हेतल और मेरा दिव्य प्रेम .. (2
हेतल और मेरा दिव्य प्रेम .. (2
मेरी शक्ति के रहस्य के प्रति हेतल ज्यादा जिज्ञासु न हो जाए, इस हेतु मैंने तय किया कि इसका प्रयोग मैं, अक्सर (frequently) नहीं करूँगा। मेरे द्वारा बदले जाने से, जब जब हेतल की आत्मा मेरे शरीर में होगी, तब तब उसे मेरे शरीर की अनुभूतियाँ मिलेंगी, उसे इससे आश्चर्य होगा, यह एक बात होगी। दूसरे, इस दौरान अन्य लोग मेरे शरीर के दिखने से, हेतल से, मेरे जैसे काम और ड्यूटी की अपेक्षा करेंगे। जिसका उसे ज्ञान नहीं होने से वह परेशान होगी।
अतः उसके साथ मुझे यह रात्रि के समय में या उसके ज्यादा कष्ट के दिनों में ही करना होगा यह उपयुक्त लगा था।
यहाँ यह उल्लेख करना औचित्य पूर्ण होगा, जिसके लिए हम, "मैं", प्रयोग करते हैं वह वस्तुतः हमारा शरीर नहीं अपितु हमारी आत्मा होती है।
यह तय किये जाने के बाद, फिर मैंने तीन वर्षों तक, अपनी शक्ति भुलाये रखते हुए, अपना ध्यान और कर्म दो बातों पर ही केंद्रित कर लिया था। पहली थी मेरी राष्ट्र दायित्वों को सचेत रखने वाली भावना और दूसरी थी हेतल से अपने प्रेम से ओतप्रोत कर देने की भावना।
हेतल और मेरे दिन तब प्रेममय रहते हुए, प्रकाश वेग की तेजी से बीते थे। फिर हमारा प्रेम सरूप होकर, हेतल के गर्भ में आ गया था। हेतल के हर्ष की सीमा नहीं थी। गर्भवती हेतल का आरंभिक, लगभग छह मास का समय प्रसन्नता और हमारे होने वाले बच्चे को लेकर, सुखद कल्पनाओं में बीता था। बाद के दिनों में हेतल प्रसव वेदना और उस समय बच्चे एवं अपनी जान को लेकर चिंतित रहने लगी थी।
तब हेतल को नरमी एवं सावधानी से अपनी बाँहों में भरकर, मैं ढाँढस दिया करता, कहता कि सब ठीक होगा तथा तुम्हें पीड़ा मालूम तक न पड़ेगी और हमारा बच्चा, स्वस्थ एवं सुरक्षित तुम्हारी गोद में आ जाएगा मेरे ऐसे वात्सल्य एवं विश्वास दिए जाने से कुछ समय, वह चिंतामुक्त हो जाती। उन महीनों में बार बार ऐसा करते हुए मैंने एक निर्णय ले लिया था। अंततः वह रात आई थी जब हेतल को प्रसव पीड़ा शुरू हुई थी। अस्पताल में भर्ती कराये जाने के बाद ही, मैंने, तब अपनी रूह उसमें और हेतल की रूह अपने शरीर में बदल दी थी।
फिर ऑपरेशन थिएटर में सामान्य प्रसव की पीड़ा मैंने झेल ली थी और जब हमारे बेटे के रोने की आवाज़ गूँजी थी, तब फिर आत्माओं को वापिस उनके मूल शरीर में पहुँचा दिया था। हेतल अस्पताल से तीन दिन, बाद अत्यंत ख़ुशी से अपने बेटे को गोदी में लिए घर वापिस आई थी। उसी रात जब बेटा सोया हुआ था, तब उसने रहस्यपूर्ण स्वर में मुझसे बताया था कि अस्पताल में प्रसव पूर्व पीड़ा बढ़ना आरंभ होते ही, मेरे साथ फिर वही विचित्र बात हुई थी। मैं आपके शरीर को अनुभव कर पा रही थी। स्वयं को आपके शरीर में देख रही थी। ऐसे में, मुझे उठी पीड़ा का बोध, ग़ायब हो गया था,आपके शरीर में होते हुए, मैं अपने शरीर को ऑपरेशन थिएटर में ले जाए जाते देख रही थी। बाहर मेरे शरीर द्वारा प्रसव दिए जाने के दृश्य को, मैं वहाँ मौजूद हो देख रही थी। और जब अपना यह प्यारा बेटा (इशारा सोये बेटे की तरफ करते हुए), जन्मा और रोने लगा तब अचानक से मैं, अपने शरीर को अनुभव करने लगी।
मैं, प्रेमपूर्वक सब सुन रहा था तभी, हेतल, बताने के स्थान पर, मुझसे पूछने लगी कि-
क्या मेरी इस बात पर आप विश्वास कर सकेंगे ?
मैंने हँसते हुए कहा था-
हेतल, यह तो ख़ुशी की ही बात है, तुम्हें वेदना नहीं हुई और बेटे को तुमने जन्म दे दिया। फिर रुक कर कहा - देखो, यह तुम्हारा, मुझसे दिव्य प्रेम ही तो है जो अपने प्रति, मेरी अनुभूतियाँ और भावनाओं का समय समय पर, तुम अनुभव किया करती हो। उसने हँसने में मेरा साथ दिया था। लेकिन सशंकित ही दिखाई दी थी और पूछा था, आपने पहले कहा था कि प्रसव में, मुझे पीड़ा नहीं होगी। ऐसा ही हुआ है। मुझे शंका होती है कि आप में कोई दिव्य शक्ति तो नहीं, जो मेरी वेदनाओं के समय, वेदना से मुझे निजात दिला देती है?
झूठ कहते हुए, यद्यपि मैं झेंप रहा था लेकिन मुख पर ऐसे भाव न प्रकट करने में मैं सफल रहा था और हँसते हुए कहा था-
कैसी बात करती हो हेतल, मैं तो साधारण मनुष्य हूँ। बल्कि अगर तुम मुझे मेरी भावनाओं सहित अनुभव करती हो तो, मुझे तो दिव्यता तुम में लगती है।
क्या कहे, इस संशय में वह कुछ न बोली थी। फिर मेरी बाँह पर सिर रख सो गई थी।
मुझे प्राप्त विलक्षण शक्ति में, यह विलक्षणता थी कि हेतल की आत्मा जब मेरी शरीर में रहती, तब ही वह मेरे हृदय आवेग और भावनाओं की अनुभूति करती, उसके पहले या बाद की ये अनुभूतियाँ, उसके ज्ञान में नहीं आ पाती थीं।
मगर जितने समय उसकी रूह, मेरे बदन में होती, उतने समय की, उसके प्रति मेरे समर्पित प्रेम की अनुभूति, उसके आत्मा के ज्ञान में जाती थी।
इन अनुभूतियों का भान, वह जब अपने में ही होती, तब उसे होता रहता था। इस कारण वह मेरे प्रति संपूर्ण रूप से समर्पित एवं श्रध्दावान रहती थी।
फिर मैंने आत्माओं की ऐसी बदली करना स्थगित कर दिया था।
ऐसे ही अगले अवसर पर, जब हमारी बेटी जन्मी थी, तब प्रसव वाले दिन मैंने, पुनः ऐसा करते हुए, उसकी वेदनाओं को सहने से मुक्ति दिलाई थी।
अब तक तो हेतल में यह आत्मविश्वास आ गया था कि गहन पीड़ा वाली स्थितियाँ, उसे बिना सहन कराये निकल जायेंगी। मैं यह ध्यान रखता कि छोटी मोटी प्रतिकूलता वह अनुभव करती रहे ताकि जीवन, उसे जीवन सा लगे, कोई पौराणिक कथा सा न लगे।
आने वाले दिनों में, उसे होने वाली तकलीफें, हेतल पर बहुत भारी पड़तीं मगर यह अच्छा था कि उसे मेरा एवं मेरी विलक्षण शक्ति का साथ था। अन्यथा उसके लिए, उसके जीवन में घटने वाले, दुःख अत्यंत असहनीय होते। तब हेतल को ईश्वर से शिकायत होती कि इतना ही कष्ट उसके जीवन के लिए तय करना था तो उसे जीवन ही क्यूँ दिया? उसके जीवन में ये भयावही कष्ट क्या थे? इसका पूर्वानुमान ना तो हेतल को था और ना ही मुझे था।
मनुष्य स्वभाव ऐसा होता है कि वह भावी जीवन में विपरीतताओं के प्रति आशंकित तो हमेशा रहता है किंतु साथ ही आशावान भी रहता है कि उस पर कोई बड़ी मुसीबत नहीं आएगी। मगर जब उसकी आशा विपरीत, उसके साथ अत्यंत कष्टकारी कुछ होता है तो उसे, अपने मिले जीवन से बेहद निराशा होती है ...(क्रमशः)