काश! काश! 0.34…
काश! काश! 0.34…
ऋषभ, कंपनी में अपने प्रोजेक्ट के लिए कैलिफोर्निया गए हुए थे। रविवार अश्रुना लंच पर आई थी। अश्रुना के, हमारे बच्चों के साथ उनके खेल में भाग लेते हुए और लंच के बीच उससे मेरी कोई विशेष बात नहीं हुई। बच्चे जब अंदर कमरे में चले गए तब अश्रुना और मुझे तसल्ली से बात करने का अवसर मिला। मैंने उसे स्मरण कराते हुए कहा -
कॉलेज एनुअल डे पर तुमने मुझे बताया था कि तुम्हारे पापा और तुममें बातें हुईं हैं।
अश्रुना ने कहा - "हाँ मैम, उसके बाद मुझे लगता है पापा अधिक जिम्मेदार व्यक्ति की तरह व्यवहार करने लगे हैं।"
मैंने पूछा - "क्या बातें हुईं थीं?"
अश्रुना ने बताया - "मेरे अवकाश वाले एक दिन, पापा, मुझसे मिलने हॉस्टल आए थे। उस दिन वे मुझे अपने साथ एक अच्छी होटल में भोजन के लिए ले गए थे। उनका मूड अच्छा देख कर मैंने, समस्या दूर करने के उपाय में मुझे सूझी अपनी बातें उनसे सीधे रूप में कहने का साहस किया था।"
वह चुप हुई तो मैंने कहा - "हाँ तुम, मुझे बताओ।"
अश्रुना बताने लगी - "मैम, मैंने उनसे कहा कि
“आप, तकलीफों से जूझने के लिए मम्मी, भाई और मुझे छोड़ जाते हैं तब पता है पापा मुझे क्या करना होता है? पापा ने मुझे स्नेह से देखते हुए पूछा था, तुम्हें क्या करना होता है अश्रुना? उस समय शायद आप की दी गई प्रेरणा मेरे दिमाग पर काम कर रही थी। पापा की स्नेहमय दृष्टि ने भी मुझे उन पर दया करने नहीं दी थी। मैंने वह कह दिया जो कोई बेटी अपने पापा से नहीं कहती है।
वह चुप हुई तो मुझे उत्सुकता हुई कि अपने पापा से अश्रुना ने ऐसा क्या कह दिया। मैंने अधीर होकर पूछा - अश्रुना, तुमने अपने पापा से ऐसा अनूठा क्या कह दिया था?"
अश्रुना के मुख पर दृढ़ता के भाव उभर आए थे। उसने कहा - "मैंने निर्लज्ज होकर उनसे कहा, ‘पापा घर से गायब होकर आप दूसरी स्त्रियों, दूसरे की बेटियों के साथ जो करते हैं, हम लोग भूखे न मरें इसके लिए वह मुझे, अपने देह के ग्राहक पुरुषों से करना होता है। मैं यह कह कर अभिनय करते हुए तब पापा के सामने रोने लगी थी। पापा को मुझ पर गुस्सा तो आया था मगर चूँकि मैं पहले ही रो रही थी इसलिए उनके मन में, मेरे लिए, किसी छोटी सी बच्ची से होने वाला दुलार उमड़ आया था। उन्होंने मुझे अपने गले से लगा लिया और वे, मुझे चुप होने के लिए कहते हुए मेरे अश्रु पोंछने लगे थे।
यह सुनकर मैं सोच रही थी कि अश्रुना ने स्पष्टवादिता से अपने किए की मर्यादाहीन बातें पापा से कह कर सच में अनूठा काम किया था। और ऐसा कहते हुए रोने का अभिनय भी उसका अत्यंत सूझबूझ वाला काम था। मैंने कहा -
"अश्रुना यह तो तुम्हारा अपने पर बहुत बड़ा खतरा लेने वाला काम था। हमारे समाज में बेटी का कोई पिता, इससे बहुत कम निंदनीय आचरण पर कुपित हो जाता है। जो तुमने उनसे कहा था वह सुनकर तो कई पिता अपनी बेटियों के प्राण तक ले लेते हैं।"
अश्रुना ने कहा - "जी हाँ मैम, यह खतरा मैंने उठाया था। यह खतरा लेने के पीछे आपकी प्रेरणा और मेरी लाचारियों का स्मरण काम कर रहा था। मेरी विवशताएँ थीं। मुझे चार बार अपनी रातें बेचकर, अपनी देह दो अय्याश पुरुषों को सौंपनी पड़ी थी। यह मेरा भाग्य था कि पाँचवीं बार ऐसे अपनी रात बेचने के लिए मैं नवीन सर के घर गई थी। उनका मन न जाने क्या सोचकर बदल गया था। उन्होंने मेरी देह को भोगा नहीं अपितु मुझसे ऐसा नहीं करने को कहा था। और वह पैसों से मेरी सहायता करने लगे थे।"
यह सुनकर मैंने ‘मजबूर अश्रुना’ की अपने ग्राहकों के सामने होने की रूप की कल्पना की थी। तब अपने सामने बैठी अभी नवयुवा इस अश्रुना के प्रति अपने हृदय में मुझे करुणा उमड़ आई अनुभव हुई थी। मैं सोच रही थी कि शायद उसके पापा ने भी अपनी बेटी के लिए ऐसी ही करुणा, अपने हृदय में अनुभव की होगी। मैं यह भी सोच रही थी कि कदाचित! उसके पापा के मन में तब विचार आया होगा कि उसने भी अपनी कामातुरता में जिन लड़कियों और औरतों को भोगा है वे भी उसके तरह के किसी पिता की, ‘मजबूर अश्रुना’ जैसी बेटियां ही हैं।
मेरे सामने अश्रुना चुप बैठी थी। वह मुझे सोच में डूबा देख रही थी। तब मैंने उससे कहा -
अश्रुना यह विडंबना, तुम्हारा दुर्भाग्य था। जिसे तुम्हें भाग्य मानना पड़ रहा है। यह हम मनुष्य का दुर्भाग्य होता है जब हमें, जीवित बने रहने (Survival) के लिए अपने याचना से फैले हाथ लिए किसी के समक्ष जाना होता है। मेरे कहने का अर्थ यह नहीं है कि तुम हमारी की गई सहायता को, खेदनीय बात मानना। मैं तुम्हारी जगह स्वयं होने की अनुभूति करते हुए यह कह रही हूँ।
अश्रुना ने कहा - "मैम आप इतना विचार कर पाती हैं इसलिए महान हैं, इसलिए इतनी अच्छी हैं। मैं आपको अपना आदर्श मानती हूँ। आप मेरे साथ हैं इसी से मैं उस दिन साहस से भरी हुई थी। मैंने उस अवसर पर कोई चूक न रह जाए इस विचार से पापा पर एक और भावनात्मक प्रहार किया था।"
मुझे लगा कि जब अश्रुना को आशा हुई है कि उसके पापा अब शायद घर से पूर्व की तरह गायब नहीं होंगे तो उसने कोई अच्छी बात ही उनसे कही होगी। यह जानने के लिए मैंने उससे पूछा - अश्रुना तुमने, अपने पापा से क्या कहा था?
अश्रुना ने बताया - "मैम मैंने उनसे कहा था कि पापा, आप अपनी कमाई परिवार के खर्च के लिए नहीं देकर अपनी अय्याशियों पर खर्च करते हैं। तब आपके-मेरे परिवार के उदर पोषण के वास्ते मुझे कॉलगर्ल बनना पड़ता है। ऐसे में क्या यह ठीक नहीं रहेगा कि आप दूसरों की किसी बेटी को नहीं, अपनी स्वयं की बेटी ‘अश्रुना’ को अपनी अय्याशी और वासना पूर्ति का साधन बनाएं। इसमें आपकी कमाई घर में ही रहेगी और मुझे कमाने के लिए यूँ देह व्यापार में नहीं पड़ना होगा।"
अश्रुना या कोई भी बेटी, ऐसी बात अपने पापा से कहेगी मैं यह कल्पना भी नहीं कर सकती थी। मेरे मानस पटल पर, पापा-बेटी के बीच ऐसा होने का काल्पनिक दृश्य, वीभत्स रस का उदाहरण सा दिख रहा था। मैंने उठकर अश्रुना को अपने अंक से ऐसे लगा लिया जैसे कोई बड़ी बहन अपनी छोटी को अंक में भर लेती है। अपने अंक में उसे लिए हुए मैंने कहा -
हाँ अश्रुना मैं समझ सकती हूँ तुम्हारे ऐसा कहने की प्रतिक्रिया तुम्हारे लज्जित हो रहे पापा के मन में क्या हुई होगी?
अश्रुना ने एक बेटी की तरह मेरे गले एवं वक्ष के बीच में चुंबन लिया था। फिर मुझसे अलग होकर कहा था -
मैम, "मेरे पापा, मेरी बात पर तब जार जार रो रहे थे। मुझे लग रहा था कि पापा की अय्याशियों के सारे मंसूबे उस दिन उनके भीतर से अश्रुओं के रूप में निकल-बह गए थे। उस समय मुझे अपने पापा अपने निर्मल स्वरूप में प्रतीत हो रहे थे। मुझे उन पर ऐसा प्रेम आ रहा था जैसा मैं, अपने छोटे भाई पप्पू के लिए अनुभव करती हूँ। इस सबके बाद अब मैं यह आशा करती हूँ कि मेरे पापा हमें यों विवश छोड़कर कभी गायब नहीं हुआ करेंगे।"
अश्रुना मेरे हृदय और मस्तिष्क में मंथन के लिए अनेक विचार छोड़कर चली गई थी।