बात पते की : मानव का बँटवारा
बात पते की : मानव का बँटवारा


दिन भर का थका-माँदा शयनकक्ष में रात्रि विश्राम के लिए शय्या पर लेटा ही था कि किसी की रुदन सुनकर मैं उठ गया। मैंने पूछा कौन हो भाई?, रो क्यों रहे हो?, इतनी रात को क्यों भटक रहे हो? और मेरे पास क्यों आये हो?। किसी की निंद्रा में विघ्न पड़ता है तो बेसक प्रश्नों की झड़ी लगा ही देता है।
अश्रु पोछते हुए उसने कहा- मैं मानव हूँ। पहले मुझे आदिमानव के नाम से जाना जाता था, जंगलों में रहा करता था, कंदमूल या कुछ मांसाहार करके अपना पेट भरण कर लिया करता था। धीरे धीरे समाज निर्माण कर कई सभ्यताओं से गुजरता हुआ मै खुशहाल जिंदगी जीता रहा, कालांतर में मेरा नाम आदिमानव से मानव रख दिया गया, बेसक आजकल छोटे नाम (Nick Name) का प्रचलन बढ़ रहा है तो मुझे भी अच्छा लगा। सब कुछ मैंने मेरे बलबूते से अपनी आवश्यकतानुसार धरती माता से प्रदत्त संसाधनो का उपभोग करता हुआ कई आविष्कार जैसे आग, खेती करना, पशुपालन आदि कर मिस्र, मेसोपोटामिया, सिंधु घाटी सभ्यता जैसी सभ्यताओं के विकास कर मैं अपने आप को गौरान्वित महसूस करता था। तब मैं मानव के नाम से इतराता फिरता था, मुझे धरती पुत्र होने व संसार का बुद्धिमान प्राणी होने पर गर्व था, लेकिन, अब …(मानव चुप हो गया और सिसकियाँ भरने लगा )।
मैंने उसको सांत्वना देकर कहा- अब क्या हुआ भाई, चुप क्यों हो गए, आगे बोलो?
उसने करुणा कंठ से कहा- मेरा बंटवारा हो गया , जैसे जैसे मेरा कबीला बढ़ा, काम क्रोध मद लोभ, ईर्ष्या, सत्ता, राज भोग विलासवश मेरे ही भाइयों ने मेरा बंटवारा कर दिया। भौगोलिक, क्षेत्रीयता, लिंग भेद, रंग भेद, वर्ण भेद, भाष्य भेद , जातीय भेद, धर्म, पूंजीवाद, अर्थ, राजा रंक आदि से चिरता हुआ आज मेरी हालत दयनीय हो गयी है। मेरी सारी सभ्यताओं को नष्ट कर दिया गया व मेरे वैज्ञानिक आविष्कारों को समाज कल्याण में कम और विनाश में ज्यादा झोंक दिया । अब कष्ट सहा नहीं जा रहा है (सिसकियाँ लेते हुए )। बीच -बीच में कई महा पुरुष आये और मुझे संभालने की कोशिश की , लेकिन अब मेरी धर्मपत्नी का चीर हरण होने से कोई नहीं बचा रहा।
मैंने बीच में ही टोकते हुए आश्चर्य से पुछा :- धर्मपत्नी , कौन है तुम्हारी धर्मपत्नी ? ।
आँसू पोंछते हुए मानव ने कहा:- मानवता ही मेरी धर्मपत्नी है, वो ही मेरा धर्म-कर्म है , उसी से ही समाज है, उसी से ही मैं हूँ, वरना मैं तो निरा पशु सामान हूँ। आज कई कंस, दुश्शासन , दुर्योधन मेरी मानवता का चीरहरण कर रहे है, और कोई भी कृष्ण बचाने भी नहीं आ रहे है। मेरी मानवता को तार तार कर , मुझे विभिन्न टुकड़ों में बाँट दिया गया है, आज मैं मानव कहीं से नज़र ही नहीं आता। मैं केवल एक उत्पाद की तरह रह गया हूँ ।
रुदन कंठ से मानव आगे बोला:-आजकल तो एक और नया बँटवारा चल रहा है , राजनैतिक बँटवारा । इसमें लोग इतने रंग गए है उनकी तर्क शक्ति ही छिन्न भिन्न हो गयी है, मानों ऐसा लगता है जैसे बुद्धि को गिरवी रख दिया गया है। राज नेताओं को इसकी ही तलाश रहती है, सत्ता का लालच ही ऐसा ही रहता है , कई लोग राजनैतिक पार्टियों का सर्टिफिकेट्स लेने में लगे है आजकल तो सोशल मीडिया पर तो दो ही तरह की पोस्ट का बोलबाला है राजनैतिक या धार्मिक , इसके आलावा जीवन में कुछ और है ही नहीं। राजनीति ने तो धर्म की परिभाषा ही बदल कर रख दी , धर्मों में सिर्फ नफरत भर दी गयी है , प्यार का कोई स्थान ही नहीं रह गया है । अधिकांश लोग अपनी सारी ऊर्जा सम्पूर्ण बल के साथ इसी में झोंक रखे है , जिसका आधार बेतुका भी साबित होता आया है और सोशल मीडिया पर लगभग 99 % खबरे या तो निराधार होती है या असत्य होती है। चाहे धर्म हो या विज्ञान, ये मनुष्य पर निर्भर करता है कि वो इसे कैसे उपयोग करता है । जहाँ न्यूटन ने तालाबंदी ( lock-down) में घर बैठे बैठे गुरुत्वाकर्षण बल की खोज कर ली थी, आज लोग राजनैतिक बँटवारा में लगे है, खाली दिमाग शैतान का। अंधता इस प्रकार दिमाग में चढ़ गयी है कि कोई व्यक्ति यदि दुराचार भी किया हो लेकिन राजनैतिक पार्टी विशेष में शामिल हो गया तो मानो उसके सारे पाप धुल गए हो। दूसरी और व्यक्ति कितना भी अच्छा क्यों न हो यदि लोगों की मनवांछित पार्टी से नहीं है तो उनको तो गवारा नही
ं है। आजकल लोग पार्टी देख के नेता की छवि का मूल्यांकन करते है। कुछ पार्टी में तो लगभग सभी नेता केवल कुछ बड़े नेताओं के कारण ही चल रहे है उनकी जुबान पर केवल बड़े नेताओं का रट्टू नाम रहता है, उन्होंने अपने अधिकार क्षेत्र में क्या किया ये कभी नहीं बतायंगे, मानो ऐसा लगता है कि उनको घंटी बजाने का काम दिया गया हो बस। लोगों का दृष्टिकोण ऐसा हो गया है कि किसी भी अप्रिय घटना को भी पहले धर्म व राजनीती से तोलते नज़र आते है, खेर अपने यहाँ तो जन्म से पहले और मृत्यु के बाद भी राजनीती व धर्म की राजनीती चालू रहती है। मानव मनुष्य बने या न बने , धार्मिक या राजनैतिक प्रमाणिकता की मुहर तो पहले ही लग जाएगी । जो भी मिला उसको तोड़ मरोड़ कर पेश करने में लगे हुए है कुछ लोग तो पुराना वीडियो चिपका कर या उसमे कोई एडिट कर बार बार अपने को राजनीती पार्टी हितेषी बनाने में तुले रहते है अब भला उन मूर्खों भाइयों को कौन समझाए कि इतना समय अपने किसी अच्छे कार्य में लगाया होता तो बात कुछ और होती , मेरी मानवता हरी भरी रही होती । देश लोगों (मानव )से बनता है, बँटवारा से नहीं , इतिहास गवाह है सत्ता के लालच में बंटवारें हुए और उनका परिणाम विभस्त हुआ है। सगा भाईचारा या घनिष्ठ मित्रता भी राजनैतिक मतभेद से दुश्मनी में बदल सकती है। अगर आप उनकी पार्टी से मेल नहीं खाते हो तो आपको देहद्रोही की निगाहों से भी देखा जा सकता है। पहले लड़ाई दंगों का मुख्य कारण जर, जोरू, जमीन हुआ करती थी लेकिन आज इनके राजनीति व धर्म संप्रदाय की बदबू आती है । इसमें बेगुनाह , भोलेभाले लोग मरे जाते है , सियाशते मौज करती है । कोई भी मुद्दा हो, वो राजनीति की भेंट चढ़ ही जाता है, जो बेचारे दुखयारे पिस रहे है, पिसते रहेंगे, चिल्ला चिल्ला के उनकी अपने आप ही जुबान सूख जाएगी लेकिन राजनीति की आवाज़ गूंजती तब तक गूंजती रहेगी जब तक की इसका चुनावी फायदा न उठा लिया जाये ।
मैं चुपचाप मन की बात सुन रहा था , बीच बीच में हाँ हुंकार कर दिया करता था। जिससे मानव को लगे कि उसकी बात सुनने वाला कोई तो है, वैसे भी किसी दुखियारे की बात कोई सुन लेता है तो उसका दुःख कम हो जाता है । मेरी लेखनी जो कि मेरे प्रतिबिंब है और और खासकर तालाबंदी में मेरे इर्द-गिर्द मंडराया करती रहती है । मानव को व्यथित देखकर लेखनी से रहा नही गया, उसके उदास चेहरे ने मुझे कोरा कागज़ उपलब्ध करने को मज़बूर कर दिया। शायद वो भी यही कहना चाह रही थी। आजकल तो तालाबंदी में, सामाजिक दूरी (Social Distancing) का नियम पालन कर रहा हूँ, बस मैं और मेरी लेखनी...।
जैसे ही मानव ने सोसिअल डिस्टेंसिंग का नाम सुना, मानव का मुँह लटक गया, वो करुणाकंठ से कहने लगा। सोसिअल डिस्टन्सिंग का नाम मत लीजिए , इसको फिजिकल डिस्टन्सिंग बोलिये , मेरे कुछ भाइयों ने तो जातिवाद की वजह से सदियों से सोसिअल डिस्टन्सिंग का दंश झेला है और कुछ जगह अभी भी झेल रहे है इसीलिए इसको फिजिकल डिस्टन्सिंग कहिये, वैसे भी इस वायरस में हमको कोई भी चाहे भौतिक चीज़ ही क्यों न हो, उससे दूरी बनानी है । मानव की बात में दम था, बात तो पते की थी।
मानव की करुणा भरी कहानी को मैं कोरे कागज़ पर उतारते उतारते मेरी लेखनी की भी आँखें भर आयी। आज हर जगह कपट, भ्रष्टाचार, बलात्कार, हिंसा, द्वेष, ईर्ष्या, छल, चोरी, डकैती, कालाबाज़ारी, मुनाफाखोरी, लालफीताशाही आदि अमानवीय घटनाएँ होती रहती है, जहाँ एक और देश वैश्विक महामारी से झूज रहा है, तो दूसरी और कुछ लोग तो कालाबाज़ारी, गरीबों का राशन डकारना , नकली दवाइयां , ज्यादा कीमत पर समाज बेचना , मोब्लिचिंग जैसे अकृत्य करने से बाज नहीं आते । लेखनी मानव की करुणा भरी व्यथा को ग़मगीन आँखों से कागज़ पर उतार ही रही थी कि अचानक दूसरे शयनकक्ष से मेरी जीवन संगिनी की आवाज़ आयी: ओ, कोरोना वारियर्स, अब सो भी जाओ , रात ज्यादा हो गयी है। सुबह ऑफिस भी जाना है । पत्नी शक्ति का रूप है, लॉ एंड आर्डर है , वो भी कोरोना वारियर्स है, भलाई इसी में है कि बात मान ली जाये। मानव भी हल्का सा मुस्करा दिया। मानव का जी हल्का हो गया। मैं और मेरी लेखनी, मानव से हुई वार्तालाप को याद करते हुए स्वप्नहीन निद्रा (Dreamless Sleep) में चले गए।