क़ैदी मन
क़ैदी मन
क़ैद कैसी होती है आत्मा एक शरीर में ?
शायद अनुचित ये सवाल है
और चेतना पर न जाने किसका अधिकार है ?
कभी बंदिश बाहरी लगाते हैं,
तो कभी हम खुद बंदिश चुन लेते हैं।
किसका चुनाव किस पर भारी पड़ा ?
हम सदियों से चुनते आये हैं
अलग अलग तरह की दासता।
अब सोच पर जाने किसका है अधिकार?
कभी कोई बात मीठी लगे तो बन जाये हम दास,
कभी कोई बात कड़वी लगे तो भी बन जाये हम दास,
कभी कोई इज़्ज़त से पेश आए तो झुक जाए हज़ार बार,
कभी कोई कोसे तो ताँव दिखाएँ हर बार।
आखिर हम हैं कौन ?
शब्दों के घेरों में फँसे कोई मुलाज़िम
जिनको शब्दों के पीछे दिखे न कोई विचार
या फिर क़ैदी मन जो अपनी इच्छा से क़ैद में जीते-जीते मर जाता है!
