Laxmi N Jabadolia

Inspirational

4.7  

Laxmi N Jabadolia

Inspirational

श्रम कानून श्रमिकों का कवच

श्रम कानून श्रमिकों का कवच

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"श्रम कानून : श्रमिकों का सुरक्षा कवच"

“सरकारे चले या न चले, देश चलना चाहिए"

भूतपूर्व प्रधानमंत्रीजी का ये वाक्य मेरा ही नहीं किसी भी समझदार निष्पक्ष आदमी का हृदय छू लेगा। लेकिन इस बात में अतिश्योक्ति नहीं होगी कि आज़ादी के बाद सरकारें ये समझाने में ज्यादा सफल नहीं हो पायी कि देश क्या है। देश लोगों से बनता है, लोगों में केवल धन्ने सेठ ही नहीं है बल्कि मज़दूर वर्ग /कमजोर या किसान वर्ग भी है। लोगों की सम्पन्नता व खुशहाली से देश की सम्पन्नता नापी जाती है। भारत में लगभग 50 करोड़ लोग मज़दूर वर्ग में आते है,

जिनकी आजीविका मज़दूरी पर निर्भर करती है। इनमे से केवल 16 -17 % लोग ही फिक्स्ड सैलरी (मज़दूर व कर्मचारी )वाले है बाकि के लोग कॉन्ट्रक्ट, कैजुअल वर्कर, या दिहाड़ी मज़दूरी या स्वयं मज़दूर है। ये मुख्यतया दो श्रेणी में आते है, आर्गनाइज्ड सेक्टर (10 % ) व अनऑर्गनिज़ेड सेक्टर(90 %)। स्वतंत्रता से पहले से ही व बाद में भी मज़दूरों की दयनीय स्तिथि को सुधारने के लिए तरह के तरह के लेबर लॉज़ (Labour Laws ) का गठन किया जाता रहा है, जिसमे डॉ. अम्बेडकर की भूमिका अग्रणीय रही है (हालाँकि भारत में लोगों ने उन्हें एक वर्ग विशेष तक ही सीमित कर के रख दिया है), जैसे फैक्टरी काम के घंटे में कटौती (14 से घटाकर 8 घंटे ड्यूटी), प्रोविडेंट फण्ड, कर्मचारी राज्य बीमा (ईएसआई), मातृत्व लाभ अधिनियम, महिलाओं के श्रम कल्याण निधि, महिला एवं बाल श्रम संरक्षण अधिनियम, सामान मज़दूरी,

न्यूनतम वेतन, महिलाओं के श्रम के लिए मातृत्व लाभ, बहाली, भारतीय कारखाना अधिनियम, राष्ट्रीय रोजगार एजेंसी (रोजगार कार्यालय), श्रमिक के लिए महंगाई भत्ता (डीए), लाभांश, कर्मचारियों के लिए वेतनमान में संशोधन, श्रम कल्याण कोष, ट्रेड यूनियन, कानूनी हड़ताल आदि जैसे कुल मिलकर लगभग 50 प्रकार के केंद्रीय कानून व राज्य सहित अलग अलग राज्य कानून है जिनमे मज़दूरों के मौलिक अधिकारों से लगाकर , उनके वेतन, ओवरटाइम, वेतन के साथ साप्ताहिक दिन, वेतन के साथ अन्य छुट्टियां, वार्षिक छुट्टी, बच्चों और युवा व्यक्तियों के रोजगार, और महिलाओं के रोजगार, उनकी सामाजिक सुरक्षा , फैक्ट्री मालिक के अधिकार, कृतव्य , सरकार के प्रति जवाबदेही आदि का पूर्ण वर्णन दिया गया है। बाबा साहेब ने टिप्पणी थी कि "काम के घंटे घटाने का मतलब है रोजगार का बढ़ना।"

इस क़ानून के मसौदे को रखते हुए उन्होंने आगाह किया था कि कार्यावधि 14 से 8 घंटे किये जाते समय वेतन कम नहीं किया जाना चाहिए। लेकिन वर्तमान में भी ये विदित ही है कि अधिकांश मज़दूर अशिक्षित या कम साक्षर होने कि वजह से अपने अधिकारों को जानते ही नहीं है और सरकारें या धन्ना सेठ उनको जागरूक बनाने में क्यों दिलचप्सी दिखाए । संविधान में श्रमिकों के कुछ मूल अधिकारों को संविधान के भाग –III (मौलिक अधिकार- 9 वी सूची ) में रखा है बाकि अधिकारों को समवर्ती सूची में शामिल किया गया है जो कि सरकारों की अनुसंशलॉक डाउन में जितनी परेशानी मज़दूर वर्ग हो हुई है उतनी शायद किसी वर्ग को नहीं हुई है, और हमेशा कोई भी कुछ भी हो,

पिसता मज़दूर या कमजोर वर्ग ही है । रोज़ अख़बारों की तस्वीरें सरकारों के दावों की पोलपट्टी खोल रही है, हालाँकि आमजन जो घरों में लॉक डाउन में टिक टोक वीडियो या सोशल मीडिया पर गुलछर्रे उड़ा रहे है और नेताओं की अंधभक्ति व चापलूसी में वाहवाही कर रहे है , राजनैतिक अंधता के कारण उनको ये सब नहीं दिख रहा होगा। सोशल मीडिया पर जितना जोर शोर धार्मिक व राजनैतिक पोस्ट का प्रचार प्रसार हो रहा है उतना यदि कमजोर पक्ष के अधिकारों का हुआ होता तो आज भारत की तश्वीर कुछ और ही होती। पहले तो फिल्मे भी मज़दूरों की कुछ दशा - दुर्दशा की समाज को आइना दिखना के लिए बनायीं जाती थी जैसे मज़दूर,नमक हराम, पैग़ाम आदि लेकिन लोगों ने उनको भी वास्तविक सन्देश के बजाय , मनोरंजन का खेल बना दिया। ट्रेड यूनियन वैसे ही दम तोड़ती नज़र आ रही है

इसका मुख्य कारण ये भी रहा है कि ट्रेड यूनियन का मुखिया/नेता का निजी स्वार्थवस राजनैतिक धुव्रीकरण ज्यादा हो जाता है या कुछ जगह तो मज़दूरों को ही राजनैतिक प्रचार प्रसार में लगा देते है और आज अधिकतर फैक्टरियों /कारखानों में यूनियन लगभग समाप्त या नाम मात्र की रह गयी है, उच्च अधिकारी लोग अपने नौकरी पकाने में लगे रहते है। फिर मज़दूरों की आवाज मज़बूत कैसे बने,मेरा मानना तो ये है कि उनके मौलिक अधिकारों की एक सूची फैक्ट्री में नोटिस बोर्ड पर डिस्प्ले होनी चाहिए ताकि उनको अपने अधिकारों का पता चल सके।

लेकिन ऐसा करे कौन, सरकारें तो आजतक आम जनता को अपने मौलिक अधिकार व कृतव्यों से जागरूक नहीं कर पायी।और यही कारण है की धन्ने सेठ धनवान और गरीब (मज़दूर /किसान) लोग गरीब बन रहे है । लॉक डाउन में मज़दूरों के पलायन का मुख्य कारण ये रहा होगा कि उनके मालिकों ने नौकरी से निकाल दिया होगा , दिहाड़ी मज़दूरी बंद हो गयी , खानेपीने की कोई सुविधा नहीं रही होगी आदि , जब ही तो भूखे पेट, पैदल ही चलते बने। शुरू शुरू में भले ही कुछेक संस्थानों ,या व्यक्तिगत लोगों ने फोटो शेयर कर खूब वाहवाही बटोरी थी लेकिन धीरे धीरे वो भी फुस्स हो गयी। हालाँकि दानवीर लोगों ने रिलीफ फण्ड में दान भी बेहिसाब दिया। लेकिन उसका उपयोग किन के लिए, कैसे होगा, इसका हिसाब आप नहीं पूछ सकते, सरकारी नेताओं से पहले ही उनके अनुयायी आपके पीछे पड़ जायेंगे।

यहाँ मुद्दा ये है की उस राशिफण्ड में से ही सही , कुछ राशि इन मज़दूरों के लिए लगा दी होती तो आज स्तिथि भयानक नहीं होती, खैर छोड़िये मुख्हाल ही में कुछ राज्यों ने श्रमिक कानूनों में संसोधन को तीन साल की अवधि के लिए मंज़ूरी दी है उनका तर्क है कि इससे अर्थव्यवस्था को बल मिलेगा, उत्पादन बढ़ेगा, उद्योगों का मुनाफा बढ़ेगा, आदि -आदि और इसके लिए फैक्ट्री मालिकों को लेबर के लिए नियुक्ति व निष्काषन (Hire & Fire पालिसी), काम के घंटे बढ़ाना, ट्रेड यूनियन को कमजोर करना जैसे कई कानूनों में बदलाव के साथ साथ औद्योगिक विवादों को निपटाने, व्यावसायिक सुरक्षा, श्रमिकों के स्वास्थ्य और काम करने की स्थिति तथा ट्रेड यूनियनों, कॉन्ट्रैक्चुअल वर्कर और प्रवासी मजदूरों से संबंधित अन्य सभी श्रम कानून कमजोर हो जाएंगे। । हालाँकि मूल अधिकारों (जैसे बंधुआ मज़दूरी, बाल मज़दूरी आदि कानून ) में कोई परिवर्तन नहीं हुये है। कर्मचारिओं के भत्ते भी कम हुए है , पुरानी पेंशन प्रणाली तो पहले ही समाप्त कर दी है , सैलरी का इन्क्रीमेंट पहले ही रोक लिया गया है । जहाँ महंगाई दर 7 -7.50 % वार्षिक रहती है , श्रमिकों के वेतन में बढ़ोतरी दर 6 .5 % द्वि वार्षिक रही है (मैन्युफैक्चरिंग उद्योग )। लॉक डाउन में मार झेल रहे श्रमिकों पर ऐसे कानूनों में ढील देना मेरे तो समझ से बाहर है । खासकर निजी सेक्टर में कानूनों के बावजूद कार्य घंटे 12 तक है, मन वंचित पद,असमान मानदेय आदि और भाई भतीजावाद तो जमकर भरा हुआ है सैलरी का भी कोई पैमाना नहीं है, समान अनुभव, समान उम्र, समान डिग्री या

डिप्लोमा, समान निपुणता पर भी आपकी सैलरी अलग अलग हो सकती है। सरकार का ये फैसला भले ही उद्योगों को रियायत देने और मजबूत बनाने के लिए हो लेकिन वो इस बात से अनजान नहीं रह सकते हैं कि सारे नियमों का पालन कितनी संजीदगी से होता है। अपने आस-पास के किसी भी असंगठित श्रम क्षेत्र में वास्तविकता का चल जाएगी कि इसमें मजदूरों की इच्छा जैसी चीज होती भी है क्या? रही बात ओवर टाइम की तो ओवर टाइम जैसे शब्द का निजी संस्थानों में स्थान शून्य के बराबर ही होता है। ऐसे में इस बात का भी भय है कि श्रम कानून में ढिलाई देने के बाद फैक्ट्री मालिकों के लिए शोषण करना कानूनी हथियार न बन जाए, अधिकतर जगह उनके नियमों की पालना ही नहीं हो रही है । जहां फैक्ट्रियों में तीन शिफ्ट में काम होता है वहां दो शिफ्ट में ही काम कराया जाएगा। इसका असर यह होगा की कामगारों

और कर्मचारियों को 8 घंटे की बजाए 12 घंटे की ड्यूटी करनी पड़ेगी। और इसका विरोध करने पर कर्मचारियों को बाहर निकाल दिया जा सकता है जिसकी कहीं सुनवाई भी नहीं होगी। इस कानून के होने की वजह से फैक्ट्री संचालकों के मन में किसी भी उत्पीड़न पर श्रम कानून के उल्लंघन का डर तो रहता है। इतने कानूनों के बावजूद भी खासकर अनऑर्गेनीज़ेड सेक्टर में श्रमिकों से अधिक काम लेना, कम वेतन, समयानुसार वेतन वृद्धि नहीं करना, सैलरी समयनुसार नहीं देना, एक महीने का वेतन रोककर रखना आदि बातें अक्सर देखने को मिल जाएगी और वो भी बेचारे भूखे मरते क्या न करते , कुछ भी , कैसे भी करने को तैयार हो जासरकार ने हाल ही में 20 लाख करोड़ का बजट पास करने की घोषणा की है है , इसमें MSME Sector , लोन देना, ब्याज माफ़ी , लोन की लिमिट बढ़ाना आदि जैसे कई

योजनाए लाने की बात कही है, अच्छा है होना भी चाहिए , लोगों की आशाएं थी खासकर उद्योग जगत में , लेकिन इसके साथ में श्रमिकों के लिए भी कोई ठोस कदम लाये होते तो और भी अच्छे होते , कर्मचारियों या श्रमिकों के लिए कोई खास योजनाएं न देकर केवल झुटमुट योजनाए बताई है , उनका नियंत्रण भी धन्ना सेठों के हाथों में ही रहेगा । उद्योगपतियों द्वारा तो टैक्स स्लैब (ITR) ही अलग रहता है, और इनका लेखा जोखा तो CA रखते है जिनकी हकीकत 2 -3 वर्ष पहले माननीय पधानमंत्रीजी ने एक CA कांफ्रेंस में बताया था । सरकार द्वारा कई योजनाए लायी जाती है लेकिन बीच में ही डकार ली जाती है और जहाँ पहुँचाना है वहां खाली हाथ रह जाते है।

अधिकतर धन्ना सेठ तो प्रॉफिट ओरिएंटेड (लाभ पर केंद्रित)होते है उनको तो मुनाफे से मतलब होता है।हायरिंग एंड फायरिंग जैसे कानून में ढील दी तो फैक्ट्री मालिक जब चाहे तब नौकरी से निकाल देगा।    ( जिसको मीडिया व बिज़नेस भाषा में Retrenchment कहते है ) जिसको कि बेचारा श्रमिक समझ भी नहीं पाता । और कई धन्ना सेठ तो देश से ही छूमंतर हो गए जिनके कर्मचारी / श्रमिक आज भी दर दर भटक रहे है। सार्वजानिक/ सहकारी क्षेत्रों में इसीलिए लोगों का ज्यादा लगाव रहता है कि वहां पर लेबर लॉज़ की पालना सुदृढ़ता से होती रही है लेकिन उनका भी निजीकरण जोर शोर से चल रहा है, या फिर उनका काम भी धीरे धीरे ठेके प्रथा पर जा रहा है ।एक तरफ जहाँ बेरोजगारी के आंकड़े पहले ही भनायक स्तिथि में पहुँच गए थे ,एक राष्ट्रीय अख़बार के अनुसार सरकार ने तो पहले ही मान लिया था कि बेरोजगारी 45 साल के उच्चतर स्तर पर है , दूसरी तरफ कोरोना ने रही सही कसर पूरी कर दी। इस लॉकडाउन के चलते कई लोगों की जिंदगी अधर में है क्योंकि कई हजारों लाखों बेरोजगार हो गए और अपने गांव-कस्बों की ओर लौटने को मजबूर हैं। सीएमआईई के आंकड़ों के मुताबिक बीते अप्रैल में शहरी बेरोजागारी दर 30.93 फीसदी रही है, इसके काफी प्रतिकूल प्रभाव पड़ने की संभा"हम मेहनतकश जग वालों से जब अपना हिस्सा मांगेंगे, 

इक खेत नहीं, इक देश नहीं, हम सारी दुनिया मांगेंगे।''

अगर ये कहा जाए, कि दुनिया को चलाने में मुख्य भूमिका मजदूरों की होती है तो ये कहना गलत नहीं होगा। हम जो खाते हैं, हम जिस घर में रहते हैं, जिस सड़क पर चलते हैं उन सब में तमाम साम्रगियों के साथ-साथ मजदूरों का पसीना मिला होता है। केवल उत्पादन के आंकड़े ही देखने है तो अगल बात है अन्यथा यदि लोकल को ग्लोबल बनाना है या मेक इन इंडिया, मेड इन इंडिया का सपना पूरा करना है या फिर देश की खुशहाली के लिए तो श्रमिकों कानूनों को मज़बूत कर उनके अधिकारों को सुनिश्चित करना ही पड़ेगा वरना न तो आप स्वदेशी बचा पाएंगे और न ही विदेशी।


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