बरगद की छाँव

बरगद की छाँव

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मेरे दादाजी लिखने पढ़ने के बहुत शौकीन थे, थे तो वे मैजिस्ट्रेट पर अब रिटायर हो चुके हैं, अब उनका सारा समय बागवानी और अच्छी अच्छी किताबें पढ़ने और कहानी कविताएं लिखने में निकल जाता है, लगता है मुझमे उन्ही की छाप है तभी मैं भी अपने कॉलेज की किताबों के बाद कहानी, कविता लिखने को ही ज्यादा तवज्जो देती हूँ, मुझे टी वी देखने मे भी रुचि नहींं।

मम्मी अक्सर कहती हैं "इसका तो सारा समय पढ़ने लिखने में ही निकल जाता है अरे कुछ घर का काम काज भी सीख ले कल को ससुराल जाएगी तो ये कविताएं काम ना आएंगी वहाँ क्या क्या क्या सीख कर आई हो पूछेंगे सब।"

और मैं हँस देती और दादाजी मेरा पक्ष लेकर कहते "अरे बहू लिखने दो न ये भी हर किसी के बस की बात नहींं।"

क्या बाबूजी आप भी इसी की साइड ले रहे हैं।"

खाना कोई भी बना सकता है पर कविता लिखना सबके बस की बात नहीं।"

देखना बहु मैं अपनी विरासत अपनी इस लेखिका पोती के नाम कर के जाऊंगा "

भाई रोहन मुझसे बहुत चिढ़ता की "दादाजी तो बस रचना दी को ही चाहते हैं, हम तो कुछ भी नहींं।"

रचना यानी मैं, मेरा नाम दादाजी ने ही रखा था वो हमेशा कहते रचना हर समय कुछ ना कुछ रचती है और एक दिन यह नया इतिहास रच जाएगी।

पापा भी सोचते कि दादाजी उसे बहुत सर चढ़ा रहे हैं।

मेरी रचनाओं को दादाजी दैनिक पत्र पत्रिकाओं में छापने भेजते, धीरे धीरे लोग मुझे जानने लगे। दादाजी के सौजन्य से मेरी कुछ किताबें भी प्रकाशित हो गईं, मेरी खुशी का ठिकाना न था, दादाजी ने मुझे कितना आगे पहुंचा दिया था।

मैं कुछ न कुछ लिखते रहती, एक दिन पोस्टमैन एक लिफाफा लेकर आया, पापा ने कहा किसके नाम का है देखा तो वह मेरे नाम से ही था, मेरी एक किताब राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित किया जाना था, उसी का आमंत्रण था, पापा ने अब तक मेरी प्रतिभा को कम आंका था, पर अब उन्हें भी लगा कोई बात तो है इसके लेखन में।

निश्चित दिन, नियत समय पर हम मेरठ से दिल्ली पहुंचे, कार्यक्रम स्थल पर भीड़ का जमावड़ा था, मम्मी पापा भाई, मामाजी, दादाजी, दादीजी सभी मेरे साथ थे।

मुख्य अतिथि का भाषण हुआ, उसके बाद पुरस्कार की बारी ऐसी, हर विधा के पुरस्कार थे, मुझे मंच पर आमंत्रित किया गया, जब वहाँ पुरस्कार लेने की बारी आई तो मैंने अपने दादाजी को वहाँ बुलाने का आग्रह किया, और हम दादा पोती ने मिलकर उस पुरस्कार को ग्रहण किया।

मुझसे दो शब्द कहने को कहा गया तो मेरी आँखों मे आँसू थे और आवाज रुंध गई "आज मैं जिस मुकाम पर पहुँची हूँ, उसका श्रेय मेरे दादाजी को जाता है वो हमारे ऊपर बरगद की घनी छाँव की तरह हैं जिससे आज हमारा पूरा परिवार एक है, हम लोगों को संस्कार घुट्टी में पिलाया इन्होंने, इनके स्नेह प्रेम और सही मार्ग दर्शन से आज मै इतने आगे बढ़ पाई, वो हर समय हमें सही राह दिखाते हैं, इनके बिना आज यह सम्भव नहीं था।"

दादाजी ने रचना को गले लगा लिया, उनकी भी आँखों से अश्रुधारा बहने लगी।


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