अब मैं आजाद हूँ
अब मैं आजाद हूँ
" तुमने ये क्या पहन लिया बेटा,ये पहनना लड़कियों के लिए ठीक नहीं " माँ कहती।
"तू अकेले मत जाना,मैं तुझे छोड़ दूँगा " भाई कहता।
"बेटे ज्यादा पढ़ लिख लेगी तो पढा लिखा लड़का ढूंढना मुश्किल हो जाएगा तेरे लिए "पापा कहते।
मैं स्वरा रोज रोज इन सबकी बातों से मुझे कितनी पीड़ा होती कोई जान ही नही पाता जबकि मैं सक्षम हूँ हर कार्य को करने,पढ़ाई में बहुत होशियार, बाहर के हर कार्य को भाई से ज्यादा मैं ही कर जाती हूँ वो तो आलस के मारे कभी कभी माँ पापा की बात अनसुनी भी कर जाता पर मैं नहीं।
मुझमें बहुत दम खम है मैं जानती हूँ घर बाहर के काम भी कर जाती हूँ सब जानते हैं मुझमें काबिलियत है पर बोलते नहीं हर दम मुझे लड़की होने का अहसास दिलाया जाता है और मुझे अपने गुलाम होने का भी।
पापा कहते हैं मैं लड़के और लड़की में कोई फर्क नहीं करता पर ये क्या गाहे बगाहे क्यों मुझे लड़की होने और कमजोर होने की तीव्र अनुभूति का अहसास रह रह कर कराया जाता है।
क्या आज़ादी है ये जहाँ न वैचारिक स्वतंत्रता है ना मानसिक,घुटन सी होती है कभीकभी।
ऐसे में अमर के यहाँ से मेरे लिए रिश्ता आया है बहुत अच्छा परिवार है और बहुत सम्पन्न अब ये मुझे पता नहीं विचारों से की धन से। जब मेरी राय की जरूरत ही नहीं तो मैं क्या बोलूं।
पर झटका तब लगा जब अमर के पिता ने कहा लड़की की राय जान लें उसे लड़का पसन्द है कि नहीं।
अमर और मैं आज शाम रेस्टोरेंट में मिलने वाले हैं मैं शाम छ बजे तैयार हुई भाई साथ ले जाने खड़ा था पर आज पहली बार मैंने उसे मना कर दिया मैं अकेले ही अमर से मिलना चाहती थी।भाई को गुस्सा तो बहुत आया पर पापा के कहने पर वह शांत हो गया, पापा अच्छे रिश्ते के बीच कोई बखेड़ा नहीं आने देना चाहते थे।
नियत समय पर मैं रेस्टोरेंट पहुँची वहाँ अमर पहले से मौजूद था वह मेरा इंतज़ार कर रहा था।
उसने टेबल बुक कर रखी थी।
कुछ देर हम चुप रहे फिर अमर ने ही चुप्पी तोड़ी कहा "तुम अपने होने वाले पति में कौन से गुण देखना चाहती हो।"
"जो मुझे मानसिक,वैचारिक स्वतंत्रता दे सके मेरे मनोमस्तिष्क पर हावी न हो "मैं तपाक से बोली।
"अरे लगता है तुम पर सब हावी हैं तभी एक मिनट भी नहीं लगा जवाब देने में " वो हंस कर बोला।
"समाज में जो लड़कियों के लिए नज़रिया नियत किया गया है मैं उससे खुश नहीं, हमारी काबिलियत को भी महत्व दिया जाना चाहिए, आज हममें भी वो सक्षमता है कि हम घर के और बाहर के सभी कार्य कर सकती हैं फिर हमें क्यों कम आंका जाता है,आप मेरी बात समझ रहे हैं ना,मैं अपना जीवनसाथी ऐसा चाहती हूँ जो मुझे समझे,मैं जीवन के सफर में साथ चलना चाहती हूँ हर कदम पर,बशर्ते मुझे अपनी जिंदगी जीने की आज़ादी हो, कैद में उदास ज़िन्दगी जीना सजा होगी मेरे लिए।"
अमर ने स्वरा का हाथ थाम मुस्कुराते हुए कहा "बस इतनी सी बात, स्वरा तुम्हारे स्वर अनुगुंजित होते रहे हर ओर,हमारे घर में जितना पुरूषों को महत्व दिया जाता है उतना ही स्त्रियों को भी। तुम्हारा जीवन साथी बनकर मुझे भी बहुत खुशी होगी क्योंकि मैं भी मन से संकुचित विचारों वाली लड़की नहीं चाहता, हमें अभी कुछ समय और मिलकर एक दूसरे के विचारों को अच्छी तरह जान समझ लेना चाहिए ताकि हमारे रिश्ते में किसी भी तरह के शक की गुंजाइश न हो और आपसी प्रेम और विश्वास की दृढ़ आधारशिला पर इसकी नींव खड़ी हो, उसके बाद तुम्हे जब लगे मैं और मेरा परिवार हैं तुम्हारे लायक तभी हाँ करना इस रिश्ते के लिए, मेरी ओर से कोई जोर जबर्दस्ती नहीं है "
स्वरा को अमर की बातों से आज लग रहा था कि वह आज़ाद है पूरी तरह अब वह अपना फैसला अच्छी तरह ले सकती है, कोई बंधन नहीं उस पर आज तक जिसमें वह जी रही थी इन बंधनों से परे नई ज़िन्दगी उसका स्वागत कर रही थी।
मित्रों बचपन से जवानी तक लड़कियों पर अनेक बंधन रहते हैं कुछ हदें निर्धारित होती हैं उसके लिए,कुछ तो उसे झेल कर निकल जाती हैं,कुछ टूटती, गम खाकर जीती हैं अपनी काबिलियत को अपने ही पैरों के तले कुचलते देखती हैं यहीं उनकी गुलामी जन्म से लिख जाती हैं एक आस रहती है आज़ादी की।मानसिक आज़ादी जिसे पाने वे तड़पती रहती हैं उन्ही में स्वरा भी एक है और स्वरा जैसी न जाने कितनी जिनको इंतज़ार है किसी का .....