वक़्त था कि
वक़्त था कि
मेरा हो के भी मेरे हाथों से निकल गया,
रेत बनकर हथेलियों से फिसल गया।
किसी के लिए ये धूल तो,
किसी के हृदय का शूल बन गया।
ज़ख्म भरने वाला ये कभी- कभी ,
नश्तर बनके सीने में उतर गया।
हाथों की लकीरों को समझने से,
पहले ही ये तक़दीर बदल गया।
अपने रंग में रंग के सबको,
ये हमारे ढंग बदल गया।
इससे पहले कि क़दम सम्भल पाते ,
वक़्त था कि अपनी चाल बदल गया।
वक़्त का सब शोर ही करते रह गए,
वह था कि चुपके से निकल गया।
