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Minni Mishra

Abstract

4  

Minni Mishra

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*हार की जीत *

*हार की जीत *

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“ ये तो अच्छा हुआ, कुंवारा ही जा रहा हूँ। वरना बीबी, बच्चों की फिकर वहाँ भी मुझे चैन से रहने नहीं देता। पर, जाते-जाते आभा को नहीं देख पाया ! एकबार जी भर देख लेता ! पता नहीं, उसकी शादी हुई... या ....? ” मैं अपने विचारों में अभी मग्न था कि एकाएक ठहाके की गूंज ने मुझे चौंका दिया।

ओह! श्मशान में ठहाका !?

जब घर से मुझे यहाँ उठाकर लाया जा रहा था , सभी विलाप कर रहे थे। यहाँ पहुँचते-पहुँचते... देखो, सबके मूड फ्रेश हो गए। अरे, मैं भी बड़ा मूरख हूँ ! यह तो ख़ुशी की बात है , संसार से विदा होते वक्त, सब के सब खुश दिख रहे हैं। जो विलखते (माता-पिता ) वो पहले ही मर गये ! कितना भाग्यशाली हूँ मैं, वंश में मेरे लिए रोने वाला अब कोई नहीं रहा !

इतने में कुछ लोग एक महिला का शव लेकर मेरे निकट पहुँचे। खुसुर-फुसुर की आवाज सुनाई पड़ने लगी।एक महिला उसी भीड़ में बोल रही थी, ”कुएं के पास पानी की लंबी लाइन लगी थी। मैं, जब वहाँ पहुंची , कुछ लोग इस युवती को अछोप (नीच) जाति का कहकर जबरन कुएं के चबूतरे से धकेल दिए| उसका सिर निचे पत्थर से टकराया .. तत्क्ष्ण वहीँ उसकी मौत हो गई !”

उसके चेहरे को देखने के लिए मेरा मन आतुर हो गया। जैसे ही उस पर नजर गई, दिल धक्क से रह गया। उसने भी अधखुली नजरों से मुझे देखी।

“ओह, आभा.. ! ये सब...कैसे..?” एक दबी सी चीख मुँह से निकला।

तभी एक कर्कश आवाज ... “ देर मत करो...सूर्यास्त होने वाला है। सुनाई पड़ी जल्दी से दाह-संस्कार शुरू करो।”  शायद, महा

पात्र की रही होगी।

आवाज सुनते ही आभा मुस्कुरा कर बोली , ”ईश्वर की महिमा अपरमपार है... आखिर हमदोनों को उसने मिला ही दिया !” ख़ुशी के मारे वर्षों की दबी पीड़ा उसके मुँह से एकएक कर बाहर आने लगे, ”मेरे चलते तुम्हें कई बार सभी के सामने जलील होना पड़ा। फिर भी समाज हमें परिणय सूत्र में बंधने नहीं दिया !

मेरी अम्मा इतनी नाराज हो गई... कि उसने मुझे तुम्हारे दूकान पर भेजना बंद कर दिया। जिससे घर में आर्थिक तंगी बढ़ गई। अम्मा के साथ मेरी किच-किच बढ़ गई। वह हमेशा फटकारती, “ बापू के गुजरते ही, पढ़ी-लिखी होने के कारण बापू के दूकान की नौकरी...मैंने तेरे नाम से करवा दी, ताकि घर में खाने के लाले ना पड़े ! पर, तूने उस ऊँचे जात वाले दुकानमालिक छोरे से दिल लगा बैठी। अरी...करमजली तुझे तो सब पता है, उनलोगों के घर हमारा पानी तक नहीं चलता। वे लोग बड़े खानदानी पंडित हैं...और संपन्न भी। हमें ज़िंदा दफन करने में उन्हें तनिक देर नहीं लगेगी। कितनी बार चेताया, बेटी, औकात के हिसाब से ख़्वाब देखाकर...! पर तूने तो सब सत्यानाश कर डाला।”

“ सुनो..आज हमारे दिल के सारे जख्म भर गये| अब हम, जात-पात, अमीरी-गरीबी के बंधन से मुक्त हो गये। भगवान ने हमारी हारी बाजी को जीत में बदल दिया। देखो उधर, असली घर जाने की सारी तैयारियां हो चुकी है। जल्द ही मिलेंगे हम, अपने असली घर में..एक पति-पत्नी की तरह। ”

देखते-देखते हमारी चिता दहक उठी। अब न कोई जात थी...न कोई धर्म। ऊपर उठता हुआ धुंआ शून्य में एकाकार हो चुका था।


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