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रोज़ शाम को फ़ोन पर बतियाना…
बातें भी कितनी…ढेर सारी…
शर्मा जी के साथ बातों में सब्जेक्ट्स की कोई सीमा नहीं होती…एकेडेमिक…साहित्यिक…ऑफिस गॉसिप, जनरल नॉलेज, टी वी प्रोग्राम्स, मूवी इ. इ. आज भी कुछ ऐसा ही हुआ। लेकिन आज फ़ोन पर नहीं बल्कि आमने सामने बैठ कर ढेर सारी बातें हुयी।
टाइम जैसे फ़्लाई हो रहा था। वे अपनी अपनी फील्ड में एक्सपर्ट थे और ऑफिस में बिज़ी भी होते थे…लेकिन आज टाइम निकाल कर चाय के साथ उनकी बातें हुयी।बातों के दरमियान शर्मा जी कहने लगे, चलते है फिर बाहर…वह शर्मा जी को देखने लगी… शर्मा जी ने कहा, हाँ…हाँ… अपनी गाड़ी हैं … चलेंगे… बातें करेंगे…
शर्मा जी के लिए यह सब कितना आसान था… लेकिन वह अपने बारे में सोचने लगी… उसके लिए यह सब कठिन था… सोचना भर भी… कैसे होगा? कोई देख लेगा तो पता नहीं क्या सोचेगा…फिर पीछे बातें होगी…ओह…
एक फ़ाइनेंशियल इंडिपेंडेंट औरत होने के बावजूद वह शर्मा जी के साथ बाहर जाने के लिए सोच में पड़ गयी…वहाँ उन दोनों के दरमियान खामोशी पसरी थी…यह खामोशी उसकी अपनी इमेज, समाज के अनकहे बंधनों को और उनकी असीमित ताक़त को जैसे बयाँ कर रही थी…
