Lalita Vimee

Tragedy

4.8  

Lalita Vimee

Tragedy

चाह राजू की

चाह राजू की

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496


आज तुझे फिर चिट्ठी लिख रही हूँ, मुझे पता है कि इसका भी जवाब नहीं आएगा, जवाब तो तुमने कभी दिया ही नहीं और फिर मेरे तो प्रश्न ही कुछ ऐसे हैं कि निरुत्तर रहना तुम्हारी मज़बूरी थी। तुम सोचोगी की जब तुम्हारी तरफ से कोई जवाब ही नहीं आना है तो फिर मैं तुम्हें क्यों लिख रही हूँ, तुम्हारा ऐसा सोचना स्वाभाविक है, पर पता नहीं क्यों तुम्हें लिखकर ऐसा लगता ही की मेरे दिल का कुछ तो बोझ हल्का हुआ। हालांकि तमाम उम्र मुझे इस बोझ के नीचे दबना तो पड़ेगा ही। तुम कहती थी न कि, 'इक बारी दरार पे जऊ तै भरनी बड़ी मुश्किल होंदी ए।'

यही दरार रूपी बोझ मेरी आत्मा पर है जो शायद ही कभी हटे। पता है आज तुम्हारी याद क्यों आई। मेरी पड़ोसन के दो बेटियां है और तीसरा बच्चा होने वाला है वो अल्ट्रासाउंड करवाना चाहती है, अगर होने वाला बच्चा लड़की हो तो गर्भ में ही समाप्त कर दिया जाए और अगर लड़का हो तो, तो क्या। तो वंश का वारिस, बुढ़ापे की लाठी और क्या कहती थी तुम-'मरण तूं बाद पानी देने वाला' आदि सब कुछ मिल जाएगा। तुम ये क्यों सोचती थी की आदमी मरने के बाद भी पानी पीने आता है। अगर आता भी है तो क्या सिर्फ बेटा पानी पीला सकता है। बेटी क्यों नहीं पीला सकती, जबकि वो तो और भी सफाई से, नफासत से पानी लेकर आएगी, है न। पर नहीं तुम नहीं बोलोगी। तुम खामोश रहोगी। क्योंकि तुम्हें विरासत में ख़ामोशी ही मिली है।

ऐसा भी नहीं की तुम हमेशा खामोश ही रहती थी। नहीं, तुम अच्छी वक्ता थी, लेकिन जब कोई ऐसा विषय उठ जाए जो तुम्हारी कमजोरियां बताता तुम्हारे पास से गुजरे तो तुम हमेशा खामोश पत्थर बन जाती थी। आखिर क्यों करती थी तुम ऐसा। तुम्हारे ऐसा करने से कितने ही लोगो ने कितना सहा है, तुम क्या जानो। तुम तो बस ..., खैर ... अब तुम कैसी हो, शायद खुश होगी, पर शायद नहीं, क्योंकि तुम्हारे जैसे इंसान तो खुश रह ही नहीं सकते। रोना, सिसकना ही उनकी नियति होती है। बहुत इल्जाम लगा रही हूँ न मैं। तुम पर बहुत बेबाक होकर लिख रही हूँ ना पर क्या करूँ मेरी शैली ही ऐसी बन गयी है। ये ऐसी क्यों बन गयी है, ये तुम बेहतर जानती हो चलो छोड़ो, हाँ तो मैं बता रही थी की आज मुझे अचानक तुम्हारी याद कैसे आ गयी। मेरी पड़ोसन होने वाली बच्ची को इसलिए खत्म कर देना चाहती है कि तीन-तीन लड़कियों का खर्चा बहुत बढ़ जाएगा, जबकि लड़कियाँ तो पराया धन होती हैं। एक लड़का हो जाता तो दोनों लड़कियों का पाली हो जाता। इस पाली शब्द से मुझे तुम्हारी याद आई ममा। एक बार अपने गांव की किसी सहेली से बात करते वक़्त तुमने कहा था न-रे संतो ये दो-दो छोरियां हो गयी राम इनका एक पाली भी दे देता तो ठीक रहता।

यानि तुम मुझे और रंजू को डंगर समझती थी, जिसके लिए पाली की जरुरत होती। क्या विचार थे तुम्हारे अपनी ही कोख जाइयों के लिए। शायद तुम्हारे इन्ही विचारों के कारण ही हम हमेशा हीन भावना से ग्रस्त रहे। तुम हमे हमेशा दुनिया की उतरन पहनाती रही, जबकि तुम और डैडी दोनों ही नौकरी करते थे। किसी फंक्शन में दूसरों के बच्चों को देखकर हमे अपने पर तरस आता था। उनके नए-नए कपड़े, उनका आत्मविश्वास सभी कुछ हमसे बढ़िया होता था। मुझे याद नहीं आता ममा कि तुमने हम दोनों बहनों को दूध भी कभी दिया हो। ये अलग बात है कि मैं कभी-कभी छुप कर उस दूध में से १००- ५० ग्राम पी लेती थी, जो तुम डैडी के लिए गर्म करके रखती थी। हाँ रंजू बहुत ही सीधी व भोली थी, जैसी की वो आज भी है। तुम्हें याद है ममा, मैंने एक बार तुमसे स्कूल यूनिफार्म के स्वेटर की मांग की थी क्योंकि स्कूल में रोज़ पिटाई होती थी तब तुम्हारा उत्तर था- सर्दियों के तो अब दो ही महीने रह गए हैं। कभी बहाना बना देना, कभी पिटाई हो जाएगी, और फिर तुमने डैडी की घिसी हुई बदरंग स्वेटर उधेड़ कर उस ऊन में धागा मिलकर मेरा और रंजू का स्वेटर बना दिया था। क्यों किया था तुमने ऐसा- क्या हम अनाथ थी। हमारे तो माँ बाप दोनो थे ममा और दोनों ही कमाते भी थे, डैडी बेशक शराब पीते थे, लेकिन उन्होंने तुम्हें कभी पैसे के लिए तो मना नहीं किया। और हाँ तुम उनसे हर महीने लड़का होने की दवाई के नाम पर पैसे कैसे वसूल लेती थी अगर तुम उन्हें वंश के वारिस का वास्ता देती थी तो तुमने उन्हें कभी ये क्यों नहीं कहा कि हमारी बेटियां ही हमारा भविष्य हैं, ये ही हमारा सहारा बनेंगी। नहीं, तुम्हें तो बस तुम्हारा बेटा चाहिए था 'राजू', जो कभी पैदा ही नहीं हो सकता था। ये बात उस समय तो किसी ने शायद तुम्हें नहीं बताई, पर आज मैं बताती हूँ। मेडिकल साइंस के अनुसार जो औरत बार-बार प्रेग्नेंट होती है, उसके शरीर की भीतरी संरचना बहुत कमजोर ही जाती है। बार- बार ऑपरेशन करवाने से कैंसर का खतरा होता है। यही तुम्हारे साथ हुआ। तुम हर पाँचवें महीने अपने राजू की उम्मीद से होती थी, और उसके तीन महीने बाद वही एबार्शन। तुम्हारे कितने एबार्शन हुए ममा, मुझे तो याद भी नहीं है। तुम तो पढ़ी लिखी थी, नौकरी करती थी, सब कुछ जानती थी। पर नहीं, तुम कुछ भी नहीं जानती थी, सिवाय राजू की प्रतीक्षा के।

ममा तुम्हारी जानकार धरमदेवी की बेटी, जो शायद तुम्हारी ही उम्र की थी, ने जब दो बेटियों के बाद ऑपरेशन करवा लिया था तो तुम्हें कितनी हैरानी हुई थी न। तुमने उस दिन घर में खाना भी नहीं बनाया था क्योंकि तुमने हर मिलने वाले के घर जाकर ये खबर उसे सुनाई थी। तुम हमेशा जान- बूझकर बीमार रही, बार- बार तुम्हारा प्रेग्नेंट होना और फिर एबार्शन। मैं होमवर्क करने के बजाय तुम्हारी टाँगे दबाती, कभी तुम्हारा सिर। कभी पड़ोस से रोटी बनवाकर पापा और अपनी नन्ही मासूम बहन को खिलाती। हमारे बचपन को वो तुमने अभागे बड़प्पन में बदल दिया था माँ, और फिर राजू की चाह ने तुम्हें अंत में क्या दिया- कैंसर।

ममा दिल्ली के राम मनोहर लोहिया हस्पताल में जब तुम अपनी आखरी साँसे गिन रही थी और मैं तुम्हारी देखभाल में लगी थी तब आस- पास वाले देखकर हैरान थे की एक मासूम किशोरी अपने घर से मीलों दूर इतनी सीरियस रोगी के साथ अकेली है। लेकिन तुम्हें इस बात का कभी गर्व नहीं हुआ, बल्कि तुम हमेशा रंज भरी आवाज़ में कहती, आज मेरा राजू होता तो...।

मैं पूछती हूँ अगर राजू होता तो वो क्या करता। क्या वो सब करता जो तुम्हारी मंजू और रंजू ने किया। काश तुम्हें अपनी मासूम बच्चियों पर भी कभी दया आई होती और तुम हमारा और अपना भविष्य संवारती। न हमारे भविष्य से और न अपने वर्तमान और भविष्य से खिलवाड़ करती तो आज स्थिति कुछ और होती। रंजू आज भी तुम्हें याद करती है। बड़ी मासूम है वो। हर चीज उससे वक़्त से पहले ही छीन गयी।

अब न राजू है, न तुम और न ही डैडी। बस मंजू और रंजू हैं। हमारी किसी उपलब्धि पर जब कोई ये कहता है की ये प्रोफेसर रूप सिंह और निर्मला जी की बेटियां हैं, तो मुझे बहुत गुस्सा आता है। क्यों लोग हमारे नाम के साथ तुम्हारा नाम जोड़ते हैं। तुमने तो कभी हमे अपने वंश का वारिस नहीं माना। ममा, बहुत कुछ लिखा है, कुछ गलत लिख गयी हूँ तो नादान समझ कर माफ़ कर देना। मैं यह खत तुम्हें कहां और कैसे भेजूं। मैं ऐसा करती हूँ कि ये खत बेनाम छोड़कर पड़ोसन के पते पर डाल देती हूँ। हो सकता है, मेरी इस कोशिश से पड़ोस की नीता-मीता की जिंदगी सुधर जाए और वे मंजू-रंजू बनने से बच जाएं।


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