ठहराव
ठहराव
बस! एक ठहराव की ज़रूरत थी
वरना तुम उस महफ़िल में बेकाबू से पाए जाते
क्योंकि जज़्बे के नूर में
एक उफनता सैलाब उमड़ रहा था
जैसे साडी कायनात ने,
फूलों से ढकी चादर ओढ़ रखी हो।
मैं बिफर जाती तुम्हारे छुने भर से
और शायद उस छुअन के एहसास में
क़ैद न होते ये पल
कुछ बेतरतीबी-सी बात होती न ये ?
कहो न इस एहसास को क्या नाम दूँ ?
मैं सिमटना चाहती हूँ तुम में,
मगर इश्क़ में नाफरमानी करूँ कैसे?
टूटना चाहती हूँ केवल उन साँसों
में अपना नाम सुनने के लिए।
बेज़ुबान आँखें तरस गई
उस गुलिस्तां को सहेजने में
जिसके लिए मैं मुन्तज़िर रहूंगी।