बदलाव
बदलाव
बाहर, मूसलाधार बारिश जारी थी, रह रह कर गरजते बादल आसमान के हृदय में कौंध ( चमक .. डर ) प्रकट कर रहे थे .. I
हमेशा से प्रिय सावन और बूंदें आज उसकी पीड़ा को तीव्र करते प्रतीत हो रहे थे .. I
बाहर ही नहीं, उसे लगा, उसके भीतर भी लगातार कुछ टपक रहा था, प्रत्येक श्वास के साथ कुछ घट रहा था ..
यह एहसास बहुत डरावना था ..। संशय के अंधेरे उसको एक ऐसी सुरंग में ले जा रहे थे जिसके अंतिम छोर पर जीवन अपने नग्न रूप में निनादित हो रहा था। जटिल परिस्थिति के चक्रव्यूह में फंसकर उसका आत्मविश्वास तूफान में हिलते पत्तो सा भयभीत हो गया था।
बस की खिड़की के पास बैठी वह अपनी उधेड़बुन में फंसी हुयी थी। पास बैठी चार वर्षीय श्रेया बार बार गोद में बैठाने की जिद्द कर रही थी।
बचपन कितना सौंधा ! कितना सलोना ! होता है।
वह भी तो बेटी श्रेया को सब खुशियां देने का प्रयास करती है चाहे उसके छोटे छोटे शौक हों या लंबी लिस्ट खिलौनों की .. I
उसने न केवल अपनी नौकरी बदस्तूर जारी रखी थी बल्कि वह बहुत कम छुट्टियां लेती थी ..।
पति गौरव की जान ही थी .. श्रेया। श्रेया का एक आंसू गौरव को सहन न था।
कहते भी है कि बेटियां पिता की प्यारी होती है परन्तु उसका बचपन इतना किस्मत शाली नहीं था।
हां, उसका बचपन पिता के प्यार से महरूम ही रहा। पिता ने हमेशा कुलदीपक मानकर भैया अनुराग को ज्यादा तवज्जोह दी। वह तो मात्र भैया की प्रतिछाया के रूप में प्यार पाती रही।
हां, माँ ने कभी भेदभाव न किया। वे सच्चे अर्थो में पढ़ीलिखी आधुनिक महिला थी। हलवे की कटोरी हो या कॉलेज में एडमिशन की बात, माँ ने हमेशा दोनों को एक जमीन पर बैठाया।
पापा के लिए वह पराए घर जाने वाली अमानत से ज्यादा कुछ न थी। छोटी छोटी बातें उसे 'लड़की ' होने का एहसास कराती।
वह स्कूटी के लिए तरसती रह गयी .. भाई को ग्यारहवीं में आते ही बाईक दिला दी गयी थी ..
बहाना .. उसकी सेफ्टी का बनाया गया था किंतु वह जानती थी .. पिता समाज के प्रतिष्ठित वकील थे इसलिए उसको पढ़ाना, थोड़ी स्वतंत्रता देना, उनके लिए मजबूरी थी किंतु मानसिक रूप से अभी भी वे अट्ठाहरवीं सदी के पुरुष ही थे। ..
श्रेया अपनी नन्हीं नन्हीं कोमल उंगलियों के पोरों से बार बार उसके गालों को छू रही थी। शीतल हवा के झोंकें सा उसका स्पर्श आज उसके जलते अन्तर्मन की तपन को और बढ़ा रहा था।
उसने हौले से उसके दोनों हाथ नीचे कर शान्त बैठने का संकेत दिया .. आज वह समझदार बन गयी थी .. बेहद चंचल व ढेरों बातें करने वाली श्रेया चुपचाप गोद में सिर रखकर सो गयी। उसकी आंखों में कल शाम का दृश्य सजीव हो उठा .. I
. वह, हमेशा की तरह ऑफिस से वापसी करते हुए श्रेया को लेने हेतु मायके में प्रवेश किया था। उसके पहुंचते ही ड्रांइग रूम में अचानक चुप्पी छा गयी थी।
पापा का चेहरा गुस्से से लाल अंगार पड़ा था और भैया चुप, सिर छुकाए, हताश, पीत (पीला ) चेहरा लिए सोफे पर बैठे हुए थे।
बहुत पूछने पर मां से पता चला कि दर -दर भटकने पर भी मनमाफिक नौकरी न मिलने पर भैया पापा की बची जमापूंजी से अपना काम शुरू करना चाहते थे।
पापा, इन रुपयों को भविष्य के लिए सुरक्षित रखना चाहते थे, अब, उन्हें उसकी योग्यता पर भी संशय हो चला था।
किंतु, उसे भैया पर पूर्ण विश्वास था, इसलिए वह श्रेया के भविष्य के लिए जमा रुपयों में से कुछ रुपए, उधार के तौर पर अनुराग भैया को ' एनिमेशन आफिस ' खोलने के लिए देना चाहती थी।
उसके इसी छोटी सी चाहत ने उसके सुखी संसार की नींव हिला दी थी।
मानिनी, गौरव वश्रेया बस .. छोटा सा सुखी, संतुष्ट उसका संसार है। मांजी अर्थात् उसकी सास दिल्ली में बड़े जेठ के पास रहती हैं। शादी के बाद कुछ महीने उनके साथ वह दिल्ली में रहीं। पूरा परिवार पढ़ा लिखा, समझदार, अण्डरस्टैंडिग रखने वाला था। उसे कभी कोई परेशानी नहीं हुई यहां तक कि उसकी सहेलियां उसके सुख पर रश्क करती रहती।
परन्तु, कल रात जो कुछ हुआ, वह उसके लिए अप्रत्याशित था।
उसने गौरव को बताया कि वह कुछ रुपयों से अनुराग भैया की मदद करना चाहती है। सुनते ही गौरव आग-बबूला हो उठा आर असभ्य हो चिल्लाते हुए बोला, .. ' तुमने क्या टकसाल खोल रखी है जो जिसको तिसको पैसा बांटती फिरोगी . ? ' . ऐसा सोचना भी मत। '
कुछ क्षण वह स्तब्ध खड़ी थी, फिर पलंग के कोने पर बैठ धीरे से बोली, गौरव ! .. अनुराग भैया गैर तो नहीं, फिर में उन्हें उधार देरही हूं, काम जमने के बाद वे लौटा देंगे। वैसे भी ये पैसे मेरी कमाई के है ..
मानिनी वाक्य पूरा कर पाती उससे पहले गौरव ने उसके गाल को थप्पड़ से लाल कर दिया था .. साथ में अनगढ़ बोले जा रहा था ..
कमाती हो तो क्या ? शादी में दहेज नहीं लिया कि हर महीने वेतन तो आएगा ?
महारानी को जरा ढील दे दी तो क्या सिर पर नाचोगी ??
मानिनी को काटो खून नहीं था .. डर, क्षोभ, गुस्सा, ग्लानि .. न जाने कितने भावों ने उसकी मति (बुद्धि). को कुंद (धारविहीन ) कर दिया था ..
गौरव के चरित्र के न जाने कितनी अनजानी पर्ते खुलती चली गयी थी .. उसका रोम रोम आर्तनाद करने लगा।
उसे लगा यह धरती फट जाए और मां सीता की भांति वह भी इस धरा में समां जाए !
काश ! ऐसा हो पाता ..
गौरव उसकी ओर पीठ कर सो गया था। वहाँ उसका दम घुटने लगा था .. आकुल व्याकुल, क्षुब्ध मानिनी बाहर, ड्राइंग रूम के सोफे पर अधलेटी सी बैठ गयी।
आंसुओं से भरी आंखों में कई तस्वीरें डूबने उतरने लगी ..
एक तस्वीर गौरव के एकाउण्ट की थी जिसके बारे में उसने कभी कुछ नहीं बताया ' . पूछने पर भी नहीं बताया .. उसे नहीं पता गौरव कितना कमाता बचाता है।
दूसरी तस्वीर .. उसके बैंक एकाउंट की थी जिसकी जिम्मेदारी बड़े प्यार से गौरव ने सम्भाल रखी थी।
एक और तस्वीर .. जब उसे बिना बताए उसके दो लाख रुपए गौरव ने अपने किसी मित्र को दे दिए थे .. पूछने पर बोला ... वो सम्भाल रहा है सबकुछ ! उसे किसी को हिसाब देने की आवश्यकता ' नहीं है।
प्रातः, ' रात गई बात गई ' की तर्ज पर गौरव सामान्य व्यवहार कर रहा था किंतु कल रात मानिनी का मन दर्पण दरक (चिटक) गया था और उसकी किरचन रुक रुक कर उसे साल (चुभ )
रही थी। दोनों सामान्य बने रहने का दिखावा करते हुए अपने अपने ऑफिस को निकले थे।
सांझ हो चली थी, श्रेया के साथ उसने थके थके मन से ड्यौढ़ी पर पैर रखा तो सामने मांजी को देख वह खुशी से चिहुंक उठी, मांजी ने भी प्यार से पूछा, ' कैसी हो क्वांर ? ' ( सिंधी समाज में बहू को बोला जाने वाला शब्द ) .. ' क्वांर ' शब्द के रसीलेपन ने उसके सूखे हृदय को प्यार से सराबोर कर दिया। रात से हृदय में जम चुके दुःख के गोले ममत्व की गर्माहट से पिघल कर आंखों के रास्ते बाहर निकल भागे।
अनुभवी आंखों ने समझा, बहुत कुछ परन्तु परिपक्व मन ने जुबां खोलने की इज़ाजत नहीं दी। दोनों ने एक दूसरे से गले मिलकर औपचारिकता का निर्वाह भर किया।
संध्या को चाय के उपरांत वह कमरे में आराम कर रही थी तो मांजी उसके कमरे में आयीं और सरलता से बोली, हां, अब बताओ, क्या बात है ? मैंने, तुम्हें बेटी सा ही माना है। बेटी के दुःख की तरलता स्वतः ही माँ को नम कर देती है।
अब, मानिनी कुछ न छिपा सकी, उसने सिर नीचे किए रोते हुए रात की सारी बात, गौरव का व्यवहार, अपनी सोच सब मां के आंचल में उड़ेल डाली। हृदय मर्तबान खाली होने पर जब उसने मुंह ऊपर उठाया तो देखा मोजी के आंखों से निरन्तर अश्रु धारा प्रवाहित हो रही थी। अपनी सिसकियों के रोकने के क्रम में उसे हिचकियां आने लगीं थी, बहते आँसुओं को बार बार पोंछने से साड़ी का पल्लू भी उन दोनों के दुःख का साक्षी बन गया था।
बाढ़ के समय उथला पानी मुहल्ले के एक घर का सामान दूसरे घर में पहुंचा देता है उसी प्रकार मानिनी में आंसुओं के सैलाब ने उसके क्रोध, तनाव, घृणा, उलझन से मिश्रित मनोभावों को भांजी में सम्प्रेषित का दिया था। अब दोनों की स्थिति एक सी थी। मांजी चुपचाप उठीं और बाहर चली गयीं
मांजी के संग बिताए सान्त्वना के उन चंद पलो ने मानिनी के मन का सारा कलुष अपने समस्त दोषों के साथ स्नेह की गंगा में मिल पवित्र हो चुका था। उसने रात का खाना शांत मन से बनाया किंतु एक दृढ़ निर्णय वह मन ही मन कर चुकी थी।
रक्षा बन्धन के त्यौहार के बाद गौरव से आर्थिक चीजों पर दो टूक बात वह करेगी।
डिनर निपट जाने के बाद मानिनी, बालकनी में बैठी मांजी के लिए आईसक्रीम ले गयी तो उन्होंने हाथ पकड़ उसे वही बैठा लिया और बोली,
क्वार, मुझे माफ कर दो, मैं अपने बेटे की शिराओं में प्रवाहित पुराने घिसे पिटे, संकीर्ण, दुर्गन्धमय, सूक्ष्म विचार कणों की देख ही नहीं पाई।
नहीं, जान पाई कि मेरे सारे प्रयासों से उसकी काया तो चमकीली आधुनिक हो गयी परन्तु अन्तस वैसा ही मैला रह गया जिसकी दुर्गन्ध ने तुम्हारे सुवासित पवित्र मन को भी दुर्गन्ध युक्त कर दिया।
मांजी, बड़े प्यार से उसका हाथ, अपने हाथ में लेकर कहने लगी, ....
दाम्पत्य जीवन आग पर चलने जैसा है, नारी जीवन में कुछ महत्वपूर्ण है तो वह है धैर्य और संयम।
संशय व अविश्वास के बादल पति पत्नी के रिश्ते में बार - बार उभरते हैं परन्तु हमें अपनी समझदारी से प्रयास करना होता है कि संशय के बादल छंट कर प्यार की धूप से घर आंगन नहला दें न कि बिजली गिरे और सब कुछ नष्ट हो जाए।
उसने अपना सिर मांजी के कंधों पर रख दिया था और वे हौले हौले से उसके बालों को सहलाते हुए बोली,
' लोग काले सफेद ही नहीं ' ग्रे ' ना होते है, जीवन में सुख दुःख, अच्छाई - बुराई रेल पटरी की तरह साथ साथ चलते है, उनको अलग करके गन्तव्य तक नहीं पहुंचा जा सकता।
जिन चीजों को हम सही करना चाहते है कभी कभी वे स्वतः ही बिना हमारे प्रयास के मनोनुकूल हो जाती है। अतः समय पर विश्वास रखना हमारी कमजोरी नहीं, ताकत होनी चाहिए।
जी, मांजी, कहकर मानिनी अपने कमरे में चली आई। गौरव से तो ' अनबोला ' चल रहा था। आँखें बंद करके वह मांजी की बातें गुनती रही। जीवन पर और थोड़ा सा गौरव पर विश्वास दृढ़ हो चला था,
मानिनी थी वह .. तो ऐसे कैसे मान जाती ..
सोते हुए गौरव बहुत भोले लग रहे थे, उमड़ते ढेर सारे प्यार को समेट वह गौरव को पीठ करके सो गयी ..
गौरव ने धीरे से कमर पर हाथ रखा था .. आदतन या जानबूझकर .. पता नहीं ?
पर पता नहीं क्यों, उसे भला लगा .. यह एहसास उसे नींद के आगोश में सुलाने के लिए काफी था।
प्रातः, उसका मन अभी भी सूना था। मन के घावों में चिरकन कम थी किंतु टीस अभी बाकी थी।
आज ' रक्षा बन्धन ' के त्यौहार का दिन था और उसके मन में कोई उमंग न थी। उसने सोचा था आज, भाई को राखी की सौगात के रुप में रुपए की पोटली देकर वह एक नई इबारत लिखेगी। वह साबित करेगी कि भाई अगर बहन का संबल होता है तो वक्त पड़ने पर बहन भी भाई का संबल बन सकती है। रिश्ते में प्यार की खुशबू समानान्तर प्रवाहित होती है। पिता की पारम्परिक पुरुषवादी सोच के वृक्ष की जड़े, वह, कुछ तो हिला पाएगी परन्तु उसे ही मुंह की खानी पड़ी थी।
राखी व मिठाई लेकर वह बुझे मन से श्रेया व गौरव के साथ मायके के लिए निकली। मन को तो उसने किसी तरह संयत कर रखा था परन्तु भावनाओं का सैलाब आंखो के रास्ते बाहर आने को बराबर बेताब था जिनको बड़ी मुश्किल से रोकने का असफल प्रयास वह रूमाल की मेढ़ लगा कर, कर रही थी। गौरव ने दोबार पूछा, ' क्या हुआ ? ' उसने गर्दन हिला कर कहा, ' कुछ नहीं ' कुछ किरचन पड़ गयी है। ' फिर रास्ते भर खामोशी छाई रही।
माँ का घर आते ही उसने मन में उठते दुःख के गुबार को किसी तरह रोका और बड़ी सी मुस्कराहट के साथ अनुराग भैया से हंसी - मजाक करने लगी।
उसने मेज पर पूजा की थाली सजा ही और भैया को टीका कर ' राखीं ' बांधी, इतने में ' छोटे भाई को मेरी तरफ से सौगात ' कहकर एक लिफाफा गौरव ने भैया को पकड़ा दिया, इशारों में मानिनी सब समझ चुकी थी। वह भावविभोर हो उठी।
' अनगिनत तारे ' एक साथ उसकी आँखों में झिलमिला उठे। गौरव ने उसकी ओर देख कर बोला, ' अभी और किरचन हो तो निकाल दूँ। '
वह, नई दुल्हन की भाँति लाज से दुहरी हो गयी, माँ के कंधे पर सिर रखकर बोली, .. धत ! उसने मन ही मन नत हो मांजी को प्रणाम किया और पिता ने बड़े प्यार और एतमान . के साथ उसके सिर पर हाथ रख दिया।
उसके जीवन में छाए काले, घने बादल छँट चुके थे, दूर, बादलों की ओट में चमकता सूरज मुस्करा रहा था तभी धूप का एक टुकड़े ने पूजा की थाली को अपने उजाले से भर दिया ..
उसकी झोली भी भर गयी थी, आज भाई ने नहीं, उसके जीवनसाथी ने दी थी पोटली सौगात वाली ..
वैसे, रक्षा बन्धन वाले दिन वह ' जिद्द करके, मायके में रात तक रुकती रही है पर, आज उसके पैर ' अपने घर ' जाने को उतावले हो रहे थे ..
किसी के साथ चल रहा अनबोला ' जो खत्म करना था
और .. उस देवी से आशीर्वाद लेना था जिसकी वजह से उसे मिली थी पोटली सौगात वाली ..
उसके हावभाव गौरव से छिपे न थे ..
बार-बार गौरव की आंखें उस पर ठहर जाती ..
उसकी आंखें ... समझ रहें है न ! उसे कवि ' बिहारी ' याद हो आए . . .
कहत, नटत, रीझत, खिझत, मिलत, खिलत, लजियात।
भरे भौन मैं करत हैं, नैननु ही सब बात॥ ..
तो .. प्यार से बांधे अपने भाई को राखी ..
सभी फालोवर और पाठक पढ़े मेरी कहानी ..
मेरे लिए यही होगी .. रक्षाबन्धन की सौगात I
रक्षा बन्धन की शुभ कामनाएं