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Rajesh Chandrani Madanlal Jain

Abstract Others

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Rajesh Chandrani Madanlal Jain

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हेतल और मेरा दिव्य प्रेम.. (5)

हेतल और मेरा दिव्य प्रेम.. (5)

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बात उन दिनों की है, जब हेतल को स्तन कैंसर था। मेरा उसे विश्वास दिलाना कि वह ठीक हो जायेगी, भी उस पर तब निष्प्रभावी होता था। यह बात मुझे, उन दिनों, मुझ से छुपा कर हेतल के द्वारा लिखी, उसकी डायरी से ज्ञात हुई थी।

वह डायरी मेरे हाथ लगने से, हेतल पर किसी तरह के अविश्वास के कारण नहीं, अपितु अपनी प्राणों से ज्यादा प्यारी पत्नी की, हर बात की जानकारी रहे, इस भावना से, मैंने उसे न सिर्फ पढ़ी थी, बल्कि उसके कुछ पृष्ठों की स्कैन इमेज भी, अपनी स्टोरेज डिवाइस में मैंने, सुरक्षित रख ली थी।


डायरी में एक जगह, अपनी गहन व्यथा और निराशा में, जो हेतल ने लिखा था वह यूँ था -

"यद्यपि कच्छ में जब भूकंप से मेरे सभी परिजन मारे गए थे, तब मैं जीना नहीं चाहती थी। उस समय अगर मेरी मौत होती, उससे मुझे दुःख नहीं होता। लेकिन अब हुआ कैंसर, जिससे मैं मर जाऊँगी, मुझे जब ऐसा लगता है, मैं मौत से बहुत डर रही हूँ। 

कच्छ में खोये तब मेरे परिवार की भरपाई, मेरे ईश्वर ने उससे भी ज्यादा अच्छा परिवार देकर पूरा किया है। तब कच्छ में ही मुझे, मेरे इष्ट ने, ऐसा जीवन साथी दिलाया है, जिनका पिछले 16 वर्ष का साथ, मुझे, मेरे इष्ट ईश्वर से भी, ज्यादा इष्ट हुआ है।


मैं अभी मरना नहीं बल्कि उनके एवं (हमारे ) बच्चों के साथ जीना चाहती हूँ। मेरे पति परमेश्वर, मेरे उपचार के लिए कोई कसर नहीं छोड़ रहे हैं। तब भी, मुझे नहीं लगता कि मैं बच सकूँगी। 

भूकंप के समय अनाथ हो गई मैं, जब अस्थाई शिविर में रह रही थी, तब जीवन की उन विकट विपरीत परिस्थितियों ने, मुझे अपनी अभिलाषाओं से अलग, ईश्वर की इक्छा के सम्मुख श्रध्दानत होना सिखाया था। ईश्वर की इक्छा में किस दृष्टिकोण से संतोष मिलता है, वह दृष्टि मुझे मिली थी। 

मेरा कैंसर पीड़ित होना मैंने, ईश्वर की इक्छा माना है एवं अपने जीवन पर आज, उसी दृष्टि से जब, मैं देख रही हूँ तो, अभी मेरे मरने में मुझे दुःख नहीं, अपितु सुख प्रतीत हो रहा है। 


जी हाँ सुखद बात इसमें यह है कि मैं पतिदेव के रहते हुए ही, जग छोड़ कर जा रही हूँ। आशय यह है कि एक बार अनाथ हो चुकी मैं, फिर अनाथ होना कभी न चाहूँगी। अर्थात मैं अपने प्राण प्यारे पतिदेव को, अपने सामने मरता न देख पाऊँगी। उनके मरने से मैं फिर अनाथ हो जाऊँगी। 

मैं जानती हूँ मेरे पति सेना में हैं, जिन के जीवन पर मौत की आशंका, हर समय बनी रहती है। ईश्वर ने अब तक उन्हें सुरक्षित रखा है, मगर हो सकता है ऐसा हमेशा न रहे। 


यथार्थ जीवन -स्वरूप ऐसा क्षणभंगुर है तो, मेरे लिए यह भाग्य की ही बात है कि उनके रहते, मैं मरने जा रही हूँ। 

"अहो भाग्य मेरा कि मैं सुहागन मर रही हूँ।"

मैं यह जानती हूँ कि मेरे बच्चे, मेरा मर जाना सहन न कर सकेंगे। लेकिन उनकी इस कच्ची उम्र में उनके भविष्य को सुनिश्चित कर सकने में, मुझसे अधिक मेरे पतिदेव सक्षम हैं। 

मुझ पर आसन्न मौत के इन दिनों में, मुझे मेरे इष्ट ईश्वर पुनः स्मरण आ रहे हैं, उनसे मुझे एक ही फेवर चाहिए कि मेरे पतिदेव का साया, मेरे बच्चों पर दीर्घ काल तक बने रहे। फिर चाहे, मैं आज रहूँ या न रहूँ। "


बाद के पृष्ठों में भी हेतल की ऐसी ही भावनायें, कुछ अलग शब्दों में अभिव्यक्त हो रहीं थीं। ऐसा वह छह-सात दिन लगातार लिखती रही थी और हर दिन का उसका लिखा अंतिम वाक्य एक ही था-

"अहो भाग्य मेरा कि मैं सुहागन मर रही हूँ।"


फिर स्तन कैंसर की नई पद्धति से, उपचार में हेतल ठीक हो गई थी। और हेतल का मौत की निराशाओं में, ऐसी डायरी लिखने का, यह सिलसिला भी खत्म हुआ था।  

फिर मेरे शहीद होने तक के, बाद के लगभग अढ़ाई वर्ष सुखद बीत गए थे। हेतल के ना चाहे जाने पर जब, मेरी कश्मीर मोर्चे पर पुनः तैनाती हुई तब के एकांत पलों में, मैं अक्सर मेरे पास स्टोर्ड, हेतल के डायरी के वे पृष्ठ, मैं अक्सर पढ़ा करता था। 


अतः आतंकवादियों से मुठभेड़ में जब मुझे गोली लगी और मैं मर रहा था तब अंतिम क्षणों में मुझे हेतल का लिखा यह वाक्य "अहो भाग्य मेरा कि मैं सुहागन मर रही हूँ", ही स्मरण आया था। मुझे कोई शंका नहीं थी कि हेतल, मेरा बलिदान सहन नहीं कर सकेगी। तथा राष्ट्र के लिए प्राण न्यौछावर कर देने के, गौरवशाली अवसर में टूट-बिखर कर रो पड़ेगी। 


इससे देखने वालों पर, राष्ट्र बलिदानी के परिवार पर गुजरने वाला, यह दुःख गलत संदेश जैसा जा सकता था। जिससे राष्ट्र के लिए बलिदान की परंपरा से कोई सैनिक विमुख भी हो सकता था। 

यह दो कारण हुए थे जिनसे मैंने, अपनी दिव्य शक्ति से, अंतिम घड़ी में रूहों की अदला बदली करते हुए, अपनी मृत्यु के साथ अनंत यात्रा पर हेतल की आत्मा को, भेज दिया। तथा खुद मैंने हेतल के शरीर में, अपना जीवन निरंतर कर लिया था।  


इस तरह अपने शरीर की सैन्य सम्मान से अंत्येष्टि तथा परमवीर चक्र के सम्मान के समय, मैंने, हेतल के रूप में, राष्ट्र के समक्ष एक अभूतपूर्व साहसी पत्नी का, उत्कृष्ट उदाहरण प्रस्तुत कर, हेतल के लिए अत्यंत वाहवाही सुनिश्चित की।  

वह समय बीता है, बच्चों को अपने ज्ञान एवं अनुभवों से मार्गदर्शन और हेतल के शरीर में होने से, उनकी माँ की तरह से देखरेख तथा अनुराग देते हुए, अब मैं अक्सर हेतल की रूह के विषय में सोचता हूँ। 


मुझे लगने लगा है कि महात्मा प्रदत्त, दिव्य शक्ति ने अनायास, हेतल की आत्मा के साथ, मेरे द्वारा अन्याय करवा दिया है। मुझे स्वयं पर धिक्कार होने लगा है कि जब नियति ने मेरी मौत लिखी, उस समय, उसमें मेरी आत्मा को आगे की अनंत यात्रा पर जाना चाहिए था। ऐसा नहीं होने देते हुए, मैंने ईश्वर के कार्यक्षेत्र में दखल दिया है। 


ऐसा खेद दिमाग में घर जाने से, मैं आत्म ग्लानि में रहता हूँ। ऐसे में तब मैंने निश्चय किया कि मैं लद्दाख जाऊँ एवं अगर वह संत-महात्मा जीवित हों तो, उनसे जाकर मिलूँ और प्रार्थना करूं कि ऐसी शक्ति आगे वे किसी को न दें। 

मनुष्य इस योग्य नहीं कि उसे कोई दिव्य शक्ति मिले। ऐसी शक्ति का प्रयोग कुतर्क का सहारा लेकर, वह किसी पर अन्याय कर देने के लिए, कर सकता है। 

प्रश्न यह है कि मैं तो अब हेतल के रूप में हूँ। वे मुझे पहचान कैसे सकेंगे? तब स्वयं उत्तर भी मिला- जिनके पास ऐसी शक्तियाँ हैं, वे निश्चित ही मुझे इस रूप में भी पहचान लेंगे। 


बच्चों की परीक्षायें अभी ही समाप्त हो चुकी हैं। वे कुछ दिन विश्राम करना चाहते हैं। तब मैंने उन्हें कहा कि मैं कुछ दिन के लिए, लद्दाख घूमने जाना चाहती हूँ। उन्होंने यह सोच कर कि इससे, पापा के जाने की मेरी व्यथा मिटेगी, इसकी हामी कर दी। फिर अपने सोचे हुए विशेष कार्य पर, मैं निकल पड़ा हूँ। 


सुखद बात यह रही कि, वे महात्मा अपनी उसी कुटीर में विद्यमान मिले हैं। वयोवृध्द अवश्य हो गए हैं, इस समय उनकी आयु 90 के ऊपर हो चुकी है। उन्होंने अपनी कुटीर में, मुझे देखा है। प्रश्नवाचक दृष्टि मुझ पर डाली है तब मैंने, उन्हें बताने के प्रयोजन से स्वयं कहना आरंभ किया है - 

महात्मन, आप को स्मरण होगा आज से लगभग 23 - 24 वर्ष पूर्व एक सैनिक आप के पास आया करता था। आपने, उसे एक शक्ति प्रदान की थी, जिससे वह, किसी एक व्यक्ति से, अपनी आत्मा की अदला बदली की विद्या में पारंगत हुआ था। 


मैं, उसी सैनिक की आत्मा हूँ, एवं अपनी पत्नी हेतल के शरीर में आपके समक्ष उपस्थित हूँ। मेरा कहा विवरण सुनकर, उन्हें आश्चर्य नहीं हुआ, उनकी मुख मुद्रा से यह प्रतीत हो रहा है कि जैसे वे इस बात के जानकार हैं। मगर लगता है कि प्रत्यक्ष में वे सब मुझसे सुनना चाहते हैं। 

तब विस्तार से मैंने पिछले 18 -19 वर्ष के सब घटनाक्रम उन्हें कह सुनाये हैं। तब उन्होंने, पहली बार बोला है कि - आप अब, किस प्रयोजन से आये हैं ?


मैंने कहा - महात्मन, मैं अल्प बुध्दि, शक्ति का प्रयोग, अन्यायपूर्ण रूप से कर बैठा हूँ, मेरी मौत पर मैंने हेतल की आत्मा को विदा किया है जबकि जाना मेरी आत्मा को चाहिए था। 

तब महात्मा बोले - आप, इस बात के लिए हेतल की आत्मा के पक्ष जानकार नहीं इसलिए ऐसा सोच रहे हो।  

(आगे हममें वार्तालाप, ऐसा हुआ है)

मैं - जी, मगर हेतल के आत्मा की, अब मैं जान कैसे सकता हूँ। उसे गए तो दो माह हो चुके हैं। 


महात्मा - हेतल की आत्मा अब एक युवती के गर्भ में नया शरीर (इस समय भ्रूण) ग्रहण कर चुकी है। और इस समय उसके, आपके साथ के पिछले जीवन की, स्मृति मिटने की प्रक्रिया चल रही है। 

तब भी आपकी जिज्ञासा पर, आपके मौत के समय, उसकी आत्मा के तबके ज्ञान के साथ, उसकी आत्मा के, उस समय के संस्करण से मैं, आपका साक्षात्कार करा सकता हूँ। 


इसके लिए आपको किसी मनुष्य को साथ लेकर आना होगा। जिसमें, मैं अस्थाई रूप से हेतल की आत्मा बुलाकर, आपसे बात करा सकूँगा। जब तक हेतल की आत्मा उस शरीर में होगी, उस शरीर की मूल आत्मा मैं, हवा में रखूँगा। 

मैं - मगर महात्मा इसके लिए तो मुझे वापस, अपने शहर जाना होगा, जहाँ से किसी परिचित को, मैं संग ला सकूँगा। 

महात्मा - नहीं, इस कार्य के लिए बिलकुल अपरिचित व्यक्ति को लाना होगा जो पूर्व में आपको और हेतल को जानता तक नहीं है।   

मैं - तब तो मुझे, यहाँ से ही किसी को लाना होगा, पर महात्मा उसे किसी तरह का खतरा तो नहीं होगा। 


महात्मा - नहीं, वह बिलकुल सुरक्षित होगा। और आपसे हेतल का साक्षात्कार करा देने के उपरान्त मेरे द्वारा, उस व्यक्ति की आत्मा उसके शरीर में एवं हेतल की आत्मा, वापिस उसके अपने नए (भ्रूण) शरीर में भेज दी जायेगी। 

मैं - महात्मा मगर यहाँ, हिंदी का जानकार व्यक्ति शायद न मिले। 

महात्मा - इससे कोई अंतर नहीं पड़ेगा, तुम्हारा साक्षात्कार, तबकी हेतल की आत्मा से होगा, जो उस समय हिंदी जानती रही थी। 

यह सब सुनने के बाद मैं निकल पड़ा हूँ, निकट ही किसी ऐसे व्यक्ति की खोज में ..     


(क्रमशः)



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