हम पिछली पीढ़ी के पुरुष
हम पिछली पीढ़ी के पुरुष
मेरे एक समवयस्क मित्र हैं जिनसे, कुछ महीनों पहले एक सामान्य वार्तालाप में मैंने बताया था कि सुबह के भ्रमण (वॉक) के बाद मैं अपने घर में डस्टिंग का काम करता हूँ। इसे उन्होंने किसी सामान्य बात जैसा सुना था और इस पर फिर कभी कुछ नहीं कहा था।
उपरोक्त विषय पर आगे मैं फिर आऊंगा। अभी उससे पहले मुझे पिछली पीढ़ी के हम पुरुषों के बारे में कुछ सच्चाइयों का उल्लेख करना औचित्यपूर्ण लग रहा है। यह वास्तविकता रही थी - साठ-सत्तर के दशकों में जन्मे भारतीय (विशेषकर मध्यमवर्गीय परिवारों के) पुरुष, अपनी पूर्व पीढ़ी की परिवार संरचना देखते थे, जिसमें परिवार का अर्निंग मेंबर पुरुष होता था। तब नारी सदस्यों का दायित्व घर-गृहस्थी के सभी कार्यों को संपन्न करना होता था। इसमें झाड़ू-कपड़े-बर्तन से लेकर बच्चों की देखभाल एवं जल (पेय एवं निस्तार के लिए) भरने, रसोई तथा सिलाई-कढ़ाई आदि सभी कार्य होते थे।
तब के जन्मे हम पुरुषों की मानसिकता ऐसे ही परिवार व्यवस्था को स्वीकार करती थी। अतः मैं भी इसी तरह का पुरुष रहा हूँ। तब मेरा जीवन जॉब करते हुए और मेरी अर्धांगिनी (रचना) का जीवन घर-गृहस्थी के सारे कार्य स्वयं करते या इसकी व्यवस्था करते हुए व्यतीत होता था। यद्यपि विवाह के पूर्व रचना ने मुझसे पूछा था - 'क्या मुझे भी जॉब करना चाहिए?' तब मैंने उत्तर दिया था - क्या आवश्यकता है, हमारे परिवार के लिए मेरी सैलरी पर्याप्त रहेगी। तभी से मेरी राय जानने के बाद रचना ने जॉब का विचार त्याग दिया था।
विवाह के 34 वर्ष तक हमारे घर-परिवार का स्वरूप इसी पुरातन व्यवस्था अनुसार चलता रहा था। मैंने कभी इस पर ध्यान नहीं कि रचना को हमारा परिवार, सुव्यवस्थित रखने के लिए किस तरह प्रयास और चुनौतियों से जूझना पड़ता था।
अंततः 2020 में मैं जॉब से सेवानिवृत्त हो गया और विभागीय दायित्वों के ना रह जाने से मैं एक तरह से बिलकुल फ्री हो गया। इस स्थिति में रचना एवं मेरे बच्चों की अपेक्षा यह बनी कि अब मैं भी घर के कुछ कार्यों में रचना का हाथ बँटाया करूं। तब से मैंने कुछ छोटे मोटे कार्य करना अपनी दिनचर्या में सम्मिलित कर लिया, नियमित डस्टिंग करना भी उनमें से एक है।
आज जब मैं टेबल टेनिस खेलने के बाद घर लौट रहा था तब मेरे साथ पुनः वे मित्र और उनके अतिरिक्त दो और मित्र भी थे। सामान्य बातचीत में मेरे मित्र ने मुझसे प्रश्न किया - 'क्या आजकल आप वॉक पर नहीं आ रहे हैं?'
मैंने बताया कि मैं आजकल जल्दी भ्रमण कर रहा हूँ और 6.35 बजे तक वापस घर लौट जाता हूँ।
तब हममें से एक ने मुझसे प्रश्न किया - फिर आप टेबल टेनिस के लिए 7.45 बजे क्यों आ पाते हो, जल्दी भी तो आ सकते हो?
मैं कुछ कहता उसके पूर्व ही मेरे उन मित्र ने, उन्हें हँसकर बताया - 'ये इस बीच घर की झाड़ू डस्टिंग और बर्तन साफ करते हैं'
स्पष्ट है, उनके द्वारा यह मजाक मेरे मजे लेने के लिए किया गया था। अतः तब मैंने उन सब को इसका आनंद लेने दिया और स्वयं भी हँसने लगा था। यद्यपि इतनी बात ने मेरे लेखक मन में, इस आलेख का विचार उत्पन्न कर दिया था।
मुझे लगा कि यह मजाक हँसने की दृष्टि से तो बुरा नहीं है मगर यह कथन पिछली पीढ़ी के हम पुरुषों की मानसिकता का कटु सत्य भी दर्शाता है। यह मानसिकता, नारी के प्रति अन्याय एवं उनके परिवार में भूमिका को हीन दृष्टि से देखने वाली होती है। यह पुरुष मानसिकता, गृहस्थी में नारी के किए जाने वाले कार्य एवं योगदान को पुरुष के अपने कार्यकलापों की तुलना में कम महत्व का मानती है। मुझे लगता है मेरे मित्र ने इस बारे में गहनता से विचार किया होता तो वे इसमें हास्य का प्रसंग नहीं देखते। वे मेरे समतुल्य ही पढ़े लिखे हैं।
मैंने झाड़ू-बर्तन का काम कभी अपवाद रूप में ही किया है। सामान्यतः घर में यह काम रचना भी नहीं करतीं हैं। इसे हम सामर्थ्यवान व्यक्ति, वह अवसर मानते हैं, जिसके माध्यम से समाज में कुछ कमजोर परिवार के व्यक्तियों (विशेषकर स्त्रियों) की आजीविका चलती है।
मुझे स्मरण आता है जब मैं स्कूल में पढ़ता था, तब हमारे परिचितों में एक सरकारी अफसर (चाचा) का परिवार हुआ करता था। उसमें चाची तब के चलन में सहज, एक गृहिणी थी। उनकी 2 छोटी बेटियाँ एवं एक बेटा था। तब चाचा का भाई कॉलेज की पढ़ाई के लिए उनके साथ रहने आया था। वह कभी कभी अपने आँगन की झाड़ू लगाया करता था। इसे देखकर चाची की समाज में निंदा की जाती थी। लोग कहते - 'यह कैसी भाभी है, देवर से झाड़ू-कपड़े धुलवाने का काम करवाती है!'
वह समर्थ परिवार था, जिसमें नौकरानी लगी हुई थी। ऐसे में जब वह काम पर नहीं आई होती थी तब कभी यदि 20 वर्ष के देवर ने, घर के कुछ काम कर भी दिए होते थे तो इसमें बुराई क्या थी? लोग यह क्यों नहीं देखना चाहते थे कि वह भाभी अपने बच्चों की देखभाल, रसोई के काम तथा अन्य और बहुत से काम करते हुए, देवर का भरण-पोषण भी तो सुनिश्चित करती ही थीं।
वास्तव में यह अन्यायपूर्ण मानसिकता रही है, जिससे ग्रसित पुरुष, नारी को अपने से हीन मानकर, व्यवहार करता है। धन्य है अब की हमारी प्रगतिशील पीढ़ी जिसने इस पुरातन मानसिकता को बदलना आरंभ कर दिया है। आज जब पति-पत्नी दोनों ही जॉब/व्यवसाय कर रहे हैं, तब पति भी बराबरी से घर के काम करने लगे हैं। यह करते हुए ही वे अनुभव कर रहे हैं कि घर के कामों का महत्व, कहीं भी अन्य कार्यों की तुलना में कम नहीं है।
मुझे लगता है हम पिछली पीढ़ी के पुरुष इस पर गहनता से विचार अवश्य करें। हम अपनी मानसिकता में परिवर्तन करते हुए नारी को एवं नारी के योगदानों को अपने से श्रेष्ठ नहीं मान पाएं तो भी, कम से कम बराबर के महत्व का तो समझें। अगर वे ऐसा कर पाएं तो भले ही ऐसे काम स्वयं ना करें (यह बहुत से कमजोर परिवार की आजीविका का माध्यम होने से) तो भी यह उनका बड़ी भूल सुधार करना होगा और उन्हें आधुनिक और न्यायप्रिय व्यक्ति बना सकेगा।