STORYMIRROR

Sarita Singh

Tragedy

4  

Sarita Singh

Tragedy

त्याग

त्याग

1 min
218

मेरी रचना: मंदोदरी विलाप


चहूं ओर है दीप जले

 मेरे मन ना उजाला

 बहुत प्रयत्न करके

रावण को मन से निकाला

 इस व्यथा से कैसे मन को संभाला

 आखिर मैं भी स्त्री हूं बनूँ कैसे प्रस्तर

 कैसे ओढूं पाषाण मन पर

 सिंदूर की रेखा हो चली बोझिल

 मन की रेखा कैसे जाएगी

मंदोदरी कर रही विलाप

पति प्यारे को अब वो कहां पाएगी

सब घर रहे दीप जल

 इस घर कोई रहा ना शेष

 किसका करें आज वह तिलक

आज किसका करें अभिषेक

उधर अयोध्या में भी एक नारी आहत

 बुझे मन से कर रही थी दीपदान

लंका विजीत सर्वर्त हुई जय कार

कर रही थी विचार यदि

उस हिय ना होता अभिमान

पराई नार को पाने का ना होता दुर्र विचार  

खंड खंड ना टूटता उसका स्वाभिमान

 ना होती यह दुर्दशा और ना होता

 रावण कुल का यह परिणाम


बड़े प्रताप भी रावण की थी एकमात्र भूल

हर लाया देवी को समझ किसी उपवन का फूल

क्या कहूं उस पुरुष को मंदोदरी को वैधव्य किया

 उस अभागी स्त्री का स्त्रीत्व पुकार रहा

रावण तुम दंभ अहंकार छोड़ सत्पुरुष बन आना

 रो रही मंदोदरी दीपोत्सव में

मंदोदरी का विलाप मिटाना।



Rate this content
Log in

Similar hindi poem from Tragedy