Laxmi N Jabadolia

Abstract Inspirational Others

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Laxmi N Jabadolia

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परीक्षा परिणाम: एक अनुभूति

परीक्षा परिणाम: एक अनुभूति

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आज RBSE (राजस्थान बोर्ड) परीक्षा का परिणाम आया है। हर जगह हर्षोल्लास के माहौल है। कोई पास होने पर, कोई फर्स्ट डिवीजन तो कोई टॉपर्स मैरिट लिस्ट में आने पर अपनी ख़ुशियाँ परिवारजनों, मित्रों, गली मोहल्ले में बांट रहा है।

ऐसे ही करीब 20-22 वर्ष पहले RBSE बोर्ड की परीक्षा का परिणाम आने वाला था। उस समय 2-3 दिन पहले ही चर्चा व इंतज़ार शुरू हो गया था। ऑनलाइन तो था नही, गावों में चल दूरभाष (मोबाइल फ़ोन) भी नहीं हुआ करते थे। शाम के एक अखबार मे रोल नम्बर सहित प्रतिशत हुआ करता था। बोर्ड की परीक्षा जीवन की अहम परीक्षा है, भूत जैसा डर भी लगा रहता है। लेखक को भी ऐसे ही लग रहा था। उस समय तो बाई ग्रेस भी पास हो जाये तो बल्ले बल्ले हो जाया करती थी। फर्स्ट डिवीज़न वाला तो मानो ऐरावत हाथी की तरह इतराता था। मेरिट टॉपर भी 85-90% तक ही सीमिट जाती थी, छात्र के नाम से ज्यादा विद्यालय का नाम ज्यादा चर्चा में रहता था।

लेखक को उत्तीर्ण होने का तो आत्मविश्वास था लेकिन फिर भी परिणाम क्या होगा, चिंता लगी रहती थी, रहती भी क्यों नही, बोर्ड परीक्षा जो थी। और दूसरी वजह ये थी कि लेखक का विज्ञान का प्रथम पर्चा, बहुत ही खराब चला गया था, कुछ परिस्थितियां ही ऐसे ही रह गयी थी, दिन भर गाय, भैंस, गोबर पोटा, खेती बाड़ी, मज़दूरी आदि। गरीबी में जी रहे लेखक का मुख्य उद्देश्य केवल घर के काम मे हाथ बटाना मात्र ही था। फिर भी जैस तैसेे खेत की क्यारी में पानी (पानत) देते देते ही और रात को चिमनी के उजाले में थोड़ा बहुत पढ़ लिया करते थे। लगभग अनपढ़ पिताजी अक्सर कहा करते थे कि " खिंया द्योरा, छोरो 10 वीं पास हो जाय, बाद मे म्यारा साथ, काम पर ले जाऊंगा”। हालांकि लेखक के गुरुजन गण की अलग विचारधारा थी, वो प्रथम श्रेणी से पास की आशा लगाए बैठे थे। माता पिता से ज्यादा, शिक्षक गण ज्यादा जानते है, विद्यार्थियों के बारे में।

बोर्ड एग्जाम का केंद्र कुछ 5 km दूर, दूसरे गांव के स्कूल में आया। उस समय मोटर गाड़ी के अभाव में पैदल ही आया जाया करते थे । 2 -4 किलोमीटर कोई मायने नहीं रखता था, खेलते कूदते ही नाप लिया करते थे। आज तो दो कदम चलने में ही पैरों में छाले पड़ जाते है, साँस फूलने लगती है, एयर कंडीशन, लक्ज़री गाड़ियों की आदत जो पड़ गयी है । दोहपर का समय हुआ करता था पेपर का। धूप में, तपते बालू के गर्म धोरों में विद्यार्थी के तो जैसे पापड़ ही सिक जाया करते थे। लगभग सभी छात्रों ने आने जाने के लिए एक ऊंट गाड़ी किराये पर कर ली थी लेकिन लेखक के पास किराया 5 रुपये भी नही हुआ करते थे, अतः पैदल ही रास्ता नाप लिया करते थे । पूरा शरीर लाल हो जाया करता था। गर्म बालू चप्पलों से सिर तक किसी फिल्म अभिनेत्री के क्रीम पाउडर की तरह चुपड़ जाया करता था, फर्क केवल ठंडे गर्म का ही था। हमारा पाउडर गर्म था और अभिनेत्री जी का ठंडक देता है । ऐसे ही विज्ञान के प्रथम पेपर में परीक्षा केंद्र में जाने से पहले ही उल्टियां शुरू हो गयी, कैसे तैसे नींद लेके आधा अधूरा पेपर कर के आये।

ऐसी हालात देखकर परीक्षा केंद्र के नज़दीक ही घर की एक ठाकुराइन जी को गेहुएं रंग, भोले भाले शक़्ल के लेखक पर दया आ गयी, उसने, पिताजी से बात कर परीक्षा काल तक अपने पास रखने के लिए तैयार हो गयी। ऐसी दया भावना केवल गावों में ही देखने को मिलती है। महत्वपूर्ण बात ये रही कि , यहां पर जातिवाद, भाई भतीजावाद नगण्य था। खाना पीना जैसे कि घर का सदस्य हूँ, परीक्षा काल तक बिल्कुल बेटे की तरह रखा। चाय दूध नास्ता, सुपाच्य व स्वादिष्ट खाना पीना सब टाइम से टाइम मिला करता था। कई बार मन में भाव आता कि काश यही हमारा घर होता।

बाकी के पेपर शांति से हो गए। और परिणाम का इंतज़ार शुरू हो गया। आजकल में आने ही वाला था, यार दोस्तो को बोल रखा था कि इत्तला कर देना। गांव में मशहूर चाय की दुकान पर ही अखबार आया करता था, शाम का अखबार शहर से गांव का ही कोई आता जाता आदमी लाता था।

ख़बर मिलते ही दौड़े दौड़े गए, उस अखबार में परिणाम कैसे देखते है, कुछ समझ मे नही आया। लाखों की संख्या में रोल नम्बर, पहले लाख, फिर हज़ार, सैकड़ा, दहाई आदि लिख कर कोष्ठक में परिणाम लिखा गया था। किसी साथी के अनुभवी पिताजी जो सारे दिन भर चाय की दुकान पर बैठकर गप्प सप मारा करते थे, उनको परिणाम देखने के लिए बोला। अख़बार पर नज़र डालते ही कहा, "छोर्रा पास हो गो, लड्डू खिला"। लेखक ने दुबकी आवाज में पूछा कि कितनी बनी। 50%, बणी है 50%, उस समय 2-4% बड़ा कर राउंड फिगर में कर देते थे, 48% भी 50 ही है ना। अन्य साथियों के भी लगभग इसी आंकड़े थे, एक या दो लोगों के 61, 62 % बताए गए था। लेखक ने सोचा कि विज्ञान के पेपर के कारण कम बनी होगी। मायूस होकर घर लौटगया। पूरी रात भर सो नही पाया। आँखे सूज गयी थी। डर लग रहा था गुरुजी क्या बोलेंगे, डांटेंगे। काश, अखबार के परिणाम के नीचे एक लाइन में लिखे शब्द "हालांकि परिणाम प्रकाशित करते समय पूर्णतया सावधानी बरती गई है फिर भी बोर्ड द्वारा प्रकाशित अंकतालिका को ही सही माने"। सही हो जाये, इष्टदेव से यही प्रार्थना कर रहा था। पिताजी खुश थे, की छोरो पास हो गो।

20-25 दिन बाद हमारी स्कूल के गुरुजी एक अखबार सहित एक थैले को अपनी कांख में दबाए घर की तरफ चले आ रहे थे। फटाक से फटी बनियान पर, स्कूल की शर्ट पहनकर (केवल वही एक शर्ट हुआ करती थी), गुरुजी के चरण छुए, खटिया पर गुदड़ी बिछा कर गुरुजी को आसन ग्रहण करने के लिए निवेदन किया। लेकिन गुरुजी के पास शायद मेरे रोल नंबर लिखे हुए थे। बैठने से पहले ही मुस्कुराते हुए पिताजी से कहा। बच्चा, पास हो गया। मेरी तरफ देखकर,- लड्डू लिया ओ अब तो, कितनी बनी बैटे, आगे क्या प्लान है, मैथ्स लेना, वगैरह वगैरह कई सवाल दाग दिए। गुरुजी का व्यंग, लेखक की समझ से बाहर था, लेखक शर्म के मारे लाल हो गया था, गुरुजी को कैसे बताए कि 48% बनी है। रुदन सा मुँह लटक गया था। लेखक सकपकाते हुए कुछ कहता, उससे पहले ही पिताजी ने बात संभालते हुए कहा कि "थाको ही बच्च्यो छ, थाको हूकुम गुरुजी"। गुरु जी ने कहा- बच्चे ने रिकॉर्ड तोड़ दिया, रिकॉर्ड। आसपास के गांवों में स्कूल का नाम रोशन कर दिया। ये देखो (परिणाम अंकतालिका दिखाते हुए, जिसमे स्पष्ट 85-90% को छूता हुआ आंकड़ा दिखाई दे रहा था, विज्ञान प्रथम पर्चा में कम थे लेकिन दूसरे पर्चे में अच्छे नंबर थे अतः सब विषयों में D लग गई, जिसकी बाद में बोर्ड मेरिट स्कॉलरशिप भी मिली)। बच्चा हमेशा ही टॉप करता है। बोर्ड़ में इस बार प्रथम श्रेणी की आशा कर रखे थे लेकिन बच्चे ने तो कमाल कर दिया कमाल, कहते हुए गले लगा लिया। जिन गुरूजी का गुस्सैल चेहरा देखकर ही विद्यार्थियों के रोंगटे खड़े हो जाया करते थे, कक्षा में चूं भी नहीं निकलती थी, छोटी सी गलती में ही मुर्गा बना मार मार के तशरीफ़ लाल कर दिया करते थे, आज मुझे गले लगाकर प्यार से पुचकार रहे थे, सिर चूम रहे थे, घर की चाय पी, लड्डू भी खाए। लेखक भी गुरुजी के शरण मे आके भीगी आंखों से धन्य हो रहा था और गुरुजी का आशीर्वाद पा रहा था, हँसे या रोये कुछ समझ में नहीं आ रहा था, अश्रुओं की धारा बह रही थी लेकिन परम आनंद मिल रहा था। गुरूजी ने लगभग 2 मिनट्स तक अपने सीने से चिपकाये रखा। छोड़ने का नाम ही नहीं ले रहे थे , और भला मैं इस आनंद को क्यों कम होने देता। मेरे और गुरूजी के बीच कोई नहीं था, न जाति, न धर्म, न गरीबी , न अमीरी और न ही उम्र का दरिया , था तो केवल और केवल परमानन्द से भरपूर गुरु और शिष्य का रिश्ता । गुरूजी व पिताजी की आँखों में खुशी के आँसूं साफ झलक रहे थे । उस क्षण को लेखनी में बांधना, लेखक के सामर्थ्य से बाहर है। परिणामस्वरूप लेखक ने आगे भी सभी कक्षाएं प्रथम श्रेणी से उत्तीर्ण की है। दरहसल चाय की दुकान पर बैठे शख़्स ने लेखक का परिणाम न पढ़कर, रोल नम्बर के अंतिम अक्षर पढ़ लिए थे।

आज कई व्हाट्सएप, फेसबुक या अन्य सोसिअल मीडिया में अपने समाज वर्ग के टॉपर्स की मार्कशीट लगा कर जातिगत व्यवस्था को दूध पिला रहे है। लोग टॉपर्स को जातिवाद, वर्गवाद, धर्मवाद में बांट देते है। इसमें पत्र पत्रिकाएँ भी पीछे नही है। टॉपर ,टॉपर होते है, वो राष्ट्र या राज्य के टॉपर है। अगर आज भी लोग टॉपर को अपने ही समाज या वर्ग तक सीमित रखेंगे तो शायद ये मनुवाद से कम घातक नही है। फिर मनुवाद और पढ़े लिखे समाज में कोई फर्क नही है। जैसा कि कुछ लोगों ने तो UPSC / IIT टॉपर्स की भी जातियां ढूंढ़ने में लग गए थे। आजकल सोसिअल सोलिडेरिटी (सामाजिक प्रगाढ़ता) का बड़ा प्रचलन चल रहा है। सब ग्रुप बनाने में लगे हुए है, अपने इष्टदेव या महापुरुष किसी का भी टैग लगाए, कुछ भी बहाना ढूंढ लेते है जैसे जाति, वर्ग, नौकरी, नौकरी में भी सरकारी, अर्ध सरकारी, PSU, प्राइवेट आदि। उनमें भी कई का क्लब मिल जाएगा जैसे ऑफिसर्स, कर्मचारी क्लब आदि। और इनका काम केवल अपने ही अधिकारों तक सीमित रहता है, उनके अधिकार कम नही होने चाहिए बस, बाकी समाज के कोई लेना देना नही। ऐसे कई उदाहरण आप देख सकते है। आजकल जातिगत संस्थाओं द्वारा कागज के पत्र ( सर्टिफिकेट) भी बांटने का बहुत धंधा चल रहा है। लेखक टॉपर्स का मनोबल बढ़ाने के विरुद्ध नही, बल्कि लेखक का मानना है कि टॉपर्स को खुला छोड़िए।उनको किसी सिमित दायरे में नहीं रखे । हम सबसे पहले व आखिर तक सिर्फ भारतीय है । उसे ग्राम, स्कूल, सरकार, सर्व समाज द्वारा ही पारितोषिक होने दीजिए। सामाजिक संस्थाओं का कार्य बिना जातिगत समीकरण के कोयले की खदानों में दबे हीरों को बाहर निकालना है, जिनको बाहर निकलने का रास्ता ही नही मिल रहा है या जिनको बाहर निकाला ही नही गया। बाबा साहेब अंबेडकर का भी यही कहना था कि, जाति तोड़े बिना भारत मे कोई भी सामाजिक सुधार संभव नही है क्योंकि जातियां ही सामाजिक बुराईयों की मूल है औऱ इसी कारण अभीतक किये गए सामाजिक सुधार के प्रयासों का फल उतना सकारात्मक परिणाम नही रहा। लेखक स्वयं जातिविहीन व्यवस्था में भरोसा करता है यही कारण है कि लेखक आज तक जाति, वर्ग विशेष किसी संस्था से जुड़ा हुआ नही है।

यहाँ लेखक का भाव टॉपर की अनुभूति, सामाजिक संचेतना के साथ साथ जातिगत संस्थाओं द्वारा टॉपर्स की महत्ता को किसी वर्ग विशेष तक सीमित कर देने पर प्रकाश डालना है।



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