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Anu Chatterjee

Abstract Others

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Anu Chatterjee

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ज़िन्दगी की दुर्दशा

ज़िन्दगी की दुर्दशा

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क्या कोयल, क्या कौवा

शहर के शोर ने सबको शांत कर दिया। 

केवल बड़ी-बड़ी इमारतें

आसमान से बात करती हैं।  

ज़मीं पर अब मानस के चिथड़े और लोथड़े मिलते हैं

और ज़िन्दगी की इतनी दुर्दशा भी आम-सी लगती है। 

सपनों को चाहे उड़ान न मिले,

मगर हर चीज़ के दामों पर पंख ज़रूर लगे हैं,

देखिये ज़रा, छूते ही बढ़ जाते हैं।  

सरकार टैक्स मिशन के अन्तर्गत

आधा पैसा हमसे लेकर जाने कहाँ लगाती है

न सड़कें भली, न शिक्षा के केंद्र भले,

मूलभूत आवश्यकता भी पूरी नहीं होती

तो फिर हेरफेर किसने और क्यों की ?

न पेड़, न हवा,

हर गली में नाली गंगा सी बहती है,

खिड़की खोले तो मिले ये नज़ारा

और न खोले तो घुटन से भर जाये कमरा सारा!

कहो! क्या ये सब उचित है ?

तब भी किया क्या हमने?

सड़कों पर चलते वक़्त,

कचड़ा वहीं फेंक जाते हैं

और संविधान का नारा लगाते हैं।

हमसे बड़ा असभ्य और पाखंडी देखा है आपने ?

न खुद कुछ करते हैं, न दूसरों को करने देते हैं।  

अरे भई ! समस्या क्या है ?

भारत की नागरिकता तो सबके पास है

मगर भारत किसी के पास नहीं।




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