वक़्त आजकल
वक़्त आजकल
नींद न जाने क्यों आजकल खफा खफा है
दर ओ दीवारों से गुम हो चुकी वफ़ा है
"सच का बोल बाला" किताबों में छुप गया
भा गई है सबको झूठ की दवा है
दुश्मन तो दुश्मन,दोस्ती ने मुखौटा पहना है
फरेबी का नया चलन खूब ही चला है
ज़ख़्म कुरेदने वालों की दिखती नही फितरत
न जाने कहाँ खो गई आज शर्मो हया है
उम्मीदों के फूल खुदगर्ज़ी के हत्थे चढ़ गए
सुकून देती रूहों को,गुम हो चुकी वह दुआ है
कोशिशों पर भी यह मर्ज कहीं मरता नही
ज़हरीली हवा से बेरौनक हो चुका आसमां है
किस से गिला करे इन बदले हालातों का
सच हर मायने में आजकल कसैला है ।