amar singh

Others

5.0  

amar singh

Others

वो इक कराह... जिससे दिल महक उठ

वो इक कराह... जिससे दिल महक उठ

4 mins
549


सर्दी की सुबह घने कोहरे में कुछ कदम ही चला था, कुछ जानी पहचानी सी सुगंध उठी। रास्ते में देखने को कुछ भी न था, चारो ओर बस कोहरा ही कोहरा। शहर की खामोशी में कुछ आवाजें जो कभी अज़ान होती और कभी मंदिर से उठते घंटियों के स्वर। अचानक उन आवाजों के मध्य अंतराल में मन के भीतर विचारों का शोरगुल कहां कुछ सुनने देता है? कहां कुछ देखने और समझने देता है? जिंदगी के कितने साल इन मूढ़ता भरे विचारों से किसी स्वप्न की भांति बहते चले गये और अंत में बचे मात्र कुछ अनुत्तरित प्रश्न। जिनके उत्तर शब्दों द्वारा, विचारों द्वारा प्राप्त होना संभव नहीं। इन अनुत्तरित प्रश्नों के उत्तरों के माध्यम तो बहुत हैं और शब्द भी किन्तु निष्कर्ष कहीं भी नहीं ऐसा क्यों? यह भी उन घंटियों के स्वरों और अज़ान की पुकार के उस लघु अंतराल में प्राप्त हो जाता है जिसमें मात्र क्षणभर के लिए दिल कह उठता हैः-

दौड़ता हूं अंतहीन राहों पर,

बेतरतीब-बेइन्तहां

थक जाता हूं दौड़कर जब,

बैठ जाता हूं उन्हीं राहों पर

करके बंद आंखें,

फिर देखता हूं वो सब

जो खुली आंखों से,

देख न पाया कभी

खामोशी के उस मंज़र में,

बूंद गिरती ओंस की जब चेहरे पर

छूता भी नहीं उसको,

वो बिखर न जाये कहीं

फिर जैसे ही मन के उस अंतराल से बाहर निकला तो अज़ान की उस पुकार जिसकी लय में बहते हुए मन यह समझने लगा -

अज़ान निकलती है दिल से बिना किसी आवाज़,

जो सुन लेता है वो खुदा,

जो कभी अज़ान है तो कभी सांस है मेरी

यूं ही चलते-चलते कुछ मधुर अहसासों और अनुभूतियों में न जाने कब रास्ता गुजर गया और मैं अपने गंतव्य तक पहुंच गया पता ही न चला। शायद जिंदगी का सफर भी ऐसे ही किसी छोटे से सफर की तरह ही है जो अच्छे-बुरे अहसासों और अनुभूतियों से भी परे किसी अनजान और अनछुये गंतव्य तक ले जाता है, जहां हर किसी को जाना ही है। समझकर या फिर बिना समझे!


फिर कुछ दिन बाद पुनः इसी तरह रात की चांदनी में चहलकदमी करते हुए ईदगाह के सामने से गुजरा तो एक साया सीढि़यों पर बैठे हुए देखा। देखकर अनदेखा करने की ख्वाहिश तो हुई मगर उनकी चमक खुद-ब-खुद उस ओर खींच गई। मन में कौतूहल उठा चलो देखें तो सही आखिर माज़रा क्या है? थोड़ा ध्यान दिया तो अनजान सा लगने वाला साया कुछ जाना पहचाना लगने लगा, मन में डर का नामोनिशां तक न था। आखि़र खुदा के दर पर जो था, मैं और वो इक साया। धीमी सी कुछ सिसकियां जब मेरे कानों पर पड़ी तो दिल के तार अंदर तक हिल गये। इतनी मार्मिक वेदना थी उस कराह में। धीरे-धीरे जानने की पीड़ा जोर पकड़ने लगी। मन में तरह-तरह के ख्यालों ने घेरा डालना शुरू कर दिया कि आखिर कौन हो सकता है वो। जो अनजान होकर भी न दिखने वाली किसी डोर से खीचा चला जा रहा है और रूह को डर की बजाये कुछ ऐसी खामोशी पकड़ने लगी और दिल खुद-ब-खुद कहने लगाः-


अनजान समझा जिन्हें,

वो मेरा अपना ही था।

दर्द गहरे थे उनको,

जख्म अपना ही था।।


रोते थे वो मेरी खातिर,

सोता था मैं भूल उनको।

गिरा जब अर्श से नीचे,

संभाला उनने ही था।।


भूल कर फिर उनको,

दगा करा मैंने।

जख्म खुद को देकर,

हरा किया मैंने।।


रोये वो मेरी खातिर,

दवा दी मुझको।

जुल्म सहे खुद पर,

रज़ा दी मुझको।।


अनजान समझा जिन्हें,

वो मेरा अपना ही था।

दर्द गहरे थे उनको,

जख्म अपना ही था।।


थोड़ी देर हुई मैं यूं ही खड़ा रहा किसी बुत की माफिक। फिर उन्होंने आंख उठाई जिसकी तेज उजली रोशनी के बीच उन आंसू की बूंदों को देखकर समय रोक देने का दिल हुआ। ऐसी कशिश थी उन आंखों में, जिसमें हर कोई डूब जाना चाहे। उजले केशों ने उनको और भी दिलकश सा दिया था बना। जिनकी तारीफ में लफ्ज़ खत्म हो जाते हैं। दिल में जो सवाल उठ रहे थे मेरे खामोश लबों से खुद-ब-खुद दिल का हाल जान फिर उन्होंने कहाः-


आता हूं रोज दर पर नमाजी बनकर,

मिलते हैं कुछ नमाजी तो कुछ समाजी।


कुछ करते दिखते इबादत उसकी,

कुछ करते दिखते हूज़ूरे इबलिस।


रोता हूं उनकी खातिर,

जिनका मुझसे न कोई वास्ता।

देखता हूं जब मैं उनका आखिरी रास्ता,

तड़पता हैं तब दिल मेरा उनकी खातिर,

जिनके लिए मैं अब कुछ भी नहीं।


चाहता हूं उन सबको पनाह में लेने अपने,

चाहते हैं मुझको, देखते जो सपने।


खुला दिल मेरा और खुला घर भी है,

चाहो जब आ जाना मिलने मुझसे।


मिलूंगा यहीं बैठा तुझको,

बस दिल को पहले साफ जरूर करना।


फिर अगली सुबह जब दुबारा उस ओर गया तो उनकी मौजूदगी का अहसास दिल ने खुद ऐसे किया जैसे पानी पीने के बाद प्यास बुझने का अहसास। फिर दिल में सूकूं की ताजगी भर गई कि कम से कम मैं तो उनके दर्द को समझता हूं। क्या आप भी शामिल हैं उनके प्यार की कतार में?


Rate this content
Log in