विरह वेदना
विरह वेदना
वो सरसर सरकती
सिमटती सिसकती
रेशम के जैसे
चमकती कनक सी
महकती कुसुम सी
मेहबूबा को बोलो
मैं कैसे रिझाऊं
मैं कैसे मनाऊं
कहां तक मैं रोकूं
सहन को तपन की
वो ठंडी बरगद की
छांव को कैसे भूल जाऊं।।
कहां तक रुकूं मैं
कहां तक मैं रोकूं
है मेरा वहम खुद को
रोकूं न सोचूं
न माने मनाए
वो चंचल हसीना
थी रूठी वो इतना
हंसाए हंसी ना
है दिल में बसी बस
वो कैसे दिखाऊं।।
वो ठंडी बरगद की
छांव को कैसे भूल जाऊं।।

