बंटवारा
बंटवारा
जिन लोगों ने 1947 का समय अपने होश हवास में देखा था, आज उन्हें इस समारोह में अपने अनुभव सुनाने को कहा गया। बहुत से युवा और छात्र भी विशेष तौर पर बुलाये गए थे, ताकि उन्हें समझाया जा सके कि आजादी के वो दिन किस तरह आये, क्या हालात रहे।
"वो देश के आज़ाद हो जाने की खबरों के दिन थे। पाकिस्तान के शेखुपुरा में हमारी बड़ी हवेली थी। भरा पूरा परिवार। अच्छे पदों पर थे परिवार के कई लोग। लगता था बंटवारे की बाते दो चार लोगों की फैलाई अफवाह है, क्या होना है। कुछ लड़ाई झगड़ा होगा। गांधी नेहरू सब ठीक कर लेंगे। जमा जमाया व्यापार घर बार, क्या हिन्दू क्या मुसलमान, ऐसे थोड़े ही कोई घर से निकाल देगा। लाहौर से जालंधर या दिल्ली से खूब व्यापारी माल लाते ले जाते। दिल्ली और पंजाब में मुसलमानों की गिनती कम नहीं थी तो लाहौर और पश्चिम पंजाब में हिन्दू सिख जमींदार और व्यापारी बहुत थे। अदालतों में बड़े वकील थे हिन्दू।
पर फिर धीरे धीरे डर सा बैठने लगा। छुरेबाजी, आगजनी और सरे बाजार लूट पाट होने लगी। दीवारों पर मजहबी नारे लिखे जाने लगे। रात बिरात हवेलियों, घरों के बाहर हिंदुस्तान-पाकिस्तान की इबारतें लिखी जाने लगीं। बंगाल से समाचार दिल दहलाने वाले थे। डायरेक्ट ऐक्शन का असर आम लोगों के कत्लों से होने लगा था।
फिर सुना कि देश के आजाद होने को तारीख निश्चित हो गयी है। बहुत से लोग समय रहते अपनी जायदाद औने पौने दाम में बेचकर जाने लगे। बहुत आखिर तक एक मन बहलावे में रहे कि 'कुछ नहीं होगा, आस पड़ोस है, पीढ़ियों की जान पहचान है, लेन देन है।...........पर मुझे याद है जब मैं पाकिस्तान से चलने वाली ट्रेन में बैठ गया था अपने परिवार के साथ। देश आजाद हो चुका था। आधी रात का जश्न मनाया जा रहा था और हम बहुत से लोगों से लदी एक धीमी रेंगती ट्रेन में अमृतसर की ओर रवाना हो रहे थे। बदबू, पसीने से तरबतर घुटते, पिसते आखिर बचे खुचे लोग अमृतसर पहुँचे। वहाँ से शरणार्थी कैम्प, पहचान और घर बार की तसदीक करवाते , अपने दोस्त रिश्तेदार खोजते एक ठिकाना जुटाने में सफल हुए। आज उन दिनों को याद करता हूँ तो रूह कांप जाती है। भगवान ऐसा वक्त किसी को न दिखाए, आदमी के हैवान होने के दिन थे वो, जैसे कोई वहशी जुनून सबके सिर पर सवार था। जिसमें सबसे ज्यादा शोषण हुआ औरतों का। वे बेकसूर लुटती रही, छीनी जाती रहीं, उनका जुलूस निकाला गया, उनके सौदे हुए। सरकार ने जब तक स्थिति संभाली , बहुत कुछ बर्बाद हो चुका था। ...फिर कुछ सालों बाद पिता जी के मन में अपनी हवेली, अपने पड़ोसी, बचपन के दोस्त देखने की इच्छा पैदा हुई। हम पाकिस्तान गए। हमारा घर अब चार मालिकों के बीच बंटा हुआ था। हमने दरवाजे से अंदर जाने की कोशिश की तो सवालों और अजनबी चेहरों ने हमे घेर लिया। ......पिता जी ने अडोस पड़ोस के कुछ जान पहचान वालों का नाम लेकर परिचय दिया, फिर उन्हें बुला लिया। बिनती की कि बस कुछ तस्वीरें ही खींच लेने दो, हम और कोई अधिकार जताने नहीं आये हैं। पर कुछ ही देर में पुलिस आ गयी और हमें कड़ी सुरक्षा में वापिस भेज दिया गया। ......आज पिचासी साल की उम्र हो गयी है पर वो मंजर, वो घर कभी कभी सपनो में आकर बेचैन कर देता है। देश में जब भी 'दंगा' शब्द सुनता हूँ तो सोचता हूँ कि आखिर हम लोग कब तक ऐसे ही लूटते पीटते रहेगें। जो हमने देखा अब ये नए नौजवान न देखें। ये जमीन कम पड़ जाएगी हमारे वहशीपन के आगे। प्यार और शांति से रहना इतना मुश्किल तो नहीं है?.....है क्या?" सीनियर सिटीजन के सम्मान समारोह में अपनी बात कहते हुए बुजुर्ग ने हाथ जोड़ लिए।