महाकुंभ में स्नान - आस्था और श्रद्धा का परिचायक
महाकुंभ में स्नान - आस्था और श्रद्धा का परिचायक


हमारी कम्युनिटी में रहने वाले ‘योगा चैतन्य’, आई आई टी मुंबई से शिक्षित एक उत्कृष्ट, योग्य इंजीनियर हैं। अपने संस्कारों से वे विनम्र और मिलनसार व्यक्ति हैं। भारत की श्रेष्ठ संस्था से शिक्षा प्राप्त करने के बाद भी उनके व्यवहार में, कहीं वह व्यर्थ दंभ देखने नहीं मिलता, जिससे किसी को उनके साथ में होने पर हीनता अनुभव होती है।
वे मेरे साथ प्रातः काल में नियमित टीटी खेलते हैं। कुछ दिनों तक अनुपस्थिति के बाद जब वे वापस खेलने आए तब मैंने उनसे पूछा, “पिछले दिनों आप क्यों खेलने नहीं आ रहे थे?”
“मैं महाकुंभ में स्नान करने गया था”, उनके इस उत्तर ने मुझे थोड़ा अचंभित कर दिया था।
मैं सोच रहा था, वे अभी युवा हैं और उच्च शिक्षित हैं। मेरा मानना है कि ऐसी उच्च शिक्षित हमारी नई पीढ़ियों का, प्राचीन समय से चली आ रही, अपने पूर्वजों की मान्यताओं एवं समाज संस्कृति के प्रति आस्था और विश्वास तेजी से घट जा रहा है।
मैंने तभी उनसे प्रयागराज की उनकी यात्रा के विषय में जानकारी लेने और उस पर आलेख लिखने का विचार कर लिया था। इसी आशय से आज सुबह मेरी उनसे संक्षिप्त चर्चा हुई।
योगा, सपत्नीक अपनी माँ, सासु माँ एवं सात वर्षीया बेटी (पाँच सदस्य) को साथ लेकर हैदराबाद से 10.30 की फ्लाइट से काशी के लिए रवाना हुए थे।
श्रद्धालुओं की अत्यधिक भीड़ होने के कारण, वे काशी में विश्राम के लिए एक साधारण होटल की व्यवस्था कर पाए थे। 2500 रुपए की दर से उन्होंने दो कक्ष लिए थे। वे सभी “वन्दे भारत” से डेढ़ घंटे की यात्रा के बाद प्रयागराज स्टेशन पहुँचे थे। स्टेशन से महाकुंभ स्थल, जहाँ उन्हें गंगा स्नान करना था, वह 6 किमी दूर था। वहाँ जाने के लिए उन्हें ऑटो रिक्शा मिला था। जहाँ तक वाहन ले जाने की प्रशासनिक अनुमति थी, ऑटो ने उन्हें वहाँ उतारा था। अब उन्हें 3 किमी तक पैदल चलना था।
पैदल चलकर वे सभी रात्रि 7 बजे तय स्थल तक पहुँचे थे। उस स्थान पर एक ओर गंगा जी और एक और यमुना जी बहती हैं (तथा सरस्वती नदी अदृश्य बहती मानी जाती है) और आगे उनका संगम होता है।
योगा ने बताया दोनों ऐतिहासिक पावन नदियों के प्रवाह और जल का रंग अलग अलग स्पष्ट दिखाई देता है। वहाँ 8.30 बजे (डेढ़ घंटे) तक रहकर, 7 डिग्री सेल्सियस की ठंड में, योगा एवं उनके परिवार ने आस्था की डुबकी लगाते हुए गंगा स्नान किया था।
उनकी वापसी की “वन्दे भारत” रात्रि 11 बजे थी। अतः संगम स्थल पर इससे अधिक देर तक रुकना संभव नहीं था। खचाखच भरे संगम स्थल, सड़क एवं स्टेशनों पर उन्हें कहीं भी परिवार की सुरक्षा को लेकर कोई चिंता नहीं हुई थी। वहाँ उपस्थित सभी श्रद्धालु पुण्य लाभ अर्जित करने आए थे। वे सभी अनुशासित थे और एक दूसरे की सुव
िधाओं का ध्यान रखते हुए सहयोग करते मिले थे।
रात्रि वे सभी 3 बजे काशी लौटे थे। ‘योगा’ के परिजनों के मन में श्रद्धा और आस्था की भावना, ऐसी थी कि बिना विश्राम किए हुए भी वे प्रातः 4 बजे ‘काशी दर्शन’ का पुण्य भी अर्जित कर लेना चाहते थे। भीड़ की अधिकता और वापसी की फ्लाइट का समय देखते हुए, योगा को ‘काशी दर्शन’ का विचार अगली यात्रा के लिए स्थगित करना पड़ा था।
महाकुंभ में स्नान कर लेने की प्रसन्नता और संतोष भाव धारण करके, वे सभी एक दिन की संक्षिप्त यात्रा के बाद सकुशल हैदराबाद लौट आए थे।
उनके श्री मुख से उनकी यात्रा का यह अनुभव मुझे सुनने का अवसर मिला है।
इसका वर्णन करते हुए मेरे मन में विचारों की एक श्रृंखला चल रही है। उसमें से कुछ का उल्लेख मुझे इस आलेख के औचित्य को सिद्ध करने वाला लग रहा है।
वास्तव में मनुष्य के लिए लौकिक ज्ञान का अपना एक महत्व तो होता ही है, तथापि अपनी परंपरा, संस्कृति, आस्था एवं श्रद्धा का महत्व भी कम नहीं होता है।
चाहे हम विज्ञान, गणित या आधुनिक शिक्षा में कितने भी पारंगत हो जाएं, हमारी ‘आत्मिक यात्रा’ के रहस्य - हम कैसे और क्यों जन्म ले लेते हैं और जीवन से पहले और बाद में हमारा अस्तित्व, अनुत्तरित ही रहते हैं।
लिखने का आशय यह है कि ‘योगा’ के तरह के श्रेष्ठ इंजीनियर होने के बाद भी हमें अपनी संस्कारों से मिले, श्रद्धा और मान्यताओं के पालन करने में पीछे नहीं रहना चाहिए। विशेषकर उन आस्थाओं और विश्वास को हमें अपने जीवन में स्थान अवश्य देना चाहिए, जिनको अपने कर्म और आचरण में अंगीकार करने से हम किसी का कुछ अहित नहीं करते हैं।
मुझे लगता है योगा ने अपनी सुविधा का लोभ त्याग करते हुए उल्लेखित महाकुंभ में स्नान करके महान पुण्य अर्जित किया है। इस अर्जित पुण्य के फल के दो अवयव हैं, एक अप्रत्यक्ष और दूसरा प्रत्यक्ष।
पुण्य के अप्रत्यक्ष फल तो हमारे धर्म ग्रंथ/शास्त्र, वेद आदि में वर्णित हैं। मैं ‘योगा’ को मिलने वाले प्रत्यक्ष फल की कल्पना अवश्य कर पा रहा हूँ।
योगा ने महाकुंभ स्नान से अपनी माँ एवं सासु माँ के प्रति अपने कर्तव्यों में से महत्वपूर्ण एक कर्तव्य, ‘उनके लिए तीर्थयात्रा सुगम करने का’, पालन करने का संतोष अर्जित किया है।
उन्होंने अपनी पत्नी के लिए स्वयं एक सुयोग्य जीवनसाथी बनने का प्रमाण दिया है।
साथ ही उन्होंने अपनी बेटी में वह संस्कार सुनिश्चित किया है, जो उनके पूर्वज अपनी हर आगामी पीढ़ी को प्रदान करते आए हैं।
योगा की तीर्थयात्रा उनके ज्ञान, विश्वास, परिवार और आध्यात्मिकता के बीच सुंदर सामंजस्य की पुष्टि थी।