Laxmi N Jabadolia

Inspirational

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Laxmi N Jabadolia

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अवसाद : मन का फ़साद…।

अवसाद : मन का फ़साद…।

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हाल ही में बॉलीवुड के एक मशहूर अभिनेता का दुनिया से आकस्मिक अलविदा कहने पर अवसाद या स्ट्रेस मैनेजमेंट का विषय मीडिया में फिर चर्चा में बन गया है। अभी तक आशंका जताई गई है कि इसका मुख्य कारण अवसाद है। सब कुछ एशो आराम, धनदौलत, जमीन जायदाद, हष्टपुष्ट सुंदर शरीर आदि होते हुए भी अवसाद का नाम निकल कर सामने आया है, चाहे परिस्तिथियाँ कुछ भी हो। वास्तव में अवसाद मन की एक नकारात्मक स्तिथि है जिसमे आदमी मन से हार जाता है और हमेशा नकारात्मक विचारों, विकारों की झड़ी लग जाती है, मन मस्तिष्क पर हावी हो जाता है। वैसे तो आजकल इस भागदौड़ भरी जिंदगी में कोई भी अवसाद से बच नहीं सकता लेकिन गहन अवसाद से दुनिया मे हर उम्र (आदमी, औरत, बूढ़े , जवान यहाँ तक की बच्चे भी ) के करीब 30 करोड लोग अवसाद से ग्रसित है। विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) के ताजा सर्वे के मुताबिक खुदखुशी करने वालों में 50 फीसदी लोग अवसाद के शिकार हैं। अवसाद के भौतिक, जैविक, जैवरासायनिक, आनुवांशिक कारणों के साथ साथ मनोसामाजिक स्तिथी भी एक अहम् कारण हैं। वैसे तो मनुष्य स्वतंत्र पैदा होता है लेकिन सर्वत्र सामाजिक बेड़ियों में जकड़ा रहता है। भौतिकवाद के युग में आदमी के पास सबकुछ रहते हुए भी अवसाद के शिकार है। यही उसकी मनो स्तिथी है। सामाजिक परिस्तिथियों के कारण मन की स्तिथी गड़बड़ा रही है। विपरीत परिस्तिथियों को कैसे हल करना है वो समाज व शिक्षा का हिस्सा रहा ही नहीं। प्रतिकूल परिस्तिथियों के कारण जब आपके आसक्ति के फलस्वरूप परिणाम नहीं मिल रहे होते है तो आदमी पर नकारात्मकता हावी हो जाती है । जो मुख्यतः हमारे आंतरिक शांति को भंग करते हैं वे क्लेश हैं। वे सभी विचार, भावनाएँ और मानसिक स्तर (नकारात्मक विचार और भावनाएँ - जैसे घृणा, क्रोध, अहंकार, वासना, लालच, ईर्ष्या, भय, हीनता, कठिनाइयों के स्रोत,इत्यादि) जो एक नकारात्मक अथवा करुणाहीन चित्त की स्थिति को प्रतिबिम्बित करते हैं, अंतत आंतरिक शांति की हमारी अनुभूति को दुर्बल कर देते हैं। एरिक्सन के मनोसामाजिक सिद्धांत के अनुसार आदमी को जीवन विकास के एक विशिष्ट विकासात्मक मानक को पूरा करने में आने वाली समस्याओं का समाधान करना आवश्यक होता है। समस्या कोई संकट नहीं होती है, बल्कि संवेदनशीलता और सामर्थ्य को बढ़ाने वाला महत्वपूर्ण बिन्दु होती है, जिसको हल करना आदमी को सीखना चाहिए। ये जरूरी नहीं कि जीवन के हर मोड़ पर हमे सकारात्मक परिणाम ही मिले। परिणाम इच्छा स्वरूप हो सकते है लेकिन आसक्ति स्वरूप हो ये स्तिथि आपको अवसाद की तरफ मोड़ सकती है।

आसक्ति को अवसाद की जननी कह सकते है। आसक्ति लगाव की चरम अवस्था है, जब किसी भी अमुक संघ्या (वस्तु या व्यक्ति या स्थान, सेवा आदि) से इतना अधिक लगाव हो जाता है कि बिना उसके कुछ भी अच्छा न लगे, उसके बिना रह न सके, यह आसक्ति का द्योतक है । आसक्ति एक तरह का नशा है । नशे में व्यक्ति की जो मनोदशा होती है वही आसक्ति मे भी होती है। मन को जो अच्छा लगे या मनमाफिक करना ही आसक्ति है । इसमें अच्छे बुरे , ऊंच नींच, लाभ हानि का कोई प्रश्न ही नहीं उठता है चाहे स्वयं का हो या अन्य किसी का। उदाहरण –एक शराबी यह जानते हुए भी, कि शराब से उसका स्वास्थ्य बिगड़ रहा है , फिर भी बिना इसकी परवाह किये , वह पीता रहता है, क्यों कि वह व्यक्ति नशे या शराब के प्रति आसक्त है। प्यार में यदि कोई इतना आसक्त हो गया कि मरने मारने पर उतारू हो जाये तो वो आसक्ति है, प्रेम नहीं है। प्रेम में आप अहित नही सोच सकते भले ही आपका इज़हार अस्वीकृत ही क्यों न हो गया हो। आसक्ति में अहित करने से नहीं चूकेंगे इसके कई उदाहरण रोज मिल जायेंगे। अवसाद वो स्तिथी है जिसमे अक्सर मन ये सवाल करता है कि " अब कुछ शेष नहीं रहा है, सब कुछ ख़त्म।“आसक्ति मानसिक भाव है । जितने भी सुख दुःख , विकार , विचार के भाव है वो अपने मन / चित्त से आते है, हमारे अंत: पटल में सारी क्रियायें दो कारकों से संचालित होती हैं , एक मस्तिस्क और दूसरा मन । मस्तिष्क विवेचनात्मक है जब कि मन आनंदमयी। चिंतन मनन करना मन का स्वभाव है. मन या चित्त में जो कुछ जागता है, उत्पन्न होता है उसे विचार कहते हैं। मन चंचल है वो स्थिर नहीं है , उस पर काबू पाना ऐसे है जैसे किसी उदंडी घोड़े पर काबू पाना, जब तक काबू में नहीं आएगा तब तक उठक पठक करता रहेगा, काबू में आ गया तब शांत। कई संतो ने अपने मन रूपी छोड़े को काबू में कर लिया था इसलिए वो शांत जीवन जीते थे, अतिवाद शून्य था चाहे दुःख का हो या सुख का हो। अपने मन के सारे विकार को नष्ट कर दिया था इसलिए भगवान कहलाये ।

तथागत बुद्ध कहते है, हजार युद्ध जीतने से बड़ी जीत मन पर जीत होती है क्योंकि मन ही सारी प्रवृत्तियों का अगुआ है, मन ही प्रधान है।. यही हमे दुखी या सुखी बनाता है। इसीलिए कहा जाता है " मन के हारे हार है , मन के जीते जीत"। कभी ऐसा भी होता है कि मंज़िल ( धन, जमीन, जायजाद, प्रेम-प्रेमी, ऐशोआराम आदि) मिल जाने के बाद भी आप जीत नहीं पाते, शांत नहीं रह पाते, सुखी नहीं रह पाते और इसका कारण भी मन ही है इसीलिए मन पर जीत आवश्यक है। आसक्ति एक बंधन है , आसक्ति एक जाल है जिसमे मनुष्य का मन उसके बस में नहीं रहता और छटपटाता ही रहता है । बिना अमुक की प्राप्ति के वह बेचैन रहता है । हम क्या हैं , हमारा उद्देश्य क्या है आदि का आभास आसक्ति मे नहीं रहता है । अपने आप को भूल जाना आसक्ति की परकाष्ठा है। व्यक्ति न चाह कर भी वही काम करता है जिसके प्रति उसका लगाव है या जिसके प्रति वह आसक्त है । आसक्ति मे व्यक्ति को उसी वस्तु में ही सुख मिलता है। हमें मन को जीतना है आशक्ति अपने आप कम हो जायेगी । हमें मन और मस्तिष्क में सामांजस्य स्थापित करना होगा । मन को जीतना तो है किंतु उसे समझा कर , उसे मना कर , क्यों कि मन ही आनंद का श्रोत है । मन को सार्थक सोंच के मुताबिक ढ़ालना है । तथागत बुद्ध ने इसीलिए जीने का मध्यम मार्ग बताया है। मन को विचलित मत होने दीजिये , न सुख में और ही दुःख में। सुख दुःख तो संसार रूपी भवसागर के दो पहलु है, और अस्थिर है। यदि आसक्ति रूपी ऊर्जा को नियंत्रित कर सही दिशा दी जाये तो हम नि:संदेह जीवन के लक्ष्य को प्राप्त कर सकते हैं । यदि आसक्ति की दिशा सही नहीं है तो हम क्षणिक छ्द्म सुख की केवल मात्र अनुभूति कर जीवन मूल्यों से भटक सकते हैं, मन भटक सकता है और फिर हम अवसाद में आ सकते है।यदि मन की स्तिथी मज़बूत है तो कोई भी परिस्तिथि आपको अवसाद में नहीं ला सकती । ये मन की मज़बूत स्तिथी ही थी कि थाईलैंड में पानी की सुरंग से बच्चे 9 दिन बाद भी सुरक्षित बच निकले । इतिहास भी अनेकों उदाहरणों से भरा पड़ा है। चित्त का सबसे अनोखे गुणों में से एक यह है कि उसे परिवर्तित किया जा सकता है। इसमें कोई संदेह नहीं कि जो अपने चित्त शोधन का प्रयास करते हैं, वे अपने क्लेशों पर काबू पाते हैं और आंतरिक शांति की भावना प्राप्त करते हैं। प्राचीन भारतीय परम्पराओं में, चित्त शोधन वह विशेष प्रक्रिया है जो दूसरों के प्रति चिंता के विकास तथा कठिन परिस्थितियों को लाभ की ओर मोड़ने पर केंद्रित है। विचारों का यह रूप, समस्याओं को सुख में परिवर्तित करने की, मनुष्य को कठिन परिस्थितियों में भी अपनी गरिमा और उत्साह बनाए रखने में सक्षम है। कितनी भी कठिन परिस्थियों क्यों न हो , स्वयं को कभी न भूलों। लेकिन आज हम लोग आसक्ति के अतिवाद की तरफ झुके जा रहे है , केवल चकाचौंद लाइफस्टाइल व सुख को ही जिंदगी मानते है और फिर अतिवाद में स्वयं को भूल जाते है और जीवन के अंतिम क्षण को गले लगाने में संकोच भी नहीं करते । बुद्ध / महावीर के उपदेश देख लीजिये या अन्य कोई धर्म ग्रन्थ, सब मनुष्य के स्वयं को जानने की बात करते है। ईश्वर की पराकाष्ठा भी मानव के स्वयं से ही है। संसार आप से शुरू होता है, आप पर ही केंद्रित है , नर से नारायण बना है। स्वयं को जानने के बाद, कितनी भी विकट परिस्थियाँ क्यों न हो, आप समाधान निकाल लेंगे।

आप देख सकते है कि आसपास की कॉलोनी के गार्डन में रोज कुछ लोग टहलने आते होंगे और बड़े बुजुर्गों के साथ ठहाके लगा के हँसने का अभ्यास करते होंगे, उनके हँसने की नाटकीय आवाज़ (हा, हा हा हा ...) बखूबी पूरी कॉलोनी में सुनी जा सकती है। मैने एक दिन भागे जा रहे किसी सज्जन से हंसी मजाक में पूछ लिया कि आपने ठहाके लगा के हंसने का अभ्यास तो किया है लेकिन कभी गला फाड़ के रोने का अभ्यास किया। मेरा मानना तो ये है कि रोना और हँसना एक स्वभाविक प्रतिकिया है ,मन की वास्तविक क्रिया है , उसके लिए बनावटी अभ्यास की जरुरत नहीं होती । रोज रोज केवल बनावटी अभ्यास आपको क्रिया की वास्तविक स्तिथी पर न ले जाकर उसके विपरीत स्तर पर ले जा सकती है। फिल्म " रुदाली" में आप ये बखूबी देख सकते है। आजकल लोग बनावटी माहौल में जी रहे है, प्राकृतिक बहुत कम है, चाहे वो हंसना हो, रोना हो, या अन्य कोई भी सामाजिक क्रिया - प्रतिक्रिया । आजकल तो रिश्ते - नाते भी छद्मता की और बढ़ रहे है उनका आधार भौतिकवाद की तरफ बढ़ रहा है। मन की अनुभूति कम हो रही है।वर्तमान में अवसाद जीवन का एक हिस्सा बन गया है क्यों कि सामाजिक परिस्तिथियाँ आपके नियंत्रण में नहीं है, आपको अपने मन को संतुलित करके की जीवन आनंद लेना है, आप चाहे मनोवैज्ञानिक, चिकित्सा,योग, प्राणायाम , संगीत, किताबें ,लेखन या आपका मनपसंदीदा कार्य कर के आप अवसाद को मैनेज कर सकते है। या मन को इतना मज़बूत बना सकते है कि कोई भी अवसाद आप पर हावी ही नहीं हो। प्रशासनिक व प्रबंधन की सेवाओं में तो स्ट्रेस मैनेजमेंट सिखाया जाता है ताकि कार्य क्षेत्र में आने वाली हर प्रकार के तनाव से मुक्त रहकर सुचारु रूप से काम करते रहे। जिंदगी मैथ्स की तरह है , महापुरषों के उदाहरण से केवल जीवन रूपी समस्या कैसे सॉल्व करनी है ये समझ में आ जायेगा लेकिन सवाल का अंतिम उत्तर आपको अपने जीवनरूपी मैथ्स के सवालों को सॉल्व करके ही निकालना पड़ता है। इसीलिए बड़े बड़े मोटिवेशनल स्पीकर्स / महाराज को भी अवसाद से ग्रस्त देखा जा सकता है जो स्वयं दूसरों को अवसाद से बाहर निकलने के उपदेश देते रहते है।…सर्वे भवन्तु सुखिनः।- लक्ष्मी. एन. जाबड़ोलिया



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