भीड़ तंत्र
भीड़ तंत्र
कही पढ़ा था की अकेला इन्सान बहुत अच्छा हो सकता है बशर्ते वह भीड़ का हिस्सा न हो.....
सही तो है....
किसी भीड़ में वह मुखौटों में खो जाता है। उसकी अपनी पहचान एक नारा लगाने वाले में बदल जाती है। वह किसी का पुतला फूंकने में माहिर हो जाता है। भीड़ की शक्ल में वह इतना शक्तिशाली बन जाता है कि पुलिसकर्मियों पर पत्थर फेंकने में उसे कोई गुरेज़ नही होता है। उस भीड़ में वह बिल्कुल निहत्था होकर भी सरकारों से पंगा लेता है......
इस मुखौटे में वह भूल जाता है कि भीड़ में कुछ गड़बड़ होने पर उसे ही लाठी मिलेगी।जेल में पुलिस उसे ही ठूस लेगी।गोलियाँ भी उसी के शरीर को छलनी करेगी।और कुछ बुरा भला होने पर उसके परिवार के लोग बिलखते रहेंगे।
भीड़ के पीछे के जो नेता अब राजनीतिक रोटियाँ सेंकने लगेंगे।इस भीड़ के साथ वे कुछ बयान बाजी करेंगें। फिर कुछ दिनों के बाद उनको दूसरे शहर में एक और नयी भीड़ इकट्ठी करेंगे...
सरकार का क्या?
उसे कुछ दिन इसतरह की भीड़ को बर्दाश्त करना होगा....लोकतंत्र का सवाल जो है ! असहमति को भी उसे तवज्जो देनी होती है !!!
जब सरकार का सब्र जवाब देने लगेगा तब भीड़ को तितरबितर करने के लिए वह साम, दाम, दण्ड, भेद का प्रयोग करती है।
इतने दिन भीड़ में रहते रहते वह मुखौटे वाला इन्सान थक जाता है...उसे अपनी ज़िम्मेदारीयाँ और ज़रूरतों का ध्यान रखना होता है....
अब वह क्या करे?
देश बदलने के लिए निकला वह इन्सान अब सिर्फ एक मुखौटा मात्र रह गया है...
दोनो तरफ़ से ठगा हुआ....
ना वह देश बदल पाया और ना ही सिस्टम भी.......।