समय का कारोबार
समय का कारोबार
कहीं भेंट, कहीं किस्सेदारी
कहीं रेट, कहीं हिस्सेदारी
ज़िन्दगी पटरी से उतरी हुई
और साँसें हैं भारी।
क्या कारोबार किया है
हमने समय का?
बेचैन मन में पीड़ा पिरोये,
चैन ढूँढने, शहर को ढोये,
मगर बाँट सके न बात कोई।
ये कारोबार समय का
भारी पड़ने लगा।
कभी तो दो बंदिश नहीं गुनगुनाये
कभी तो दो टूक बातें न कही
यह आरम्भ प्रचंड था
क्या कोई जानता था?
बेहोश, मदहोश, खामोश हर जुबां
कभी करवटें गिनने में लगा रहा
तो कभी सिलवटें ठीक करने में।
बस समय बढ़ता गया
और कारोबार ज़िन्दगी का चलता रहा।
मलाल इस बात का है:
कभी किसी को ज़िन्दगी के छूट जाने का एहसास न हुआ।
