मैंने कब तुमसे कहा था कि मुझे प्यार करो
मैंने कब तुमसे कहा था कि मुझे प्यार करो


मैंने कब तुमसे कहा था कि मुझे प्यार करो
प्यार जब तुमने किया था तो निभाया होता
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आज मुझे बॉलीवुड की ना तो कोई मूवी अच्छी लगती, ना ही मैं किसी बॉलीवुड कलाकार का प्रशंसक ही रहा हूँ। कारण यह है कि अब के बॉलीवुड के लोगों की करतूतों ने, उनकी ओर से मेरा मोह भंग कर दिया है। मैं पहले ऐसा नहीं था। तब मैं बॉलीवुड की फ़िल्में देखता और कुछ कलाकारों का प्रशंसक भी होता था। यह गाना मेरे बचपन के समय आई एक फिल्म का था। तब मैंने इसे सुना होगा पर स्मरण नहीं था। बाद में मुझे यह गीत सुनना अच्छा लगता था।
आज जब मैं इस पर कुछ लिख रहा हूँ तो इसे पढ़ने वाले मेरे कोई मित्र, शायद सोच सकते हैं कि ‘यह आदमी लगता है अपने बुढ़ापे में सठिया गया है। अन्यथा प्यार-व्यार की बातों को भूलकर आज राम भजन पर कुछ लिख रहा होता’।
मैं शीर्षक में इस गीत का मुखड़ा लिखकर क्यों लिख रहा हूँ यह बात तो जो मित्र इस आलेख को पूरा पढ़ेंगे वे ही समझ सकेंगे।
अभी आरंभ करता हूँ उस मुहावरे के अर्थ की चर्चा करते हुए जो मैंने उपरोक्त पैरा में प्रयोग किया है - ‘सठिया जाना’। वास्तव में सठिया जाने का अर्थ होता है ‘मति (बुद्धि) मारी जाना या मति भ्रम हो जाना’। इसमें व्यक्ति की साठ वर्ष की उम्र के लिए, सठिया शब्द लिया गया है।
बहुधा यह देखा जाता रहा है कि इस उम्र में आकर व्यक्ति की बुद्धि घट जाती है। उसका कारण हमारे समाज में खानपान की आदत रही है। पहले की पीढ़ी में हमारे लोगों को बहुत अधिक मीठा और गरिष्ठ खानपान प्रिय होता था। जिससे साठ वर्ष के होने तक इन्द्रियों के शिथिल होने के साथ ही, मस्तिष्क भी शिथिल होना प्रारंभ हो जाता था और व्यक्ति इस तरह की भूलें और काम करने लगता था कि वह सबमें हास-परिहास का पात्र बन जाता था। जो उनका आदर भी करते थे, वे भी मुँह छुपाकर उन पर हँस लिया करते थे। और फिर यही ठहराया जाता कि ‘वे अब सठिया गए हैं’।
सठियाने पर चर्चा तो विषयांतर है अब मैं विषय पर आता हूँ। वास्तव में उपरोक्त में उल्लेखित गीत का मुखड़ा लिखने से मेरा प्रयोजन गीत के बारे में लिखना नहीं है, बल्कि गीत के माध्यम से आज आए अपने विचार को स्पष्ट करना है।
अगर आप गीत के मुखड़े को ध्यान से पढ़ेंगे और उसकी व्याख्या करेंगे तो पाएंगे कि इस गीत को गाते हुए नायिका, अपने नायक से यह शिकायत करती है -
‘मैंने कभी आपसे मुझे प्यार करने के लिए नहीं कहा था। किन्तु इसके बाद भी जब आपने मुझसे प्यार किया और मुझे आपके प्यार में ‘जीने की आदत’ लग गई तब आपने उस प्यार को निभाना छोड़कर मुझे बड़ी कठिन स्थिति में ला छोड़ा है।’
मेरे इस आलेख में इस गीत की इतनी व्याख्या के बाद गीत के बारे में आगे कुछ नहीं है। मात्र व्याख्या में उल्लेखित शब्द ‘जीने की आदत’ ही आलेख की विषय वस्तु हैं।
किसी घटना से मेरे मन में आज ‘जीने की आदत’ के बारे में लिखने का विचार आया। वास्तव में मैं ही नहीं दुनिया के सभी प्राणियों के दैनिक क्रम में उसकी कुछ आदतों का समावेश अनायास (अर्थात् चाहे-अनचाहे रूप से) हो ही जाता है।
इन आदतों अनुसार वह सुबह जागने के साथ ही यंत्रचालि
त मशीन की तरह व्यवहार करने लगता है। निश्चित ही सभी की कुछ ना कुछ आदतें होती हैं। यहाँ उदाहरण में, मैं मेरी ही आदतों के विषय में लिखूँगा कि दैनिक क्रिया से निवृत्त होने के बाद मेरी आदत प्रातःकालीन भ्रमण की है। उसके पश्चात् मैं घर पर कुछ काम निबटाने के बाद, अपनी आदतानुसार एक और काम के लिए चला जाता हूँ वह आदत है, टेबल टेनिस खेलने की।
उपरोक्त में उदाहरण में मैंने जो आदतें लिखीं हैं वे आदतें मेरी अपनी ही बनाई हैं। जबकि कुछ आदतें ऐसी भी होती हैं, जो हममें दूसरे बना देते हैं। इसको समझने के लिए मैं फिर अपनी ही आदतों का उदाहरण लिख रहा हूँ, जो मुझमें मेरी सहचरी ‘रचना’ की देन हैं। इसे समझने के लिए अधिक नहीं एक दो आदतों का उल्लेख ही पर्याप्त है। इनमें मेरी एक आदत यह है कि भ्रमण से आने के पश्चात् रचना, मुझे कोई एक फल, कुछ खजूर और कुछ सूखे मेवे खाने को देती हैं। यह खाना मेरी आदत बन गई है। रचना के द्वारा मुझमें बनाई गई आदतों में बहुत कुछ है, उनमें यह भी है कि मेरी आदत अनुसार बहुत सी सामग्रियाँ रचना के द्वारा मुझे, मेरे अनकहे ही मेरे हाथों पर ही उपलब्ध करा देना है।
दूसरे शब्दों में लिखें तो जो आदत, हममें दूसरे द्वारा बना दी जाती है वह आदत, उससे हमारी अपेक्षा में बदल जाती है। यह आप भी जानते हैं कि अपेक्षाओं में बड़ी खराबी (या कमी) यह होती है कि जब कोई हमारी उससे बन गई अपेक्षा की पूर्ति नहीं करता है, तो हमें बड़ा रंज होता है।
अभी कुछ दिनों से रचना, अपनी माँ के पास गईं हुईं हैं ऐसे में मेरी स्थिति क्या हो रही होगी यह बताने की आवश्यकता नहीं है।
सार यह है कि हमारा किसी बात की आदत या अपेक्षा रखना अच्छा तभी होता है जब हम आदतों के पराधीन नहीं होते हों। अर्थात् जब स्थिति विपरीत हों और आदतें या अपेक्षाओं अनुसार काम संपन्न नहीं होता हो तो भी हमें व्यर्थ व्याकुलता (खेद-खिन्नता) नहीं हो, यह हमारे अपने वश में ही रखना उत्तम होता है।
आदतों या अपेक्षाओं पर यह लिखे बिना भी यह आलेख पूर्ण नहीं होता है कि हम स्वयं इस बात का ध्यान रखें कि हम किसी में अपने द्वारा ऐसी आदतें या अपेक्षाएं के निमित्त नहीं बनें, जिन्हें अगर हम किसी कारण से पूरी नहीं कर पाएं तो अपूर्ण होने की दशा में उसे परेशानी हो या उसका मन दुखे।
इस बारे में यहाँ तेलुगु में एक लोकोक्ति भी चलती है। उसका आशय हिंदी में ऐसा है -
एक भिखारी नित दिन कई घरों में भिक्षा माँगने जाया करता था। बहुत से घरों से उसे कभी कुछ नहीं मिलता था, तब भी वह निराश या दुखी नहीं होता था।
उस भिखारी के लिए एक घर ऐसा था जहाँ से उसे हमेशा भिक्षा मिलती थी। ऐसे में एक दिन जब उस घर से उसे भिक्षा नहीं मिली तो वह भिखारी बड़ा दुखी हुआ। उसने जिन घरों से भिक्षा नहीं मिलती थी, उन्हें तो भला-बुरा कुछ नहीं कहा मगर इस घर की मालकिन को कोसते, बुरा कहते हुए वह वापस गया था।
सार यह है कि हमें दूसरों की हमसे अपेक्षा की पूर्ति का प्रयास तो करना चाहिए मगर हमसे अपेक्षा की पूर्ति, किसी की आदत नहीं बन जाए, हमें इस हेतु सावधान रहना चाहिए।
अभी के लिए आप लता जी के मधुर स्वर में उपरोक्त उल्लेखित गीत सुन लीजिए।