मासी
मासी
जब भी कभी दुपट्टा सिर पर रखने की रिवायत को याद करके दुपट्टा रखती हूँ तो वे याद आ जाती हैं अपनी हिदायत के साथ।
“चुन्नी सिर ते लयी कर, कुड़ीयां नुं नंगे सिर शोभा नहीं देंन्दा।”
एक दर्द भरी मुस्कराहट मेरे चेहरे पर आ जाती है और दुपट्टे से सिर ढांप लेती हूँ।
उनको सब मासी ही कहते थे। और कोई सम्बोधन मैने उनके लिए कभी किसी के मुँह से सुना ही नहीं। मासी कहते ही वो आवाज़ की दिशा में तुरंत पलट जाती थी। उनसे मेरा परिचय दुपट्टे को ही लेकर हुआ था। मैं अपने दो बैग, लगभग घसीटती सी पैदल घर की तरफ आ रही थी तभी लगभग साठ वर्षीय दरमियानी कद काठी की महिला मेरी बगल से गुजरी। उनके पीछे पलट कर मुझे बोलने के कारण मेरी ऩजर उन पर पड़ी थी।
“चुन्नी लयी कर सिर ते।”
इतनी गर्मी और मेरे ढील ढाले कुरते में मुझे दुपट्टे की कमी उनके टोकने से न केवल महसूस हुई बल्कि अपने कस्बे की रवायतें भी याद आ गई।
“सॉरी आन्टी!”
मेरी जुबान से यकायक निकल गया था पर मेरी सॉरी सुनने के लिए वो वहां मौजूद ही नहीं थी। मेरी निगाहें उनको ही ढूंढ रही थी कि तभी मेरे घर के बगल वाले घर की मंजू सामने ही खड़ी थी।
“अरे छोड़ो न दीदी! पागल है वो तो । कभी किसी को कुछ कहती है तो कभी किसी को। यूं ही घूमती रहती है सारा दिन। मंजू ने मेरा एक बेग ले लिया था। हम घर की तरफ चल पड़े थे। सफ़र की थकान और गर्मी के कारण उस औरत के परिचय की कोई रूचि नहीं जगी थी मुझ में।
अगले दिन सुबह मैं उठ कर ब्रश ही कर रही की वही महिला अन्दर आ गई।
“वीर जी राम राम!”
वो सीधे मेरे डैडी के पास चली गई थी।
“लो चा(चाय) पी लयो!”
उसके हाथ में चाय का बड़ा बिना डन्डी का कप था जो शायद खाली ही था परन्तु उन्होंने पकड़ ऐसे रखा था, जैसे वो सिप कर रहीं हो।
“बहन जी बैठ जाओ! अभी बनाती है बेटी चाय।”
“पर मैं ता पी लयी वीर जी।”
“और पी लेना आप हमारे साथ।”
मैने बिना कुछ बोले ही चाय का पतीला गैस पर रख दिया था।
मेरा तीन वर्षीय बेटा जो कुछ महीनों से डैडी के ही पास था। डैडी के ही कमरे में सो रहा था। उसका सिर सहलाती हुई वो फुसफसायी थी।
“काका, उठया नी हैगा अजे!”
मैने उनकी और डैडी की तरफ चाय के कप बढा़ये तो उन्होंने अपना कप मेरे आगे कर दिया । डैडी के इशारे से मैं समझ गई थी कि वो अपने ही कप में पीयेंगी। मैने चाय उन्हीं के कप में डाल दी।
“तू वी पी ले पुतर ठन्डी हो ज ऊगी।”
उन दिनों मैं खुद भी जीवन के कुछ उतार चढ़ाव के दौर से गुज़र रही थी । उन का अपनापन अच्छा लगा था मुझे।
“नहीं-नहीं मै भी पी रही हूँ आन्टी!”
“ना पुतर ना मैं ता मासी हाँ तेरी। मासी आख मैंनूं! उन्होंने मेरे सिर पर हाथ रखा।”
“जी मासी!”
भावुकता से या फिर उन दिनों की परिस्थितियों के कारण डैडी की आँखें भी नम हो गई थी जिसे मैने उन्हें चश्मा ठीक करने के बहाने पोंछतें देखा था। मैं ऊपर बाथरूम में चली गई । नीचे आई तो देखा मासी झाड़ू लगा रही थी।
“ये क्या कर रही हो मासी! छोड़ो मै लगा लेती हूँ!”
तभी मंजू के पापा जिनकी सामने एक दूकान भी थी। वे भी अन्दर आ गए । मेरे हाथ जोड़ने पर उन्होंने सुखी रहने का आशीष दिया। मेरा बेटा भी उठ गया था। उसके कुनमनाने से चौंककर मासी ने उसे उठा लिया।
“आजा मेरा पुतर।”
वो भी उनकी आगोश में इस तरह सिमटा कि जैसे वो कोई अपनी ही हों।
मेरे होठों पर हल्की सी मुस्कराहट के साथ आँखों में अपनी दिवंगत माँ को याद करके नमी भी आ गई। वो लगभग तीन घन्टे रुकी। मैं उनको खाना खिलाना चाहती थी पर उन्होंने कहा बहुत काम है फिर आऊंगी।
उनके जाने के बाद डैडी ने बताया कि ये महिला कौन हैं?, कहां की हैं? इसके बारे में कोई नहीं जानता। इनका मानसिक संतुलन ठीक न होने के बावजूद बैचारी दिल की बहुत अच्छी हैं। शायद इनके परिवार वाले इन्हें जानबूझकर कहीं से यहां छोड़ गए हो! लगभग सात माह से ये यहीं पर हैं सभी के साथ बड़े प्यार से, अपनेपन से रहती हैं।
“पर ये इतनी धूप में अब कहाँ जायेगी?”
“ये एक जगह रूकती कहाँ है। सभी घरों में एक चक्कर लगा कर आयेंगी।”
“रात को सोती कहाँ हैं?”
“अपनी गली वालों ने ही इनको एक बिस्तर और चारपाई दे रखी है । गर ये गली में किसी महिला के पास रूकती हैं तो अपनी चारपाई और बिस्तर ले जाती हैं वरना सामने दूकान के बरामदे के नीचे उसको रख जाती हैं। मैने लाईन पार जो महिला आश्रम हैं। उनकी इंचार्जर से मिलकर इनके रूकने का प्रबंध करवा दिया था। तब सर्दियां थी बेटा और अन्जान कस्बे में ये ऐसी मानसिक हालत में! एक बार तो उन लोगों ने इनकी मानसिक स्थिति को देखते हुऐ मना कर दिया था। पर बाद में हम लोगों के ज़ामिन देने पर वो लोग मान गए थे।
समय सरक रहा था। मासी रोज आती थी। रोज मिलती थी।
मेरा बेटा भी सभी की तरह उसे मासी ही कहता था । गली के नुक्कड़ पर एक छोटा सा पार्क था। मेरे बेटे को वो उस पार्क में भी ले जाया करती थी।
एक दिन मैं दूसरे शहर से इन्टरव्यू देकर वापिस आ रही थी तो देखा मासी नीम के पेड़ के नीचे भीगी हुई मिट्टी सान रही थी।
उफ़्फ इतनी गर्मी और मासी यहाँ! मैने बुलाया- आजा मासी चाय पियेंगे!
पर उन्होंने मना कर दिया था-ना-ना, बोहत काम है अजै।
शाम को वे एक गत्ते के ऊपर चार-पाँच मिट्टी के खिलोने जो किन्ही जानवरों के आकार के थे। मेरे बेटे को देकर बोली-लै तेरे वास्ते हैगे काका।
मेरी आँख भर आई। मुझे लगा इससे कीमती तोहफा शायद मेरे बेटे के लिए कुछ भी नहीं हो सकता।
अगले दिन दोपहर को आँख लगी ही थी कि गली में हो रही आवाज़ों के कारण नींद खुल गई। डैडी भी घर में नहीं थे। मैंने बाहर जाकर देखा तो पता चला सामने वाले घर की लड़की मंजू टाईप सीखकर आ रही थी तो तीन लड़के जो बाईक पर थे उसके साथ छिछोरा व्यवहार करने लगे। उसका दुपट्टा खीचने की कोशिश कर रहे थे कि पीछे से मासी ने जो आश्रम से आ रही थी। उन्हें धक्का दिया, एकदम धक्का लगने से वो बाईक सहित गिर पड़े तभी उन्होंने उठकर मासी को भी जोरदार धक्का दिया और भाग गए। मासी को ज्यादा चोट आई थी। बाजू से खून बह रहा था शायद कमर पर भी चोट लग गई थी। मंजू उन्हें सहारा देकर घर ले आई । डैडी ने उन्हें दर्दनिवारक गोली दी और मंजू की माँ उन्हें दवाई लगा रही थी।
मैं उनके लिए चाय बनाने अन्दर आ.गई, मैं सोच रही थी, गर मासी पागल है तो क्यों नहीं हम सब भी उन्हीं के जैसे हो जाते ?
