अनछुए अहसास
अनछुए अहसास


उन दिनों चिट्ठी पत्री का ही जमाना था, या फिर टैलीग्राम जिसे आम भाषा में लोग तार कहते थे, वो भी बहुत गमी या बहुत खुशी के मौके पर। खुशी के वक्त तो तार बहुत ही कम या एकाध ही आती थी। जब भी जिसके घर भी डाकिया तार लेकर आता था,उसके तो पैरों तले की जमीन ही खिसक जाती थी, और आसपास के लोग भी संज्ञा शुन्य हो जाते थे। वो जमाना ही और था, बहुत स्नेह था लोगों में, एक दूसरे के लिए भावनाएँ थी लोगों के दिल में। एक दूसरे के दुख सुख में दिली तौर पर शरीक होते थे, न की सिर्फ हाज़री भर जताने के लिए। शादी ब्याह से महीना भर पहले ही पड़ोसी भी तैयारी करवाने में जुट जाते थे। चार पाँच दिन तक तक सब मिलकर अनाज व दालों की सफाई करते। फिर उस घर की लिपाई पुताई मरम्मत आदि करवाते। कोई अपने पराये जैसी बात नहीं थी। काम करते हुए सब मंगल गीत गाते, कोई ऐसे नहीं कहता कि उनके घर मे शादी है, ऐसे बोला जाता कि हमारी गली में शादी है, फलां के बेटे की या बेटी की।
इन सब कामों के साथ साथ एक मुख्य काम होता था चिट्ठी लिखना और न्यौता भेजना, न्यौता तो शादी से दो या तीन दिन पहले ही दिया जाता था हाँ चिट्ठी जरूर महीना पहले लिखनी होती थी। जो बंदा चिट्ठी लिखता था वो बहुत ही जिम्मेदार होता था, उसी के पास ब्योरा रहता था कि किस किस को खत भेजना है और किस किस को भेजा गया है। शादी वाले घर का मुखिया उसे अपने मेहमानों के पते वगैरह सौंप देता था। कितना अपना सा था न वो जमाना। इस अपने से प्यारे से वक्त में सब की अपनी, सब की प्यारी थी, वृन्दा। सब उसे वन्दु कहते थे। छठी कक्षा में पढ़ने वाली वन्दु की लिखाई ऐसी थी जैसे किसी ने कागज़ पर मोती उड़ेल दिए हो। लोग उसे अपनी भाषा में मज़मून समझा देते थे खत को भाषा और शब्द देने का काम वन्दु का होता था।
कभी भी किसी के काम को न कहना वन्दु ने सीखा ही नहीं था। सब की राजदार थी वो। बिमला चाची सारे परिवार से छिपा कर वन्दु से चिट्ठी लिखवाती, अपने फौजी पति को, या तो अगले महीने छुट्टी ले के आ जाईयो वरना तीनो बच्चों को लेकर दौकली(एक नहर का नाम) में कूद जाऊँगी।
लिख दिए बेटी कुछ भी छूटना नहीं चाहिए। सुबकती हुई चाची को धीरज देना भी वन्दु का ही काम था।
कृष्णा बुआ अपने पति को खत लिखवाती, जिसमें विरह वर्णन होता। भरथो दादी अपने पीहर रामरमी की चिट्ठी जरूर लिखवाती हर महीने और उन की चिठ्ठी का जवाब भी आता।
लिखना और पढ़ना सभी काम वन्दु के ही थे। ऐसा नहीं था की पूरी गली में सिर्फ वही पढ़ना लिखना जानती थी, और भी बहुत लोग थे लड़के लड़कियाँ जो उससे बड़ी कक्षाओं में भी थे पर पता नहीं क्यों तमाम गली की खतोकिताबत वन्दु ही के हिस्से थी ।
कभी कभी तो उसके स्कूल से आते ही रास्ते मे ही बिमला चाची धीरे से बुलाती, आजा छोरी कब की बाट देख रही हूँ थारी।
चाची बस रोटी खा ल्यूं , बहुत भूख लग रही है।
चाची के घर रोटी ना है के छोरी, स्नेहिल डांट के साथ चाची मक्खन रोटी और चटनी खिलाती।
रामेश्वर चाचा तो शाम को ही आते थे। ए वन्दु चाल बेटी तेरी चाची बुला रही है।
चाचा माँ चाय बना रही है। चाय पी के आऊँगी। सुनो चाचा आप भी पी लो, मेरी माँ चाय बहुत अच्छी बनाती है।
ए चाल बेटी , तेरी चाची से मलाई वाली चाय बनवाते हैं, तेरे सहारे मुझे भी मिल जायेगी।
स्कूल के काम करने का समय लोगों के खत लिखने और पढ़ने में बीत जाता था। रात को बिजली नहीं होती थी बहुत बहुत देर में आती थी। दीये की रोशनी में काम करती तो माँ चिल्लाती, अन्धी हो जाओगी अन्धी, रात रात भर दीया जला कर इन किताबों में सिर खपाओगी तो। दिन में लोगों की सेवा में लगी रहेगी, जैसे इस के सिवा किसी को लिखना पढ़ना आता ही नहीं।
मत चिल्लाया कर वन्दु की माँ, छोरी अच्छा ही कर रही, कुछ बुरा न कर रही। देख कितनी पूछ है तेरी छोरी की गली में, सारा दिन वन्दु वन्दु हुई रहवे से। बाबा वन्दु को पुचकार लेते।
यूं ही खत लिखती और पढ़ती वन्दु बहुत अच्छे नम्बरों से बारहवीं जमात पास कर गई थी।
पड़ोस की बीना मौसी कम उम्र में ही विधवा हो गई थी। उन्होंने अपने भाई के बेटे को गोद ले रखा था। लड़का दो साल पहले ही फौज में भर्ती हो गया था। बीना मौसी भी सारी चिट्ठियाँ वन्दु से ही लिखवाती थी। वन्दु एक चीज हमेशा नोट करती कि बीना मौसी का बेटा हर खत के अंत में छोटा सा दिल का निशान बना देता है पर उसे तो इन सब से कोई मतलब ही नहीं था। एक बार वो अपनी छत पर कपड़े सूखा रही थी कि बीना मौसी भागती हुई आयी, वन्दु वन्दु जरा चिठ्ठी पड़ कर बता तो म्हारे राजेश्वर की लागै है, और कौन चिठ्ठी भेजेगा हमनै,आईए बेटी जरा जल्दी आईए।
मौसी आ रही हूँ।। वन्दु ने जैसे ही वो पीला लिफाफा खोला, उसमें दिल का निशान बनी एक गुलाबी परची भी थी जिस पर लिखा था।
सिर्फ वन्दु के लिए,
मेरे लिए
क्या तेरे लिए, छोरी।
कुछ नहीं मौसी मैं तो चिट्ठी खोल रही थी, इसी पर शायद कुछ लिखा है।
अच्छा छोरी पढ़ जल्दी पढ़।
वन्दु ने गुलाबी परची अपने आँचल में छिपा ली थी। मौसी को पता भी नहीं चला था।
अच्छा छोरी कल लिफाफा लेकर आऊँगी, कल जवाब भी लिख देना।
जी मौसी।।
रात को सब के सोने के बाद वन्दु ने वो गुलाबी परची खोली थी। जो सिर्फ उसी के लिए थी।
वन्दु मैं तुम्हें बहुत पंसद करता हूँ, पहले दिन से ही, जब से तुम को देखा था। हर बार खत पर अपना दिल भेजता था , पर तुम ने ध्यान ही नहीं दिया शायद। मैं दो महीने बाद छुट्टी आऊँगा, आते ही तुम्हारे माँ बाबा के पास माँ को भेज कर तुम्हारा हाथ माँग लूंगा। गर तुम्हें भी मेरी मोहब्बत मंजूर हो तो खत का जवाब दे देना। तुम्हारे जवाब के इंतजार में
राजेश्वर
वन्दु का चेहरा लाल हो गया था । उसे बहुत शर्म आ रही थी झट से चादर खीच कर चेहरा ढक लिया था।
मौसी अगले दिन लिफाफा लेकर आ गई थी खत लिखवाने के लिए। वन्दु ने भी खत पर एक दिल का निशान बना दिया था।
पन्द्रह दिन बीत गए थे कोई जवाब नहीं आया था। मौसी से भी नहीं पूछ सकती थी, गर कोई खत आता तो मौसी सीधे उसी के पास आती पहले।
आज सोच रही थी कि मौसी के पास जाँऊगी, शायद कुछ पता चले। तभी माँ किसी औरत को ये कहती सुनी, बहुत ही बुरा हुआ बेचारी के साथ, सारी उम्र बिता दी बैचारी ने वैराग्य में और अब इस उम्र में इतना बड़ा दुख।
दुख सुख की खबर तो लोगों को वन्दु से मिलती है, ये कौन सा और किसके दुख का जिक्र कर रही हैं माँ।
क्या हुआ माँ।
अरी वो तेरी बीना मौसी का छोरा नहीं था वो फौजी, जिस खातर चिट्ठी लिखवान आया करती वो,
हाँ, हाँ अभी तो उन की चिट्ठी का कोई जवाब ही नहीं आया वो जल्दी जल्दी बोल गई थी।
कैसा जवाब छोरी, वो बैचारा तै बार्डर पै दुश्मन संग लड़ते हुए राम ने प्यारा हो गया।
पर माँ।
माँ ने शायद उसकी बात सुनी ही नहीं थी, वो तो उस पड़ोसन के साथ बातों में व्यस्त थी।
वन्दु भाग कर कमरे में आ गई थी, उसने किताब से वो गुलाबी परची निकाल थी उस के उपर बने दिल के निशान पर उसके आँसू बह निकले थे। तुम ने तो मेरा जवाब भी नहीं पढ़ा और वादा खिलाफी भी कर दी। ऐसा क्यों किया तुमने बोलो ना।
आंसूओं से दिल पर लगी स्याही फैल गई थी, रंग भी हल्का पढ़ गया था।
मामाजी की एक पहचान के बंदे ने एक सरकारी नौकरी वाला रिश्ता बताया था। माँ बाबा ने भी तुरंत हाँ कर दी थी।
वन्दु भी उस धुँधले दिल को अपने साथ समेटे ससुराल आ गई थी। सब बहुत अच्छा था यहाँ। पर कभी कभी वो चुपके से उस धुँधले से दिल में भी झाँक लेती है।
माँ बाबा के पास जब भी जाती मौसी से जरूर मिलती, मौसी खूब रोती, मौसी को धीरज देते देते वो भी अपने आंसूओं को बह जाने देती।
वक्त कभी रूका है क्या, कभी नहीं,एक जमाना बीत गया है। आंसूओं से भीगे दिल की स्याही वक्त की गर्द से और भी धूधंला गई है। अब चिट्ठी पत्री सब खत्म हो गई हैं। अब तो वाट्सएप और मैसेंजर का वक्त है।
आज वो खुद पचास साल की हो गई है। दोनों बच्चे भी बड़े हो गए हैं। बाबा भी नहीं रहे। माँ के पास जब भी जाती मौसी के बारे में बात ज़रूर करती, अब मौसी भी नहीं रही थी।
बच्चों को ये सुनकर बहुत हैरानी होती थी कि उनकी माँ तमाम गली के लिए चिट्ठियाँ लिखती थी।
कैसे मैनेज करती थी माँ आप सब, सुना है आप पढ़ाई में बहुत होशियार थी।
अरे बेटा पता नहीं कैसे हो जाता था सब।
अच्छा मम्मी फिर तो आपने पापा को भी बहुत चिट्ठियाँ लिखी होगी क्योंकि आप तो खतोकिताबत में माहिर थी। बेटी ने हँसते हुए कहा था।
कैसी चिठ्ठी बेटा, हमारी तो दस दिन के अंदर ही शादी तय हो गई थी। पति ने हँसते हुए कहा था।
बेटा और बेटी भी हँसते हुए बाहर निकल गए थे।
वन्दु ,बच्चे एक बात तो ठीक कहते हैं, तुम इतनी बड़ी और व्यस्त पत्र लेखिका रही, परन्तु तुमने कभी चंद शब्द भी नहीं लिखे मेरे लिए।
आप भी बच्चों की बातों से बच्चे ही बन गए। मैं आप के लिए चाय लेकर आती हूँ।
चाय बनाते समय उसने भरे मन से कुछ सोच लिया था।
सुबह पितृपक्ष का आखिरी श्राद्ध है। कहते हैं इस दिन सभी भूले बिसरों का श्राद्ध होता है। पचास साल की हो गई हूँ, जीवन का क्या भरोसा। ये काम भी कर देना चाहिए।
सुबह जल्द उठ कर अपनी पारिवारिक रस्मों को निभाया, और फिर एक छोटा सा पर्स अपने बड़े बैग में रखा और मंदिर चली गई। उस वक्त मंदिर में कोई भी नहीं था। वृन्दा ने छोटे से पर्स में से गुलाबी रंग की परची बाहर निकाली। आखरी बार पढ़ा और हाथ जोड़ दिए।
राजेश्वर मैं तुम्हें और खुद को इन अनछुए अहसासों से मुक्त करती हूँ। तुम जहाँ भी हो खुश रहो, और उसने उस दिल की धुंधली स्याही को शिवजी के चरणों के जल से बिल्कुल साफ कर दिया और अपने आंसूओं की नमी से उसका तर्पण भी कर दिया।