उम्दा हकीकत
उम्दा हकीकत
एक रोज़ एक फसाना कुछ यूं हुआ,
समा एक गुलाबी रंगत के फलसफे से भर गया,।।
थोड़ी झुकी सी थी नज़र,
ये कैसा सुरूर छाया था मुझ पर,
मेरी हथेली पर दो बूंदे ओस की आ गिरी,
आज वो दहलीज किसी पीर के दर सी लगी,।।
एक रोज़ एक फसाना कुछ यूं हुआ,
समा एक गुलाबी रंगत से फलसफे के भर गया,।।
मेरी जुल्फें कभी बिखेर कभी संवार रहे है ये झोंके हवा के,
क्यूं आज सूफ़ी संगीत से लग रहे है ये गीत कोयल के,
ये शामें ये सुबह सब एक सी लगती है,
थोड़ी चुप और एक गुमशुदा शोर सी लगती है।
एक रोज़ एक फसाना कुछ यूं हुआ,
समा एक गुलाबी रंगत से फलसफे के भर गया,।।
बेखुदी में नंगे पांव सफ़र मीलों के तय हो गए,
कहते कहते कुछ अचानक हम ज़रा ठहर से गए,
हुनर के पक्के रंगरेज का ठिकाना बता दो,
कभी ना उतरे जो रंग उस रंग ये कोरी चुनरी रंगवा दो,।।
एक रोज़ एक फसाना कुछ यूं हुआ,
समा एक गुलाबी रंगत से फलसफे के भर गया,।।
इन कलाइयों पर चूड़ी की खनक भी भोर की प्रार्थना सी लगी,
लिखी थी मैने एक ग़ज़ल कोई और वो पन्ने पर ही एक अफसाना बन गई,
आहिस्ता आहिस्ता मै खुद की होने लगी,
थोड़ी होश में थोड़ी मदहोशी में जीने लग,।।