सुलझाव
सुलझाव
इस सुलझाव में कितना चैन है,
न कुछ मेरा, न कुछ तेरा, बस बीत रही ये रैन है।
इश्क़ के दरबार में खेल सजे जब,
तब आबरू में रूबरू हुए हम।
किसी बख़्शिश की तरह चाहने के अलावा,
मोहलत दी नहीं तूने
कि टूटे थोड़ा, और दुनिया से बेआबरू हो जाएँ।
मुआवजा मिला क्या यूँ जाने के लिए,
कि तेरे सामने किसी और के हो जाएँ।