Rajesh Chandrani Madanlal Jain

Inspirational

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Rajesh Chandrani Madanlal Jain

Inspirational

संतोष

संतोष

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संतोष करना स्वभाव बनाने पर हम हर परिस्थिति में सुखी रह सकते हैं। यहाँ यह समझने की आवश्यकता है कि वास्तव में संतोष है क्या और संतोष कैसे किया जाता है? मैं संतोष का अर्थ मानसिक आनंद या प्रसन्नता मानता हूँ। 

अब प्रश्न उठता है, हम ऐसी परिस्थिति में संतुष्ट अर्थात् प्रसन्न कैसे रह सकते हैं, जबकि हमारी कामना पूरी नहीं हुई हो ?

इस का उत्तर यह है कि जो भी परिस्थिति बनी हों, कैसी भी परिस्थिति हो, जिसमें हमारी कामना की पूर्ति लगभग अपूर्ण रह गई हो, अगर हम ऐसी किसी भी या इस परिस्थिति को सही दृष्टिकोण से देख लें और समझ लें, तो इसमें भी हमें संतोष अर्थात् प्रसन्नता मिल सकती है। 

अपने कथन को पुष्ट करने के लिए मेरे पास मेरे जीवन की अनेकों विषम परिस्थितियाँ और उसे देखने के मेरे दृष्टिकोण को मैं उदाहरण के रूप में लिख सकता हूँ। यहाँ मैं एक अभी हाल का उदाहरण लिख रहा हूँ। 

लगभग तीन माह के समय में लिखकर, मैंने एक उपन्यास दिसंबर 2022 में पूर्ण किया था। तब पहली बार, मैंने इसे पेपरबैक रूप में प्रकाशित करने का निर्णय किया था। सेल्फ पब्लिशिंग के अंतर्गत मैंने इसे प्रकाशित करने में आवश्यक धन राशि भी व्यय की थी। इसके प्रकाशन प्रक्रिया में 2 माह लगे थे। इस दौरान मैंने इसकी सफलता के, मन के लड्डू खाने का आनंद भी बहुत उठाया था। बहुत योजना बनाईं कि इसके प्रमोशन के लिए मैं क्या क्या करूँगा। फिर जब पुस्तक प्रकाशित हो गई। तब मैंने अपनी पहली योजना पर कार्य आरंभ किया था। मैंने कुछ (लगभग छह) परिचित-मित्रों को इसकी सूचना दी थी। यह करते हुए मेरी अपेक्षा थी, वे इसे सोशल साइट्स में, अपनी पोस्ट में इसकी चर्चा करके अपने परिचित मित्रों में इसके प्रचार में मुझे सहयोग करेंगे। 

फिर मैंने मेरी इस अपेक्षा में उनकी तरफ से हिचक अनुभव की। मैंने बुक प्रमोशन की अपनी सभी योजनाएँ स्थगित कर दीं और पुस्तक को उसकी गुणवत्ता के आधार पर, स्वयं चलने की परिणति के लिए छोड़ दिया। 

अब जब अनेकों कामनाएँ, योजनाएँ और पुस्तक को लेकर मेरी सारी आशाएँ - अपेक्षाएँ, जब अधूरी रहीं तब मैं अपने आप में संतोषी और आनंद में कैसे रहा हूँ, यह उल्लेख करता हूँ - 

मैंने विचार किया, पाँच माह के प्रयास में मैंने अपनी पुस्तक प्रकाशित होने संबंधी अर्थात् एक पब्लिश्ड ऑथर होने की महत्वाकांक्षा पूर्ण की है। मैंने तय किया, यह पुस्तक चले या नहीं, मुझे इस प्रश्न को हल करने की कोशिश नहीं करनी है। मुझे इसमें अच्छा यह लगा कि मैंने अपनी अपेक्षा से मिलकर और आग्रह करके, अपने किसी परिचित मित्र का अमूल्य समय व्यर्थ नहीं किया है। इससे मैंने, अपने सामने से कतराकर निकलने की उनकी धर्मसंकट पूर्ण स्थिति में, उन्हें नहीं डाला है। अर्थात् उनसे मेरे जो और जितने भी संबंध हैं, उसमें कमी की संभावना का मैंने रोकथाम कर लिया है। 

इस वृतांत को लिखने के बाद मैं यह बताना चाहता हूँ कि मैंने संतोष और आनंद इस बात में लिया है कि इस पुस्तक से जुड़ीं, मेरी अनेकों कामना अपूर्ण भले रहीं हैं मगर एक महत्वाकांक्षा, अब मैं एक प्रकाशित लेखक हूँ यह उपलब्धि प्राप्त की है। 

हमारे पास किसी भी परिस्थिति में प्रसन्न रहने के अनेकों विकल्प होते हैं। अधूरे रहे सपने में भी उसके कुछ अंश की पूर्णता होती है। हमें अपने सपने के, पूर्ण हुए अंश को प्रमुख करके देखना चाहिए, इससे हम सदा प्रसन्न दशा में रह सकते हैं।   


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