबी है उसमें और सरिता में। क्या गुनाह किया है उन दोनों ने। सरिता तो और भी ज्यादा कुछ लाती मां- बाबा के लिए, पर मिलती वही अवमानना।

यूं शादी के पहले भी आभी के दुख- दर्द में मुहल्ले वाले मरहम लगाते थे पर शादी के बाद उसे संकोच होता किसी को कुछ बताने में । कैसे कहे मां- बाप खाने को नहीं पूछते। जिस घर में बचपन गुजारा उस घर में अपने हाथ से परोसकर खाना भी नहीं खा सकती। इतना संकोच है अब मेरे अंदर और मांग कर भी नहीं खा सकती।

हां, मुहल्ले टोले में घूमने निकलती, लोग खाने को पूछते तो खा लेती। सब कहते कितना अपनापन भरा है आभी के अंदर। पूरे गांव को अपने मायके के बराबर ही समझती है। कोई घमंड नहीं शहर में रहने के बाद भी। 

मायके आने से पहले और मायके से लौटने के बाद आभी महीनों तनाव झेलती। वहां क्या लेकर जाना है। सास- पति से छुपाकर कैसे लेकर जाए और लौटकर आये तो क्या- क्या सास को दिखाए। छुपा- छुपाकर कभी पैसे रखती तो कभी साड़ियां । मायके से लौटती तो सबको दिखाती- मां ने यह साड़ी दी है। बच्चें के लिए कपड़े दिए। दोनों घरों की लाज उसे बचानी ही थी। हां, कसमकस में उसके दिल को कितना कष्ट उठाना होता, उसके सिवा कौन जान सकता था। तब उसका कलेजा कितना टूट गया था, जब मायके में एक दिन नहाने के लिए नये बाथरूम में गई तो ध्यान आया तौलिया तो लायी ही नहीं।

तौलिया लेकर लौटते समय देखा बाबा बाथरूम से नील की डब्बी लेकर बाहर निकले और आंगन के एक ओर बने आलमारी में छुपा दिया। वह बाथरूम में चुपचाप रोती रही। साड़ियों में नील की आवश्यकता होती नहीं। बच्चों के बनियान में बाबू जी के नील की दो- चार बूंद डाल ही लेती तो कौन सी कमी हो जाती उनके घर में। उतना नील तो ऐसे ही जरा सा डब्बा टेढा कर देने से बर्बाद हो जाता है। पिता होकर बाबा ने दो बूंद नील के लिए उसके साथ छल किया। वह कितना कुछ लाती है हर बार मायके आते समय। बाबा जब इतना ही हिसाब करना जानते हैं तो यह भी तो जाना होता। ऐसी- छोटी- छोटी तुच्छ बातें उसे कितना तोड़ती हैं, बाबा क्यों नहीं समझते। ईश्वर ने बेटी बनाया, मां- बाप ने सताया और दूसरे के घर बिदा कर दिया, चार दिन वह मोह में खिंची चली आती है तो ऐसा व्यवहार? हर बार कुछ न कुछ ऐसा घटता ही है कि दिल लहूलुहान होता है। वह सोचती है अब नहीं आयेगी मायके। पर साल दो साल के बाद जाने क्यों मन छटपटा जाता है और वह आ ही जाती है। इस बार तो साढे तीन साल से ज्यादा हो गया है उसे आये। तब भी ऐसा सत्कार? पिछली बार ही भइया- भाभी को छुपकर अपने कमरे में अच्छी सब्जी खाते देख लिया था उसने।

उस दिन सुबह बाजार की ओर निकलने पर ताजी गोभी देख, वह लेती आयी थी। मां ने उसे अजीब काले रंग की उबली सी सब्जी परोसी थी। किसी तरह खा लिया था उसने, पर थोड़ी के बाद ही भइया की थाली में उसने मसालेदार अच्छी सब्जी देखा तो इच्छा हुई मां को जाके कह दे कि अब से मैं जब आऊंगी मुझसे रोज के खाने के पैसे ले लिया करो, पर ऐसा अन्याय मत करों। कहीं मेरे बच्चे देख लेगें तो क्या सोचेंगे, पर उसने कुछ नहीं कहा और अगले दिन सुबह की पहली बस से अपने घर लौट गई। आकर सोचा था अब तो नहीं ही जाउंगी मायके। पर कहां? तीन साल में ही उसके प्राण छटपटा कर रह गए और वह आयी भी तो यह दिन देखना पड़ा।

 मां कोहबर तो यहीं भराएगा न, जरा किनारे हटो तो मैं जगह बना दूं, निम्मी चहकती हुई बोली।

 अब गुड़िया सचमुच दूसरे घर चली जायेगी। कोहबर का समय भी आ गया, आभी जैसे नींद से जागी। फिर निम्मी के साथ मिलकर साफ करने लगी। गुड़िया और राहुल को बात करने के लिए छोड़ सब लोग बाहर आ गए। औरतों का झुण्ड चुहल करता हुआ दरवाजे से कान लगाए कुछ न कुछ बोल रहा था।

आभी सारा सोच विचार छोड़ विदाई की तैयारी करने लगी।

माता की ममता, घर- भर का प्यार, लड़कपन की यादें, जवानी की मिठास आंचल में समेंट गुड़िया अपने नये घर चली गई। बिदाई के बाद घर के लोग अपनी थकान उतारते हैं। घर में आये मेहमान आराम कर रहे थे पर आभी अपने काम में लगी थी। पूजा रूम में बैठकर वह जाने वाले मेहमानों के लिए बैना निकाल रही थी। हर पैकेट में लड्डू , माठ के साथ ही एक साड़ी और धोती रखकर जिसे देना हो उसके नाम की एक पर्ची डाल देती। अचानक मायके से आये पॉलीथिन पर उसकी नजर पड़ी। उसने सोचा अब तो कुछ भी हो वह कभी मायके नहीं जायेगी। गुड़िया के पापा खुद नेवता देने गए थे। उसके बाद भी कोई नहीं आया। कितने उल्लास से उसने मां को आने के लिए फोन किया था। कितने बुरे ढंग से तोड़ा मां ने उसके विश्वास को ,इतनी दूर कौन जायेगा। पच्चास रुपया तो जाने में ही खर्च हो जायेगें।

मां के पैसे खर्च हो जाते, गुड़िया के पापा तो उसी समय साथ चलने को कह रहे थे। मां ने यह भी तो नहीं कहा, बाद में आकर ले जाइयेगा। क्या मैं मां को छोड़ देती?

भाभी अब भूल भी जाओ। आभी ने घबराकर देखा, सोनम खड़ी थी।

भाभी सबके मायके वाले एक जैसे नहीं होते। आपके घरवालों ने खराब कपड़ा भेज दिया तो आप उसे मत पहनना। इस बारे में सोच कर क्यों अपना मन दुखी कर रही हैं, सोनम ने बैठते हुए कहा।

 तो सोनम को भी पता है, आभी को लगा जैसे अब तक संभाल कर बचाया गया मान मिट्टी में मिल गया। क्या सोचेगी सोनम उसके मायके के बारे में कि भाभी के घर वाले खुद तो आये नहीं और पड़ोसी के हाथ एक ऐसी साड़ी भेज दी जो दाई-नौकरों को भी नहीं दी जा सकती हैं। गुड़िया के लिए तो कुछ भेजा ही नहीं जबकि शादी तो नानी घर के कपड़ों में ही होती है। क्या सोचेगी सोनम, मैं उससे अपने मायके वालों के बारे में झूठ बोलती रह?मारे शर्म के आभी से सिर भी नहीं उठाया गया।

इतना सोचने की जरूरत नहीं है भाभी, मैं भी ससुराल वाली बेटी हूं। ऐसा तो सभी बेटियां करती हैं। चलो थोड़ा आराम कर लो। जिनकी विदाई अभी होगी मैं देख लूंगी। सोनम ने आभी को उठाते हुए कहा।

 इन बातों से आभी को कितनी राहत मिली। सारा अपमान, सारी व्यथा आंखों से बहने लगी। वह अपने कमरे में आकर सो गई।

घर के नियम के हिसाब से चौठारी के लिए गुड़िया को तीन दिन के बाद ही बुला लिया था आभी ने। राहुल और गुड़िया से ही सत्यनारायन की कथा कराई। अगले महीने आकर गुड़िया को ले जाने का वादा करके राहुल उसी रोज लौट गया।

आभी ने गुड़िया से दिन भर बातें की। एक- एक बात पूछी। ससुराल जाने से लेकर घर वापस आने में क्या- क्या हुआ। गुड़िया ने भी विस्तार से बताया। आभी को लगा बिटिया का ब्याह सार्थक हुआ। अगले दिन सुबह- सुबह ही फोन की घंटी बजी। राहुल का फोन होगा सोचा कर गुड़िया ने लपक कर उठाया। उसने चुपचाप उस तरफ की बातें सुनी और अच्छा कह कर फोन रख दिया। उसके शांत चेहरे को देख आभी का दिल धड़क उठा- क्या हुआ गुड़िया? उसने घबराई आवाज में कहा।

वो सरयू मामा का फोन था, नाना जी की तबियत खराब है, गुड़िया ने धीरे से कहा।

क्या हुआ बाबूजी को तुने पूछा नहीं, मेरी बात ही करा देती। आभी ने परेशान होते हुए कहा।

वो कल हर्ट अटैक आया था। मामा कह रहे थे, डॉ. ने आपरेशन के लिए कहा है, लेकिन दोनों मामा की राय हुई है, इतने बूढे आदमी का क्या भरोसा। अब तो जाने ही वाले हैं। ऑपरेशन में पैसा फंसाना बेकार है, इसलिए घर ले आयें हैं। बोल रहे थे सरिता को फोन कर देना, दोनों तैयार रहेगी, कभी भी आना पड़ सकता है।

 साले कैसे बेटे हैं बाप को ऑपरेशन की जरूरत है और बेटे घर में लाकर मरने का इंतजार कर रहे हैं। अजीब लोग हैं। गुड़िया के पापा ने घृणा से मुंह बिचकाते हुए कहा।

 ये सब छोड़िए जी,मेरे भाई पागल हैं। अभी तो बाबू जी की उम्र 66 से ज्यादा नहीं होगी। चलिए जाकर बाबूजी को यहां ले आते हैं। यहीं इलाज करायेंगे उनका। मां कितनी परेशान हो रही होगी, आभी ने कहा।

कैसी बात करती हो गुड़िया की मम्मी। पेंशन पाते हैं तुम्हारे पापा, तब भी गुड़िया की शादी में नहीं आये। कितना रोई तुम। बहुत बेटा- बेटा करते थे रहने दो।

हां भाभी, बहुत रोई मायके के नाम पर तुम। छोड़ दो जैसा हो रहा है वैसा ही। अभी वहां मत जाओ। 

नहीं, सोनम जन्म देने और बड़ा करने का कर्ज कैसे भूल जाऊं। मुझे त्याज्य समझ कर उन्होंने जाने अनजाने भूल की हो, पर मैं अपना फर्ज नहीं भूल सकती । आज मैं तुम्हारी भाभी, तुम्हारी सहेली हूं तो उनके ही कारण। मैं अपना फर्ज निभाऊंगी। आभी ने हाथ झटक कर कहा।

तुमने आज तक मायके से नाता रखा है फर्ज समझ कर ही न। सोनम ने जैसे आज आभी को न जाने देने की ठान रखी थीं।

 वो मेरा स्वार्थ था, फर्ज नहीं। मैं अपने मन के कोने में दबे स्नेह बांटने, अपने मन को तसल्ली देने, अपने जी को जुड़ाने के लिए चली जाती थी। उनसे मिलने को मेरा मन मचलता था। मैं अपने गांव घर की याद में अपने पगले मन को सुकून देने जाती थी। अपने फर्ज के लिए आज पहली बार जाऊंगी। तुम्हें क्या मालूम मैंने कितनी बार तुमलोगों से छुपाया। वहां से मुझे कोई कपड़ा - पैसा नहीं मिला, पर मैंने खुद खरीदे। इसमें भी मेरा स्वार्थ था। जाने दो रे, मुझे। ये है कि अगर आप लोगों की मर्जी न होगी तो आप पैसे मत देना। मैं मांगूंगी नहीं, पर मेरे गहनों पर तो मेरा अधिकार है? मेरा स्त्रीधन वही तो है। मैं उन्हीं की कीमत पर बाबूजी का इलाज कराऊंगी। दो- चार दिन में सरिता भी आ जायेगी और हम मिलकर बाबू जी को बचा लेंगे


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