ज़िन्दगी और ख़त
ज़िन्दगी और ख़त
ज़िन्दगी
तुझे ख़त लिखा था अरमानों भरा
टूटते गए अरमान
और ख़त मुरझाने लगा
ख़ुशबू भी अरमानों की।
ना जाने कहाँ गुम हो गई
तेरे आँगन में पतझड़ भी आया
आई बहारें भी
मग़र मेरे ख़त के लफ्ज़।
ना पहुँचे तुझ तक
कभी खो गए आंधियों में
कभी लहरों में बह चले
मेरे अरमानों की चिट्ठी।
सर झुकाए पड़ी रही
मेरे ही दामन में घुट कर
ए ज़िन्दगी
किसी रोज़ तो आना
खटखटाना दरवाज़ा मेरा।
या फिर चुपके से यूँ ही
खोलना दराज़े मेरे सपनों की
और बांच लेना वो खत
जो कभी तुम तक पहुंच ना पाया।