जब हमें गुजिया खाने के लिए मिलती थी और हम बोलते थे- होली आयी रे। जब हमें गुजिया खाने के लिए मिलती थी और हम बोलते थे- होली आयी रे।
अनजान समझा जिन्हें, वो मेरा अपना ही था। दर्द गहरे थे उनको, जख्म अपना ही था।। अनजान समझा जिन्हें, वो मेरा अपना ही था। दर्द गहरे थे उनको, जख्म अपना ही...
कविता सोच रही थी, ‘वाह ! रत्ना के बहाने दो अन्य की पहचान।’ कविता सोच रही थी, ‘वाह ! रत्ना के बहाने दो अन्य की पहचान।’
अब जाना है.. नई खुशी,जिंदगी, हंसी की तलाश में। अब जाना है.. नई खुशी,जिंदगी, हंसी की तलाश में।
लेखक : इवान बूनिन अनुवाद : आ। चारुमति रामदास लेखक : इवान बूनिन अनुवाद : आ। चारुमति रामदास
अब बात विचारणीय है हमने क्या खोया क्या पाया है ? अब बात विचारणीय है हमने क्या खोया क्या पाया है ?