फ़ितरत
फ़ितरत


बचपन में एक कहानी सुनी थी। किसी साधु और बिच्छू की थी। बिच्छू पानी में डूब रहा था और साधु उसे अपनी हथेली पर ले कर बचाने की कोशिश कर रहा था। जितनी बार भी वो उसे बचाने की कोशिश करता वो हर बार उसे हथेली पर काट लेता था और फिर से पानी में गिर जाता साधु फिर उसे बचाता वो फिर काट लेता। साधु से जब पूछा कि वो बार बार ऐसा क्यों कर रहा है तो साधु ने जवाब दिया कि बचाना मेरी फ़ितरत है और काटना इसकी, हम दोनों ही अपनी अपनी फ़ितरत से मजबूर हैं।
उस वक़्त ये शब्द समझ नहीं आया था ‘फ़ितरत’। आज अच्छी तरह समझ में आ गया कि क्या मतलब होता है इस शब्द का।
कुछ दिनों पुरानी बात है। करीब 4 महीने। एक प्यार भरा रिश्ता बहुत बुरी तरह खत्म हुआ था। मैं प्यार करती थी उससे। ख़याल रखती थी उसका। उसका सर दर्द भी मेरे लिये परेशानी का सबब बन जाता था। फिर एक दिन वो अचानक चला गया। मुझे रोते बिलखते हुए अकेला छोड़ कर। उस वक़्त तो लगा था कि ज़िंदगी खत्म हो जायेगी मेरी। कैसे जी पाउंगी उसके बगैर। दिन आँसुओं से शुरु हो कर आँसुओं पर ही खत्म हो जाया करता था। धीरे धीरे वक़्त बीतता चला गया। उसके लिये नाराज़गी भी कम हो गई और फिक्र भी। कभी कभी लगता था कि वो अकेला होगा अपने दिल की तकलीफ़ किससे कह पाता होगा पर वक़्त के साथ इस बात ने दिल में घर बना लिया कि अब वो मेरे पास लौट कर कभी नहीं आएगा।
लेकिन वो आया। मुझे बहुत अच्छा लगा। सच कहूँ तो हर दिन हर रात इसी इंतज़ार में बीत जाता था मेरा कि वो आयेगा और आया भी।
जब पहली बार बात की तो बहुत दुखी हुआ। बहुत रोया। उसके आँसुओं ने मेरे दिल की सारी कड़वाहट को धो दिया। पहले ही माफ़ कर चुकी थी उसे। शिकायत करने का तो कोई सवाल था ही नहीं और मैंने कोई शिकायत की भी नहीं।
अब गाहे बगाहे बात होने लगी हमारी। जो कुछ इस दरमिया हुआ सो उसने बताया जो मुझ पे बीती सो मैंने कह लिया। पर इस बार कुछ बातें बहुत अलग हो गई थीं।
मै बदल गई थी। मैंने उसे महसूस नहीं होने दिया पर हाँ मैं बदल गई थी। फिक्र थी पर उतनी नहीं, प्यार था पर उतना नहीं। कहीं ना कहीं मेरे मन में ये बात बैठी हुई थी कि पता नहीं कब वो फिर से चला जाए। मुझे फिर से अकेला रोता बिलखता छोड़ के। जितनी बार बात होती मैं खुद को कहती कि ये आखिरी बार है हो सकता है कि फिर ना मेरा फोन लगे ना वो मुझसे मिलने आये। उसके लाख अच्छे बर्ताव के बावजूद भी मैं वो सब नहीं भूल पा रही थी जो उसने किया था।
वो कहते हैं ना कि इंसान अपनी फ़ितरत कभी नहीं छोड़ पाता। कुछ वक़्त बीता ही था कि उसने वही रंग ढंग दिखाने शुरु कर दिये। मेरे लिये कौनसी नई बात थी ये सब तो पहले भी देखा था मैंने। पर इस बार कहानी अलग थी। उसकी बातों से परेशान होने के बजाय मैं उस बारे में सोच ही नहीं रही थी। निकल आई थी घर से, उस इंसान से मिलने के लिये जिसने मुझे इस स्थिति के लिये पहले से आगाह कर दिया था।
उसके घर के सामने पहुचते ही मैंने बैल बजाई।
“अरे तू... इस वक़्त, आ अंदर आ।” कहते हुए उसने दरवाज़ा खोल दिया।
दोपहर के 12 का वक़्त था। और ये किसी के घर जाने का वक़्त नहीं होता। उसे समझते देर नहीं लगी कि मैं किसी खास वजह के चलते आई हूँ।
“बता क्या कर के आई है?” जूस का ग्लास मुझे थमाते हुए उसने कहा।
“वही हुआ जो तूने कहा था।”
“फिर से?” कहते हुए वो ज़ोर से हंस पड़ी।
“कहा था ना तुझसे। लोग अपनी फ़ितरत कभी नहीं छोड़ सकते। जो जैसा होता है लाख छिपाने की कोशिश करे एक ना एक दिन असली रूप सामने आ ही जाता है। पर इस बार तुझे डरना नहीं है रोना नहीं है। भागना तो बिल्कुल नहीं है। जो भी हो सामना कर। मुझे पता है तू कर लेगी।” उसने पूरे विश्वास के साथ मुझसे कहा।।आख़िर और भी काम हैं ज़माने में मोहब्बत के सिवा।