वटवृक्ष
वटवृक्ष
बरसों से सड़क के बीचोंबीच शान से खड़ा
वो वटवृक्ष
नवयुग के विस्तार की बलि चढ़ाया जाने वाला था
और उसकी बाहों में पली बढ़ी
वो अनगिनत सोनचिरैया
घूम घूम कर कलरव कर
मानो लड़ रहीं थीं उसे बचाने को
पर ख़ंजर उसके सीने में घोंप दिया गया
उन्हीं के हाथों
जिनके कुनबे बैठे थे ना जाने कितनी बार
उसकी छाया में
वो वटवृक्ष गिर पड़ा
इसलिये नहीं कि ख़ंजर नुकीले थे
इसलिए कि वटवृक्ष मान चुका था हार
इंसानी रिश्तों की मानिंद।
