मौन मुस्कान
मौन मुस्कान
मत रो सुनो ओ नारी! क्यों मन की पीड़ा दबाती हो ।
खंडित हो निशदिन, नैनों में सहसा जल भर जाती हो।
मौन हो सौम्य प्रकृति सी बन, प्रेम समर्पण लुटाती हो।
मौन शिला अहिल्या बन, प्रतिक्रियाएं सह जाती हो।
ईंट पर ईंट जोड़ के औरत, एक बुनियाद बनाती हो
उम्मीदों का छप्पर रखकर, फिर घर एक बसाती हो।
निज संबंधों खातिर ही, दिन-रात नैन छलकाती हो।
सर्वस्व न्योछावर कर अपना अधरों से मुस्काती हो।
बड़ी वेदना, सहती तुम, निज जख्मों को सहलाती हो।
तन घायल मन घोर विवशता, अंत में घाव पाती हो।
अश्रु सदा बहते आंखों से, तुम मर्यादा को ढोती हो
केवल तन से जीवित रहती, अंतस को खोती हो।
सरिता अनुचित क्या है, अब तुम्हें फैसला करना होगा।
अस्तित्व बचाने हेतु तुम्हें, अब काली बनना होगा।