बस यूँही…
बस यूँही…
कुछ दिनों पहले मीना जी से मिलना हुआ था। घर की बाल्कनी से बाहर रास्ते की ओर देखते हुए किसी की आवाज़ आयी। अरे, यह तो मीना जी हैं। मैनें उन्हें कितने दिनों के बाद मिल रहे हैं कहते हुए आवाज़ दी और घर में बुलाया। अपनी तीसरे बुक लॉंच के बारें में बताते हुए मैं उनसे बातें करने लगी। मीना जी ने अभिनंदन करते हुए कहा, " वेरी गुड, आपकी कहानियाँ अच्छी होती हैं। लेकिन मुझे आपसे एक शिकायत भी हैं…"मैं एकदम चौंकते हुए कहने लगी, " क्या शिकायत हैं, चलिए चाय पीते हैं फिर शिकायत भी सुन लेते हैं।" अगर आप कह रही हैं तो सुनना लाज़मी हैं।" हम दोनों हँस पड़ी। चाय आने पर हमारी बातें फिर से चल पड़ी। मैंने कहा, "आप अपनी शिकायतों का पिटारा अब खोल सकती हैं.. आप का पूरा हक़ हैं…"मीना जी हँसते हुए कहने लगी, " आप की सभी कहानियाँ कामकाजी स्त्रियों पर होती हैं। हम घर गृहस्थी वाली पर कोई कहानी लिखने का आपको मन नहीं होता? भई, हमने क्या गुनाह किया हैं जो आप घर में रहने वाली स्त्रियों पर कोई कहानी या कविता नहीं लिखती हैं?"
मैं चौंकते हुए कहने लगी, " अरे, ऐसा कैसे आप सोच रही हैं? बल्कि मैं तो स्त्री विमर्श पर ही लिखती हूँ… मेरे कई कहानियों और कविताओं में गृहस्थी पर रमने वाली स्त्रियाँ ही तो पात्र हैं।""फिर भी कामकाज़ी स्त्रियों पर आपका लेखन ज़्यादा हैं। मान लीजिए आप…" वह अपनी बात पर क़ायम रहते हुए बोली।
मैंने कहा, "आइंदा मैं इस पर ध्यान दूँगी। अब आपको शिकायत का मौक़ा नहीं मिलेगा…" क्रिटिसिज्म शुड बी एप्रिशिएटेड को ध्यान रखते हुए मैंने बात ख़त्म कर दी।
कल ही गावँ में आना हुआ। अब गाँव मतलब खेती बाड़ी वाली बातें…गाँव की औरतें घर में नहीं रुकती हैं। वे रोज़ काम पर जाती हैं। आज कल खेती में धान कटाई चल रही हैं। कोई कह रहा था की गाँव में आजकल खेत में काम करने के लिए औरतें नहीं मिल रही हैं।
क्योंकि खेत में कपास भी निकल रहा हैं और धान कटाई भी आ गयी हैं। उसके बाद की चना या गेहूं की बुवाई का काम शुरू होगा।
क्या क्या करे वह?
कपास निकाले? धान की कटाई करे?
औरतें चाहे गाँव की हो या शहर की वह मल्टी टास्किंग और टाइम मैनेजमेंट में माहिर होती हैं। वह जानती हैं चार पैसे कमाने के यही तो दिन हैं, फिर वह सबेरे 7 से 9 धान कटाई करती हैं और दिन में कपास निकालने वाला काम। घर के काम तो हैं ही…
मैं ठहरी एक शहरी… गवर्नमेंट सर्वेंट…नाइन टू फाइव जॉब करने वाली…सोशली हम शहरी और कामकाजी महिलाओं को एक अलग लेवल का इम्पोर्टेंस या यूँ कहे ऐक्सेप्टेंस मिलता हैं और 'कमाऊँ' का तमगा अलग से…
शहर की कामकाजी महिलाओं के स्टेटस को देखते हुए गाँव की औरतों के श्रम का क्या?
उनके श्रम का कोई मॉल?
उनकी कोई पहचान?
उनका कोई स्टेटस?
गाँव की औरतें तो बस काम ही करती रहती हैं…घर के काम…खेती बाड़ी के काम…. काम करते हुए उनकी जिंदगी बीत जाती हैं किसी अनसंग हीरो की तरह …
