अंदर की पुकार
अंदर की पुकार
इक मुर्ख करे, इक ही मूर्खता,
और बहाने दे हजार.
काउ बिछड़न मनोरंजक लागे
रूप नाम के पार.
पीर-पीर चीत्कार करे
मगर देखे ना सब समान.
जब समय मिलन का आए
तब सोए आर-पार.
अहो! कहो! ये कैसी थी पुकार
जो पहुंचकर जगा न पाए.
ज्ञानी-ध्यानी कह गए,
कछु नहीं यहाँ, कछु नहीं वहाँ
सब है भीतरी बात!
