STORYMIRROR

Rajesh Chandrani Madanlal Jain

Tragedy

4  

Rajesh Chandrani Madanlal Jain

Tragedy

पहलगाम त्रासदी

पहलगाम त्रासदी

14 mins
321


“बेटा, और लड़के जैसा खेलते, घूमते और बाहर खाने-पीने का आनंद उठाते हैं, तुम भी तो वैसा कुछ कर लिया करो। हर समय पढ़ने-लिखने में लगे रहते हो” ममता से भरी माँ कह रही थीं। उन्हें अपने बेटे की 15 वर्ष की लड़कपन की आयु में मनोरंजन के प्रति रुचि न होने से चिंता होती थी। 

“माँ मुझे पहले इंजीनियर बन लेने दो। जब मैं नेवी में लेफ्टिनेंट बन जाऊँगा तब मैं वह सब भी कर लिया करूँगा, जिससे आपको प्रसन्नता मिलती है”, आयुष माँ के लाड़-प्यार और भावनाओं को समझ तो रहा था मगर वह अपने लक्ष्य के प्रति गंभीर था। 

आयुष जानता था, अपने सपने को साकार करने के लिए उसे जेईई में अच्छी रैंक लानी ही होगी। इससे उसके नेवी में चयनित होने की संभावना बनेगी एवं उसे राष्ट्र सेवा कर पाने का गौरव मिल सकेगा। 

माँ जानती थीं आयुष उनके कहने पर भी घर-स्कूल के अतिरिक्त अपने मनोरंजन के लिए कहीं बाहर नहीं जाने वाला है। उन्हें कभी कभी चिंता होती, आयुष दूसरे लड़कों से अलग क्यों है! कहीं उनका इकलौता बेटा असामान्य तो नहीं है! पास पड़ोस के लड़के इस उम्र में लड़कियों को प्रभावित करने के लिए तरह तरह के प्रपंच रचते हैं, आयुष इस ओर से भी उदासीन क्यों रहता है! 

चिंतित माँ ने एक रात, आयुष के पिता से इसे आयुष की शिकायत के रूप में कहा था। 

अश्विनी (आयुष के पापा) ने उन्हें समझाते हुए कहा था, “आप अच्छी बात को भी शिकायत के रूप में क्यों कहती हो! दूसरे लड़के डाँटने/टोकने पर भी पढ़ने के प्रति सीरियस नहीं होते हैं। आयुष बिना कहे ही पढ़ता रहता है, यह अच्छी ही तो बात है। हमारा हट्टा कट्टा, लंबा बेटा बिलकुल भी असामान्य नहीं है। गर्व करो वह विलक्षण लड़का है। एक दिन वह हमारा नाम बढ़ाएगा”

बेटे के सुख को लेकर करुणा से भरी माँ का मन, अपने पतिदेव की बात पर विश्वास करने को होता किन्तु उनके मन में एक भय सा भी बना रहता, ‘अपने लाड़ले बेटे को जीवन आनंद से सरोबार देखने का अवसर उन्हें कब मिलेगा, क्या यह कभी यथार्थ हो सकेगा!’

फिर वह दिन आया जब अश्विनी ने आयुष को आगे की पढ़ाई और कोचिंग के लिए दिल्ली भेज दिया था। इसके बाद से वह कभी कभी ही घर आता था। हर बार माँ को लगता, आयुष दुबला हो गया है। वे उसे बड़े लाड़ से उसे प्रिय लगते भोज्य बना बना कर खिलातीं थीं। 

समय बीता था। आयुष जेईई में अच्छी रैंक लाने में सफल हुआ था। आगे की पढ़ाई के लिए भी वह घर से बाहर ही रहता था। माँ को लगता उनके पति सही कहते रहे हैं। अभी आयुष ने पढ़ने के समय में ही ऐसा कर दिखलाया है, जिससे पड़ोसी, सगे-संबंधी सभी उसके गुणगान करते नहीं थकते और आयुष के साथ ही उनके अच्छे लालन-पालन की प्रशंसा करते हुए, उन्हें तथा अश्विनी जी को बधाई देते रहते हैं। 

एक दिन आयुष का कॉल आया था। उन्हें, वह आज के पहले इतना प्रसन्न, प्रफुल्लित हुआ कभी नहीं लगा था। वह कह रहा था, “माँ मुझे आशीर्वाद दीजिए, यह शुभ सूचना मैं सबसे पहले आपको ही बता रहा हूँ। ‘मेरा नेवी में चयन हो गया है’”

“बेटा तुम घर आ जाओ। मैं तुम्हारी इस सफलता पर सबको पार्टी देना चाहती हूँ। और हाँ सुनो, तुम डाँस करना भी सीख के आना। मैं दूसरे लड़कों के जैसे तुम्हें भी डाँस करता देखना चाहती हूँ”, माँ, अपने बेटे की प्रसन्नता में स्वयं भी हर्ष से भर गईं थीं। उनकी प्रसन्नता उनकी वाणी में छलक आई थी। 

उनका इस तरह प्रसन्न होना, टीवी देख रहे पति अश्विनी के लिए भी सुखद आश्चर्य का विषय हुआ था। उन्होंने पूछा था, “क्या बात है आयुष की माँ, मुझे भी तो बताओ”

उन्होंने पति को उत्तर नहीं दिया, कॉल पर बेटे से ही कहा, “लो बेटा, अपने पापा को भी तुम्हीं यह सब बताओ”, कहते हुए उन्होंने मोबाइल का स्पीकर ऑन कर दिया था।  

“माँ रुको तो, आपने अभी मुझे आशीर्वाद तो दिया नहीं है”, आयुष कह रहा था। 

बेटा ‘जुग जुग जियो, जीवन में हर तुम्हारी चाही, उपलब्धि तुम अवश्य अर्जित करो’, मेरे हृदय में तुम्हारे लिए आशीर्वाद के भाव तो सदैव रहते हैं। मुझसे यह शब्दों में कहते भी तो नहीं बनते हैं”, उन्होंने हँसते हुए कहा था। 

दूसरी ओर से आयुष के स्वर में उल्लास भरा हुआ था, “माँ मैंने आपके आशीर्वचन को हजार से गुणा करके पूरा समझ लिया है”

तभी अश्विनी ने मोबाइल उनके हाथ से ले लिया था। वे कह रहे थे, “आयुष अपनी माँ से गणित की भाषा में बात नहीं किया करो। इनको गणित की इतनी समझ ही कहाँ है”

वे इस प्यार भरे कटाक्ष से थोड़ी लजाई थीं मगर उनकी प्रसन्नता का ठिकाना नहीं था। 

आयुष के बताने पर, पतिदेव अश्विनी कह रहे थे, “बेटे आयुष मैं तो अब पूरे हरियाणा में अपना सीना चौड़ा कर के घूमा करूँगा। तुमने हरियाणा की माटी की परंपरा निभाई है। अब तुम्हें भी भारत माता की सेवा करने का गौरवशाली दायित्व निभाने का अवसर मिलेगा”

“जी पापा”, आयुष अपने पेरेंट्स की प्रसन्नता अनुभव कर रहा था।  

“बेटा आयुष अपने विवाह के लिए लड़की मुझे चुनने देना। तुम तो भोलेभाले लड़के रहे हो। देखना तुम्हारे लिए मैं सबसे अच्छी लड़की चुन के लाऊँगी”, उनको अपने बेटे के जीवन में किसी लड़की के प्रेम की रिक्तता का बोध हो रहा था। 

उन्हें लग रहा था, अब बेटे को शीघ्र विवाह कर लेना चाहिए। आयुष के पापा तो 21 के हुए थे तब ही उनका विवाह हो गया था। वे स्मरण कर रहीं थीं, अश्विनी कैसे उनसे प्रेम करने को लालायित रहा करते थे। आयुष तो अब 23 का हो गया है। उसकी भी तो आवश्यकता अपने पापा जैसी ही हो गई होगी। 

“माँ आप जो लड़की चुनोगी, मैं उसी से विवाह करूँगा। इस बारे में मुझे कोई समझ नहीं है”, आयुष ने विवाह को लेकर सहमति दे दी थी। 

फिर तो माँ ने मन ही मन लड़कियों परखना आरंभ कर दिया था। इस बीच आयुष ने प्रशिक्षण पूरा किया और उसको कोच्चि में पदस्थ किया गया था। 

माँ ने अपने दूर के रिश्ते की गुरुग्राम में रह रही लड़की सुनयना, आयुष के लिए योग्य लगी थी। उनके कहने पर आयुष ने सुनयना से भेंट की थी। 

सुनयना को आश्चर्य हुआ था, नेवी में अफसर, स्मार्ट और ऊँचा पूरा नवयुवक आयुष, प्रेम के विषय में बिलकुल अनाड़ी था। सुनयना ने निश्चय कर लिया, वह आयुष की समर्पिता होकर उसके तन-मन में प्रेम का संचार करेगी। 

आयुष की माँ विवाह के पहले एक बार अकेली ही गुरुग्राम में सुनयना की माँ से मिलने आई थी। तब सुनयना के सामने ही बता रही थीं, “मेरा आयुष प्रेम के विषय में एकदम कोरा है। वह हमेशा पढ़ने और अपने दायित्वों के प्रति गंभीर रहा है। उसे प्रेम का पाठ तो आयुष की दुल्हन को ही पढ़ाना होगा”

अपनी सासु माँ के शब्दों से सुनयना लजा गई थी। उसने कहा नहीं मगर निश्चय किया था, ‘अपने हीरो अपने पतिदेव पर वह प्रेम की ऐसी वर्षा करेगी, जिसमें सराबोर होकर वह प्रेम करना सीख ही जाएंगे’  

आयुष विवाह के पूर्व सुनयना से 3 बार मिला था। उसने अनुभव किया, उसके लिए उसकी माँ ने दुनिया की सबसे अच्छी लड़की चुनी थी। 

अप्रेल के दूसरे पखवाड़े में आयुष एवं सुनयना का विवाह होना तय किया गया था। विवाह के पूर्व ही आयुष एवं सुनयना ने हनीमून के विषय में चर्चा की थी। 

सुनयना चाहती थी, वे दोनों हनीमून दक्षिण अफ्रीका में मनाएं। आयुष ने कहा था, “क्यों न हम कश्मीर चलें?”

सुनयना ने कहा, “निस्संदेह कश्मीर बेस्ट प्लेस है मगर वहाँ आतंकवादियों का खतरा रहता है”

आयुष हँसने लगा था। 

“सुनयना आप अब भी इतिहास में ही जी रही लगती हो। अब वहाँ ऐसा कोई खतरा नहीं होता है। साथ ही आप यह भी नहीं भूलो कि आप एक नौसेना अधिकारी की परिणीता होने जा रही हो। आप पर किसी भी खतरे के मार्ग में यह लेफ्टिनेंट दीवार बन कर हमेशा खड़ा मिलेगा”, आयुष ने सुनयना का साहस बढ़ाने के लिए कहा था। 

सुनयना ने अनमने ही स्वीकृति देते हुए कहा था, “चलिए आप कहते हैं तो हमसे आजीविका कमाने का अवसर हम अपने कश्मीरी भारतीय नागरिकों को दे देते हैं”

स्पष्ट था उसने अपनी निज अभिलाषाओं पर, देश में पर्यटन को बढ़ावा देने की भावना को प्रमुखता दे दी थी।      

निर्धारित शुभ मुहूर्त पर, अग्नि के समक्ष सात वचनों के पालन करते हुए जीवन भर का साथ निभाने के भाव से फेरे लेकर सुनयना और आयुष परिणय सूत्र में बंध गए थे। दोनों परिवारों में विवाह पर विभिन्न रस्में एवं परंपराएं यथा रीति संपन्न की गईं थीं। आयुष और सुनयना, परस्पर दोनों ही स्वयं को दुनिया का सर्वाधिक सौभाग्यशाली व्यक्ति मान रहे थे। दोनों परस्पर दावा कर रहे थे कि ‘मैं आपसे भी अधिक भाग्यशाली हूँ जो मुझे सर्वश्रेष्ठ जीवनसाथी मिला है’ 

पिछली कई रातों से दोनों कम ही सो पाए थे। तब भी पूर्वनियोजित श्रीनगर की फ्लाइट उन्हें लेनी ही थी, जो सुनयना के पगफेरा रस्म होने के बाद 21 अप्रैल को बुक की गई थी। 

विमान के टेक ऑफ करते ही दोनों निद्रा मग्न हो गए थे। स्वयं निद्रा के प्रभाव में होते हुए भी आयुष ने समझा लिया था, झपकी ले रही सुनयना का सिर कभी विंडो तो कभी सामने सीट की बैक से टकरा रहा है। आयुष ने अपनी बाँहों का सपोर्ट देते हुए सुनयना के सिर को अपनी गोदी में रख लिया था। 

नवयुगल जोड़े का ऐसा निद्रामग्न होना, विमान की परिचारिकाओं को बड़ा मन भावन लग रहा था। वे अपनी ड्यूटी करते हुए उनके पास से आते जाते हुए, उन्हें प्यार से देखतीं और स्वमेव उनके मुख पर चित्ताकर्षक मुस्कान आ जाती थी।  

श्रीनगर एयरपोर्ट पर सभी विमान यात्री उतर चुके थे। तब भी आयुष और सुनयना निद्रामग्न ही रहे थे। हँसते हुए परिचारिकाओं ने उन्हें उठाया था और कहा था, “आपका हनीमून मंगलकारी हो”

इस सब में आयुष तो सहज रहा था मगर सुनयना के मुख पर लाज की लालिमा आ गई थी। उसने सभी परिचारिकाओं का लजीली मुस्कराहट सहित आभार जताया था। फिर विमान से उतरते हुए ही कश्मीर की शीतल हवाओं ने दोनों का मन मोह लिया था। 

21 अप्रैल की संध्या के समय सुनयना एवं आयुष परस्पर हाथ में हाथ लिए, श्रीनगर के दर्शनीय स्थलों एवं बाजार में भ्रमण करते रहे थे। 

राज बाग घूमते हुए सुनयना को कश्मीरी स्मृति चिन्ह लेने का विचार आया था। उसने नक्काशी किए चांदी के बर्तन, आयुष की एवं अपनी माँ के साथ ही अपने पतिदेव के कोच्चि स्थित निवासों की सजावट की दृष्टि से लिए थे। आयुष यह देख कर प्रसन्न हुआ था कि सुनयना ने क्रय किया सबसे महँगा सेट, अपने ससुराल के करनाल निवास के लिए तय किया था। 

अगले दिन उन्हें पहलगाम के बैसरन का भ्रमण करना था। अतः दोनों ने जल्दी सो जाना तय किया था। प्रातःकाल 5 बजे उनकी नींद पूरी नहीं हुई थी। फिर भी पहलगाम के नयनाभिराम सौंदर्य दर्शन के आकर्षण में दोनों परस्पर सहयोग करते हुए तैयार हुए थे। उन्होंने पहलगाम तक टैक्सी ली थी। फिर वे पैदल और घोड़े की सवारी करते हुए दो घंटे में बैसरन पहुँचे थे। वहाँ उपस्थित देशी-विदेशी पर्यटकों के उल्लास और चारों ओर की प्राकृतिक छटाओं ने दोनों के हृदय में उमंग की तरंग उत्पन्न कर दी थी। 

भोज्य सामग्रियों के लगे स्टॉलों पर उन्होंने एक दूसरे को खिलाते हुए हँसी ठिठोली की थी। सुनयना ने वहाँ कुछ जोड़ों को थिरकते देखा तो उसका मन हुआ था, वह भी आयुष के साथ डांस करे। उसकी इच्छा का सम्मान करते हुए, आयुष ने मोबाइल पर हरियाणवी लोक गीत ‘हो गोरिए ……. गोली चल जावगी’ लगा दिया था। फिर दोनों उस पर तन्मयता से थिरकते रहे थे। उनके नृत्य ने अन्य कुछ पर्यटकों का ध्यान आकृष्ट किया था। जो उनके आसपास दर्शक बन खड़े हुए और ताली बजाते हुए स्वयं भी झूमने लगे थे। 

वहाँ उपस्थित सभी पर्यटक अपरिचित थे मगर सबमें एक समानता थी। सब इस मनोरम स्थल में अपने भ्रमण को अविस्मरणीय बना लेना चाहते थे। सभी ऐसा अनुभव कर रहे थे जैसे वे किसी अन्य लोक में आ गए हैं। आयुष और सुनयना दोनों ने नृत्य के साथ ही एक दूसरे के सानिध्य का पर्याप्त सुख भी लिया था। 

फिर दोनों ही भूमि पर पास पास लेट गए और आकाश, पहाड़ों एवं वृक्षों को निहारते हुए अपने हृदय में एक दूसरे के प्रति प्रेम को अभिव्यक्त करने वाली बात करने में व्यस्त हो गए थे। 

अचानक तभी उन्हें कुछ दूरी पर गोली चलने और किसी की चीखने की आवाज सुनाई दी थी। चौकन्ने होकर दोनों उठ बैठे थे। उन्होंने देखा कुछ दूरी पर एक युवक धरती पर पड़ा हुआ था और उसकी पत्नी बिलख बिलख कर रो रही थी। वह बंदूकधारी से याचना कर रही थी, “तुम मुझे भी मार डालो। मैं अपने पति के बिना जी नहीं पाऊँगी” 

यह दृश्य हृदय विदारक था। आयुष और सुनयना दोनों समझ गए थे, यहाँ मजहबी यमराज आ पहुँचे हैं। भय अतिरेक से सिमट कर सुनयना, आयुष की बाँहों में समा गई थी। उसे लगा था, नौसेना अधिकारी उसका दूल्हा ही उसका रक्षक हो सकता है। 

आयुष सोच रहा था, निहत्थे होकर वह अपनी नववधू की प्राण रक्षा कैसे कर पाएगा। तभी अत्याधुनिक गनों से लेस होकर आए चार मजहबी यमराजों ने, दूसरे पर्यटकों के धर्म की पूछताछ करते हुए, तथाकथित काफिर की पहचान करते हुए, उन्हें मारना शुरू कर दिया था। 

दूर तक फैले इस मैदान में छुपकर बचने का कहीं कोई स्थान नहीं था। तब एक बंदूकधारी गन ताने हुए आयुष के सामने आ गया था। वह चिल्ला कर पूछ रहा था, “तुझे कलमा पढ़ना आता है तो बोल कर सुना”

आयुष को चुप देखकर, सुनयना गिड़गिड़ाई, “हम मुस्लिम नहीं हैं”, वह झूठ नहीं कह पाई थी। 

“तो चल तू अलग हट जा, यह काफिर इस कश्मीर रुपी जन्नत में रहने के काबिल नहीं है। मैं इसे अभी जहन्नुम पहुँचा देता हूँ”, वह धमकाते हुए, गन हिलाते हुए सुनयना को अलग हटने का इशारा कर रहा था। 

आयुष स्तब्ध और चुप था। वह समझ गया था, इस कायर के सामने कोई भी याचना निष्फल ही रहने वाली है। सुनयना जो अब तक आयुष की बाँहों में सिमटी और छुप रही थी, अचानक साहसी हो गई थी। वह अपने सप्ताह भर पूर्व ही हुए पतिदेव को कैसे खो सकती थी!

वह सती सावित्री की तरह निडर हो गई थी। वह आयुष के सामने खड़ी होकर उसे, मनुष्य वेश में सामने खड़े इस मजहबी यमराज से बचा लेना चाहती थी। 

“ठीक है, आप मारना ही चाहते हैं तो पहले मुझे मार दो। मैं भी तो एक काफिर ही हूँ”, उसकी पथराई दृष्टि उस जल्लाद पर केंद्रित थी। उसे अभी भी थोड़ी आशा थी, यह आदमी उसकी याचना से पिघल जाएगा। उसके सुहाग को यूँ उससे जुदा नहीं करेगा। 

तब आयुष सुनयना के सामने आने का प्रयास कर रहा था। वह उस दुष्ट के सामने दीवार बन जाना चाहता था। वह अपनी ब्याहता को उसकी गोली ही नहीं, उसकी बुरी दृष्टि से भी बचा लेना चाहता था। 

अगर यह यमराज होता तो शायद, पति-पत्नी में पहले मरने की इस होड़ को, देखकर पिघल भी जाता। वह मजहबी जल्लाद था। 

जैसा शायद वह अपनी औरतों के साथ करता था, उसने वैसा ही किया था। उसने सुनयना को जोर से लात मारी थी। उसके प्रहार से सुनयना छिटक कर धराशाई हो गई थी। जब तक वह सम्हल पाती उसके पूर्व ही एक फायर की आवाज गूँजी थी। सुनयना का वीर नायक निहत्था था। वह आत्मरक्षा करने में विफल रह गया था। वह छटपटाते हुए भूमि पर बिछ गया था। पहलगाम की सौंदर्य से सजी वह भूमि रक्तरंजित हुई थी। 

सुनयना, आयुष की ओर लपकी थी। जल्लाद की चलाई गोली आयुष के माथे पर लगी थी। 

जल्लाद ने एक बार फिर अपनी लात सुनयना को मारी थी। वह कह रहा था, “जा तुझे छोड़ रहा हूँ। अब तू अल्लाह के किसी बंदे की दूसरी या तीसरी बीवी बन जाना, अन्यथा अगली बार मैं तुझे भी जिन्दा नहीं छोड़ूँगा”  

स्तब्ध सुनयना, आयुष के सीने पर सिर रखकर बिलखने लगी थी। आसपास और गोलियाँ चल रही थीं। वहाँ मचा मौत का तांडव और शोर पर उसका ध्यान नहीं रहा था। 

सुनयना पथराई आँखों से शून्य में निहारते हुए सोच रही थी -

क्या अग्नि को साक्षी करके, साथ लिए गए सात वचनों में इतनी ही शक्ति थी, उसका सुहाग सात दिन में ही उजड़ गया था। ‘शुभ मुहूर्त’ पर हुआ विवाह भी फलदायी नहीं हुआ था। विवाह पर उपस्थित सभी शुभेच्छु सगे-संबंधियों एवं परिचितों के आशीर्वाद और शुभकामनाओं में शक्ति नहीं थी। ‘हनीमून मंगलकारी हो’, विमान परिचारिकाओं की शुभकामना भी काम नहीं आई थी। 

सुनयना स्वयं से बतियाते हुए सभी प्रश्नों के उत्तर देने लगी थी -

“शुभ मुहूर्त भी फलदायी होता है। सात वचनों में भी विलक्षण शक्ति होती है। आशीर्वाद और शुभकामनाएं भी मंगल करती हैं। मगर यह कश्मीर का सौंदर्य ही विषैला है। यहाँ की विषैली प्रकृति में कुछ मनुष्य, मनुष्य नहीं जल्लाद हो गए हैं। ऐसे जल्लाद अपने लिए हूर की कल्पनाओं में खोकर अंधे हो गए हैं। उन्हें विवाहिताओं/नवविवाहिताओं के सिंदूर पोछ देने का कारनामा, अपने लिए जन्नत का प्रबंध लगता है। काश आयुष ने मेरी मानी होती। अभी तो मेरे द्वारा आयुष को सिखाया जा रहा प्रेम का पाठ आरंभ ही हुआ था। हम मधुमास के लिए दक्षिण अफ्रीका गए होते तो अपनी सासु माँ के चाहे अनुसार, मैं अपने वीर मगर भोले से नायक को अपने प्रेम में वशीभूत करके, उन्हें भी प्रेम में पारंगत तो कर पाती। व्यर्थ था हमारा कश्मीर के पर्यटन को मजबूत करने का विचार। व्यर्थ है कश्मीर की प्राकृतिक छटाएं यह निर्दोषों के जीवन को नहीं उनकी मौत को पुष्ट करती हैं” 

अब सुनयना की इच्छा हो रही थी, वह राज बाग से क्रय की गई स्मृति चिन्ह को ठीक वैसी लात मारे जैसी आयुष के हत्यारे उस जल्लाद ने उसे मारी थी। 

अंत में वह विक्षिप्त जैसी चिल्ला कर कहने लगी थी - 

“सुनो जल्लादों तुम जहन्नुम को जन्नत समझ रहे हो। तुम मेरी जैसी परिणीताओं का सुहाग उजाड़ कर और उसे लतिया कर जहाँ जाने वाले हो, वह सिर्फ और सिर्फ जहन्नुम ही होगी। हमारी भारतीय सेना तुम्हें शीघ्र और निश्चित ही जहन्नुम पहुंचाएगी”

फिर वह आयुष के शव के पास मौन बैठ गई थी। अपने आँसू पोंछते हुए, वह पछतावा करते हुए सोच रही थी, ‘उन्होंने क्यों परिवार नियोजन के साधन का प्रयोग किया था। अगर ऐसा नहीं किया होता तो शायद उसके हीरो, उसके आयुष की, एक निशानी उसके गर्भ में आ जाने की संभावना तो रहती’ 

(एक कपोल कल्पित कथा)


ಈ ವಿಷಯವನ್ನು ರೇಟ್ ಮಾಡಿ
ಲಾಗ್ ಇನ್ ಮಾಡಿ

Similar hindi story from Tragedy