Surendra kumar singh

Abstract

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Surendra kumar singh

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दूसरी सुबह

दूसरी सुबह

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पूरब में लाली झलकती है और सूर्य धीरे धीरे हमारी ओर आने लगता है,

अंधेरे में समरस हुयी चीजें अलग-अलग होने लगती हैं। क्या चीज कहाँ है दिखायी पड़ने लगती है। सुबह की चर्चायें खूब होती हैं। साहित्य में सुबह की चर्चा, जीवन में सुबह की चर्चा, प्रकृति में सुबह की चर्चा और उसके महत्व से हमारे ज्ञान का संसार भरा पड़ा है। किसी चीज का कोई रंग नहीं होता-वो तो सूरज है जो आकर परिवेश को विभिन्न रंगों में डालता है। चित्रकार है सूरज। प्रकृति सूरज की कलाकृति है। जब सूरज नहीं होता है-तो भी प्रकृति तो रहती है लेकिन उसके चित्र अंधेरे में डूब जाते हैं। कहा जा सकता है सूरज रोज रोज नये नये चित्र बनाता है।

 सुबह जागरण की प्रतीक भी है। सुबह होते ही लोग अपनी अपनी दिनचर्या में लग जाते हैं। हर आदमी की अपनी दिनचर्या होती है। सब अपनी दिनचर्या में दिन भर लगे रहते हैं। कोई भाषण देता है, कोई गाना गाता है। कोई खेत काटता है, तो कोई खेत में बुवाई करता है। कोई प्रवचन देता है तो कोई प्रवचन सुनता है। कोई आदेश देता है तो कोई उस आदेश का पालन करता है। कोई खेल खेलता है तो कोई खेलना सीखता है। कोई पढ़ता है तो कोई पढ़ाता है। कोई सपना देखता है तो कोई सपने को साकार करने की कोशिश करता है।

  आजकल तो व्यस्तताएँ बहुत हैं। व्यस्त तो आदमी है लेकिन लगता है सुबह व्यस्त है। सुबहें शाम में बदल रही हैं। लेकिन आदमी की व्यस्तताएँ कम नहीं होतीं। हर व्यस्त आदमी के भीतर एक आदमी ठहरा हुआ है। वो रहता तो है व्यस्त आदमी के साथ साथ लेकिन ठहरा हुआ है। सम्भव है वो कुछ सोच रहा हो। लेकिन वो चुप है और ठहरा हुआ है। अपने अंदर के ठहरे हुये आदमी से कोई बात भी नहीं करता है। जो उससे प्रेम करता है वह भी उससे बात नहीं करता। जो उससे नफरत करता है वो भी उससे बात नहीं करता। सच पूछिए तो कोई अपने से बात नहीं करता। सब लोग एक दूसरे से बात करते हैं। सब लोग दूसरों की बातें करते हैं। कोई अपनी बात नहीं करता। दूसरों की बातों में आदमी की खुद की बात खो गयी है। वो प्रवचन देता है दूसरे के लिये इसलिए खुद से बात नहीं करता। वो भाषण देता है दूसरे के लिये इसलिए खुद से बात नहीं कर पाता। प्रवचन देने के लिये भी होना चाहिये और भाषण देने के लिये भी होना होता है। इसलिये तो प्रवचन खूब हो रहे हैं और प्रवचन देने वाला नहीं है। भाषण खूब हो रहे हैं पर भाषण देने वाला नहीं है कोई। उसकी अनुपस्थिति इसलिए नहीं है कि वो है नहीं इसलिये है कि वो अपने को जानता नहीं है। इसलिये है कि वो अपने से बात नहीं कर पाता।

   गुरुमहाराज कहते हैं लोग जाग थोड़ी रहे हैं,सो रहे हैं। मंच पर बड़े बड़े भाषण दे रहे हैं पर सो रहे हैं। बहुत व्यस्त हैं पर जाग थोड़ी रहे हैं सो रहे हैं। सुबह से शाम तक आदमी अपनी व्यस्तताओं में सोया हुआ है। एक और सुबह चाहिये जो आदमी की जगा दे।

एक दूसरी सुबह चाहिये जब आदमी अपने बारे में सोचना शुरू करें। अपने बारे में का आशय उसी आदमी से है जो उसके अंदर ठहरा हुआ है, चुप है। पर ये दूसरी सुबह पहली सुबह से कितनी भिन्न है जब आदमी अपने बारे में सोच रहा है। वह उन समस्याओं के बारे में सोच रहा है जिनका निर्माण उसने खुद किया है। वो तो भाषण देने में इतना व्यस्त था कि खुद को भूल गया था। न वह अपना था न उसका भाषण अपना था। यह दूसरी सुबह भी अस्तित्व में है। इस दूसरी सुबह का अनुभव किया जा सकता है। यह ज्ञान वान की बात नहीं है अनुभव की बात है। यह अनुभव भी गोचर है। बिखरा हुआ है यत्र तत्र। कोई इस बिखरे हुये अनुभव को समेटने वाला होना चाहिये। कितनी दिलकश, दिलचस्प, और रोमांचक है ये दूसरी सुबह कोई इसका आनन्द उठाने वाला होना चाहिये।


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